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Thursday, 21 November, 2024
होमरिपोर्ट‘बंटेंगे तो कटेंगे’ एक सांप्रदायिक नारा है, इसके सामाजिक और राजनीतिक मायने गहरे हैं

‘बंटेंगे तो कटेंगे’ एक सांप्रदायिक नारा है, इसके सामाजिक और राजनीतिक मायने गहरे हैं

अपने आप में यह साम्प्रदायिक और विद्वेषी नारा है जिसका एक मतलब मुसलमानों को हिंदुओं के लिए ख़तरा सिद्ध करना है तो दूसरा मतलब सामाजिक न्याय की राजनीति को हिंदू-हित विरोधी बताना है.

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‘बंटेंगे तो कटेंगे’ अब भाजपा का राष्ट्रीय नारा बन चुका है. कुछ समय पहले यह सोशल मीडिया पर असामाजिक तत्वों द्वारा प्रयोग में लाया गया और फिर भाजपा के बड़े नेताओं के मुंह से और सोशल मीडिया एकाउंट्स से फैलने लगा. मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ का यह आजकल पसंदीदा नारा बन चुका है. लखनऊ की सड़कों पर योगी की फोटो के साथ इस नारे के बड़े-बड़े पोस्टर लगाए जा रहे हैं. इस नारे को आरएसएस बीजेपी ने अनुमोदित कर दिया है. प्रधानमंत्री समेत सभी नेता कार्यकर्ता इसको दोहरा रहे हैं.

वैसे अपने आप में यह साम्प्रदायिक और विद्वेषी नारा है जिसका एक मतलब मुसलमानों को हिंदुओं के लिए ख़तरा सिद्ध करना है तो दूसरा मतलब सामाजिक न्याय की राजनीति को हिंदू-हित विरोधी बताना है. यानी यह बताना है कि भाजपा को छोड़कर सारे दल हिंदुओं की एकता तोड़ने वाले हैं. असल में, यह असुरक्षा हिंदुओं की नहीं बल्कि खुद भाजपा की है. उसे इस नारे से हिंदुओं में डर बैठाकर वोट लेना है. इस देश में एक भी संवैधानिक संस्था कायदे से काम कर रही होती तो इस आपत्तिजनक नारे पर तुरंत पाबंदी लग जाती.

यह इस नारे की एक राजनीतिक व्याख्या है. परंतु इसके निहितार्थ इससे अधिक गहरे और चिंताजनक हैं.

जो भी दृष्टिसम्पन्न विचारक हुए हैं उन्होंने यह पाया है कि भारतीय समाज का मुख्य अंतर्विरोध साम्प्रदायिकता नहीं बल्कि सामाजिक विषमता पैदा करने वाली जाति व्यवस्था है. सामाजिक विषमता को दूर किए बिना कोई भी बदलाव असंभव है. लेकिन इस अंतर्विरोध को दबाने के लिए हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मों के कट्टरपंथी वर्चस्ववादी लोगों ने अंग्रेजों की ‘बांटो और राजनीति करो’ की नीति के तहत साम्प्रदायिकता को केंद्रीय समस्या बनाने की कोशिश की. साम्प्रदायिकता के मुख्य सामाजिक स्रोत दोनों धर्मों के वर्चस्ववादी तत्व रहे हैं. सेकुलर-लिबरल बुद्धिजीवी भी साम्प्रदायिकता को ही एकमात्र समस्या समझकर अपनी रणनीति बनाते और प्रकारांतर से जातिगत अंतर्विरोध की उपेक्षा करते रहे हैं. अपने वर्चस्ववादी अस्तित्व को बचाने के लिए नवाबों ने मुस्लिम लीग और हिन्दू सामंतों और व्यापारी वर्ग ने आरएसएस और हिन्दू महासभा को पाला पोसा. हिंदू समाज में ये तत्व कांग्रेस की प्रभावशाली भूमिका के कारण हाशिये पर रहे लेकिन मुसलमानों में मुस्लिम लीग की पकड़ बन गयी. फलतः देश का विभाजन हुआ.

आज़ादी के बाद आरएसएस ने कांग्रेस को कमजोर करने के लिए हर उस ताकत के साथ समझौते और सहयोग किये जो कांग्रेस को कमजोर कर सकती थी. इसके साथ ही साथ जातिगत उत्पीड़न और वर्चस्व के खिलाफ भी राजनीतिक दल खड़े हुए और सामाजिक वर्चस्ववाद को विधान सभाओं में लगभग किनारे लगा दिया. अब इनके पास फिर से साम्प्रदायिक अंतर्विरोध को बढ़ाकर सामाजिक न्याय की राजनीति को हाशिए पर धकेलने के अलावा कोई और रास्ता नहीं बचा था.

भाजपा ऐसे तत्वों की पसंदीदा पार्टी बन गयी. 2014 में सत्ता में आने के बाद से भाजपा लगातार 10 साल तक अडिग रही लेकिन 2024 के चुनावों में राहुल गांधी और इंडिया गठबंधन ने मिलकर सामाजिक न्याय के मुद्दों को साम्प्रदायिकता से बड़ा मुद्दा बनाने का काम किया, फलतः भाजपा बहुमत से दूर हो गयी और उसे अल्पमत की सरकार बनानी पड़ी. विपक्ष की इस रणनीति का सबसे बड़ा असर उत्तर प्रदेश में दिखाई पड़ा.

यह संयोग नहीं कि उक्त नारे की प्रदर्शनी उत्तर प्रदेश से शुरू हुई है. विगत लोक सभा चुनाव में बीजेपी को सबसे बड़ा झटका सबसे ज़्यादा कहीं लगा है तो वह उत्तर प्रदेश है. अयोध्या में राम मंदिर बनाकर लोकसभा चुनाव में चार सौ सीट जीतने का मंसूबा पाले बीजेपी को दूर दूर तक अंदेशा नहीं था कि वह अयोध्या और उसके आस पास के क्षेत्रों में चुनाव हार सकती है. इंडिया एलायंस ने अयोध्या की सामान्य सीट से एक दलित उम्मीदवार को खड़ा करके एक ऐसा चमत्कार कर दिया जिसकी उम्मीद किसी को नहीं थी.

उत्तर प्रदेश में बीजेपी की करारी शिकस्त, ख़ुद प्रधानमंत्री मोदी का पहले की तुलना में बहुत कम वोटों से जीतना और इंडिया एलायंस के दमदार प्रदर्शन के पीछे सबसे बड़ा जो फैक्टर काम कर रहा था वह सामाजिक न्याय के पक्ष में राहुल गांधी और अखिलेश यादव की जोड़ी द्वारा अभियान चलाना था. राहुल गांधी संविधान की कॉपी चुनावी रैलियों में लहरा कर संविधान बचाने का आह्वान कर रहे थे, जाति जनगणना का महत्व आम मतदाताओं तक पहुंचा रहे थे, आरक्षण पर पचास प्रतिशत की सीमा को तोड़ने का वादा कर रहे थे.

सामाजिक न्याय, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के पक्ष में इसका अनुकूल नतीजा यह निकला कि उत्तर प्रदेश में ख़राब प्रदर्शन के कारण आरएसएस-बीजेपी केन्द्र में पूर्ण बहुमत की सरकार नहीं बना सके. सामाजिक न्याय की ताक़तों और उसके मुद्दों से जो चुनौती बीजेपी को मिली है उसका काट उसके पास और कुछ नहीं है कि वह धर्म आधारित राजनीति और धार्मिक सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करें. सरकारी संरक्षण में बहराइच की सांप्रदायिक हिंसा और ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ जैसे नारे राहुल गांधी और अखिलेश यादव की जोड़ी द्वारा खड़ी की गई सामाजिक न्याय की चुनौतियों की प्रतिक्रिया में उपजे हैं.

सामाजिक न्याय की पांतों की ओर से योगी मोदी के इस विभाजनकारी नारे का ज़बरदस्त जवाब इस नारे से दिया गया कि जुड़ेंगे तो जीतेंगे. एक ओर बंटने और कटने की बात तो दूसरी और जुड़ने और जीतने की बात. योगी मोदी ने ऐसे सटीक जवाब की अपेक्षा नहीं की थी. जिनके डीएनए में ही सामाजिक न्याय का विरोध और धार्मिक ध्रुवीकरण करने का कोडिंग किया गया हो वह भला क्यों मानेगा!

कुछ दिनों बाद योगी ने विपक्ष पर एक और जुमला फेंका कि जो जाति, भाषा और प्रांत की बात करते हैं उनमें रावण और दुर्योधन का डीएनए है. मज़े की बात है कि योगी ने जाति, भाषा और प्रांत की बात तो की लेकिन धर्म की बात नहीं की. साफ़ तौर पर वे मान रहे हैं कि विपक्ष धर्म आधारित विभाजन नहीं करता है, धर्म आधारित विभाजन तो हम यानी आरएसएस-बीजेपी वाले करते हैं. उत्तर प्रदेश में कोई भाषा और प्रांत की बात नहीं कर रहा है.

आरएसएस-बीजेपी का इकोसिस्टम शुरू से सामाजिक विषमता के ख़िलाफ़ सामाजिक न्याय के लिए लड़ने वालों को जातिवादी कहता आया है. राहुल और अखिलेश द्वारा सामाजिक विषमता के ख़िलाफ़ सामाजिक न्याय की जो बातें (संविधान की रक्षा, जाति जनगणना, आरक्षण पर से पचास प्रतिशत का सीलिंग हटाया जाना) की जा रही हैं उसी को निशाना बनाते हुए योगी कह रहे हैं कि उनमें दुर्योधन और रावण का डीएनए है. ये वही योगी हैं जिन्होंने मुख्यमंत्री आवास में घुसने के पहले उसे गंगा जल से धोया था क्योंकि उनके पहले उस आवास में तथाकथित शूद्र जाति से आने वाले अखिलेश यादव रहा करते थे. ये वही योगी हैं जिनकी सरकार ने 69000 शिक्षकों की भर्ती में आरक्षित तबकों का हिस्सा मार लिया था और जिसको उच्च न्यायालय ने निरस्त कर दिया.

राहुल गांधी ने 19 अक्टूबर 2024 को रांची में आयोजित संविधान सम्मान सम्मेलन में स्पष्ट शब्दों में कहा कि भारतीय संविधान कोई सत्तर पचहत्तर साल पुराना नहीं है, इसके बनने की प्रक्रिया बुद्ध, महावीर के समय से शुरू हो गई थी, इसमें बुद्ध, महावीर, बसवन्ना, गुरु नानक से लेकर बिरसा मुंडा, नारायण गुरु, महात्मा गांधी और अंबेडकर के विचार शामिल हैं और संविधान और मनुस्मृति के बीच संघर्ष सैंकड़ों सालों से जारी है. दूसरे शब्दों में सामाजिक न्याय और हिंदुत्व के बीच संघर्ष सदियों से जारी है.

कांग्रेस नीत इंडिया एलायंस सामाजिक न्याय के पक्ष में तो बीजेपी नीत एनडीए साम्प्रदायिकता के पक्ष में खड़ा है. इतिहास में यह दर्ज हो चुका है कि मंडल आयोग को लागू करने की तात्कालिक भारत सरकार द्वारा घोषणा किए जाने की प्रतिक्रिया में आरएसएस-बीजेपी ने राम रथयात्रा निकाला था जिसके चलते देश में जहां तहां सांप्रदायिक दंगे शुरू हो गए. जब इस विध्वंसक रथ यात्रा को रोकने की कोशिश की गई तो बीजेपी ने समर्थन वापस कर सरकार को गिरा दिया. जो सामाजिक न्याय के ख़िलाफ़ षड्यंत्र रचने में इतनी दूर जा सकते हैं उनके द्वारा राहुल गांधी और अखिलेश यादव की तुलना दुर्योधन और रावण से करना कोई बड़ी बात नहीं है.

आवश्यकता ‘कटेंगे तो बंटेंगे’ जैसे आपत्तिजनक नारे के साम्प्रदायिक और जातिवादी निहितार्थों को समझकर दोनों तत्वों के खिलाफ एकजुट संघर्ष चलाने की है.

(डॉ चंदन यादव अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के राष्ट्रीय सचिव हैं.)


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