विदेश में रहने वाले भारतीयों के लिए कुछ ऐसी चीज़ें हैं जिनके बिना वह रह नहीं सकते — भारतीय खाना, भारतीय मसाले और बॉलीवुड. भारतीय जहां भी जाते हैं, वह इन ज़रूरी चीज़ों के लिए छोटी-छोटी जगहें बनाते हैं, ताकि वह अपने साथ घर का एक हिस्सा ले जा सकें. मैं भी इससे अलग नहीं हूं. दुनिया के सबसे विविधतापूर्ण शहरों में से एक लंदन में रहते हुए, मैं अक्सर खुद को ‘घर’ की तरह महसूस करती हूं — कोई जाना-पहचाना रेस्टोरेंट या कोई ऐसी फिल्म जो मुझे पास्ट में ले जाए.
इसलिए जब मुझे लंदन में अपने दोस्तों के साथ आलिया भट्ट की जिगरा देखने का मौका मिला, तो मैं तुरंत तैयार हो गई. फैक्ट कि वह अलग-अलग सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से थे, इसने मेरी खुशी को और बढ़ा दिया. फिल्म देखने का अनुभव न केवल मेरे अंदर के भारतीय के लिए संतोषजनक रहा, बल्कि यह सांस्कृतिक आदान-प्रदान का एक पल भी बन गया. आखिरकार, सिनेमा किसी देश के दिल और आत्मा का सबसे समृद्ध प्रतिबिंब होता है.
कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि बॉलीवुड, अपने अति-आकर्षक ग्लैमर और अक्सर अनरियल सीन के साथ, हमेशा भारत का सही प्रतिनिधित्व नहीं करता है, लेकिन यह अपने खास तरीके से समाज को दर्शाता है. मेरे लिए यह स्पष्ट था कि मनोरंजन के उद्देश्य से बनाई गई जिगरा ने सामाजिक मान्यताओं को एक सूक्ष्म चुनौती दी. एक पुरुष द्वारा अपने परिवार की रक्षा करने के बजाय, इसमें एक महिला को अपने प्रियजनों के लिए सब कुछ जोखिम में डालते हुए दिखाया गया.
जिगरा ने एक महिला को उसके भाई की रक्षक के रूप में प्रस्तुत करते हुए, लिंग मानदंडों को चतुराई से तोड़ा. यह दर्शाता है कि शक्ति और सुरक्षा केवल पुरुषों के अधिकार क्षेत्र नहीं हैं. एक भारतीय महिला होने के नाते, मेरा मानना है कि यह काबिल-ए-तारीफ है.
फिल्म में कुछ प्रभावशाली एक्शन सीन हैं, जो दिखाते हैं कि बॉलीवुड कितनी तेज़ी से आगे बढ़ रहा है, खासकर तकनीकी मोर्चे पर. सामान्य रोमांटिक सबप्लॉट के बिना एक कहानी देखना भी ताज़ा था.
हालांकि, जो बात मुझे परेशान कर रही है, वह कि मुख्य किरदार सत्या (भट्ट) का नैतिक ढांचा है, जिसे अपने कार्यों के लिए कोई परिणाम नहीं भुगतना पड़ता है, जिसमें अपने भाई अंकुर को बचाने के लिए एक विदेशी जेल में घुसना शामिल है. ऐसा लगता है कि उसके संदिग्ध फैसले केवल इसलिए ठीक हैं क्योंकि वह उनके भाई के प्रति वफादारी से लिए गए थे. सत्या की अन्य मनुष्यों और सरकारी अधिकारियों के प्रति उपेक्षा को लगभग बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया गया है.
आधुनिक भारत की नैतिक दुविधाएं
ऐसा नहीं है कि जिगरा नैतिक पहलू को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ करती है; एक अन्य किरदार, जिसने शुरुआत में भट्ट के साथ भागीदारी निभाई, नैतिक आधार पर उसे रोकने की कोशिश करता है, लेकिन उस पल के बाद, फिल्म बातचीत को फीका पड़ने देती है, जिससे मुद्दा अनसुलझा रह जाता है. जिगरा संकीर्ण और व्यापक, पारंपरिक और आधुनिक और पश्चिमी और भारतीय नैतिक विचारों को असंगत रूप से जोड़ती है, बस स्पष्ट रुख पेश नहीं करती.
इसने मुझे चौंका दिया कि क्या फिल्म ने अनजाने में 21वीं सदी में कई भारतीयों की उलझन की स्थिति को दर्शाया है — व्यक्तिगत अस्तित्व, पारिवारिक वफादारी, सामाजिक सद्भाव और व्यापक नैतिक चिंताओं के बारे में बढ़ती जागरूकता के बीच फंसा हुआ. फिल्म, अपनी अस्पष्टता में, उन नैतिक दुविधाओं को पकड़ सकती है जिनसे आधुनिक भारत जूझ रहा है.
ईमानदारी से कहूं तो, भारत में कई लोग यह मानने लगे हैं कि पर्याप्त धन और शक्ति के साथ, वह लगभग कुछ भी कर सकते हैं. दूसरों को नुकसान पहुंचाने के लिए परिणामों की कमी अब हमें चौंकाती नहीं है और यह देखना परेशान करने वाला है कि जिगरा जैसी फिल्में इस मानसिकता को कैसे दर्शाती और मान्य करती हैं. यह शायद समकालीन भारतीय समाज की एक परेशान करने वाली सच्चाई को दर्शाता है: नैतिक ढांचे का पालन क्यों करें, जब बिना नैतिक ढांचे वाले लोग सहजता से फलते-फूलते दिखते हैं?
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क्या हम अपनी संस्थाओं को महत्व देते हैं?
जिगरा ने एक और परेशान करने वाली सच्चाई पर प्रकाश डाला है कि व्यवस्था के प्रति हमारा सम्मान कम होता जा रहा है. किसी कारण से प्रियजनों की रक्षा के लिए अधिकारियों को धोखा देना स्वीकार्य माना जाता है, जैसे कि समाज के प्रति हमारा कोई उच्च नैतिक दायित्व नहीं है. यह सवाल उठाता है कि हम व्यक्तिगत निष्ठा के सामने संस्थागत अखंडता को कितना महत्व देते हैं. जो लोग व्यवस्था को बनाए रखते हैं, उन्हें बिना किसी वैध कारण के खलनायक की तरह पेश किया जाता है.
समस्या यह है कि भारत में नैतिकता एक व्यक्तिगत और स्व-निर्मित अवधारणा नहीं है. यह अक्सर इस बात से प्रभावित होती है कि समाज हमें क्या सिखाता है, हमसे क्या अपेक्षित है और धार्मिक व्यवस्थाएं क्या लागू करती हैं. यह देखना आसान है कि लोग इसे क्यों छोड़ सकते हैं अगर उन्हें ऐसा करने में व्यक्तिगत लाभ मिलता है. कोई अपराध बोध नहीं है क्योंकि मूल्यों को कभी भी सही मायने में समझा या आत्मसात नहीं किया गया था — उन्हें केवल विरासत में मिला था या दायित्व के कारण उनका पालन किया गया था. मेरे लिए यह फिल्म कुछ ऐसा ही दर्शाती है.
जबकि समाज और सांस्कृतिक इतिहास से प्रभावित होना अपना महत्व रखता है, व्यक्तिगत नैतिक स्वायत्तता और व्यक्तिगत नैतिक ढांचे के विकास पर जोर देने की अधिक ज़रूरत है. शिक्षा, धर्मनिरपेक्ष तर्क और दार्शनिक चिंतन इसे प्राप्त करने में मदद कर सकते हैं.
(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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