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Thursday, 21 November, 2024
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आरोप-प्रत्यारोप का फायदा नहीं, बहराइच हिंसा दिखाती है कि हिंदू-मुस्लिमों को अपने बीच की दरार पाटनी होगी

सोशल मीडिया यूज़र्स सांप्रदायिक झड़पों के दौरान एक पक्ष या दूसरे पक्ष को दोष देने पर ज़्यादा ध्यान देते हैं, बजाय इसके कि वे आम सहमति बनाने की कोशिश करें.

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हाल ही में उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले में दुर्गा प्रतिमा विसर्जन जुलूस के दौरान दो समुदायों के बीच झड़प होने की वजह से सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठी. इस हिंसक घटना में एक हिंदू युवा राम गोपाल मिश्रा की जान चली गई.

मिश्रा की मौत पूरे भारत हुई ऐसी कई झड़पों की दर्दनाक याद दिलाती है. इसके साथ ही 22-वर्षीय राम गोपाल मिश्रा देश भर में फैली सांप्रदायिक हिंसा की वजह से मारे गए युवाओं की लंबी सूची में शामिल हो गए हैं. प्रत्येक पीड़ित अपने पीछे एक शोकाकुल परिवार छोड़ जाता है. वह माता-पिता जिन्होंने अपने बच्चों को खो दिया है, बच्चे जो यतीम बन गए हैं और रिश्तेदार जिन्हें ज़िंदगी भर इन गहरे घावों के दर्द को सहना होगा.

दोनों समुदायों के बीच सांप्रदायिक हिंसा का इतिहास भारत की स्वतंत्रता से भी पहले का है. उत्तर प्रदेश में पले-बढ़े होने के नाते बचपन में, दोनों समुदायों के त्यौहारों के एक ही दिन पड़ने पर हिंदू-मुस्लिम संघर्ष होने का बात सुनना कभी भी चौंकाने वाला नहीं था. दूसरे समुदाय के लोगों द्वारा धार्मिक जुलूसों पर हमला करने से सांप्रदायिक दंगे होने की खबरें अक्सर अखबारों में आती थीं.

सोशल मीडिया और आरोप-प्रत्यारोप

यूपी में, मुझे सांप्रदायिक दंगों के बारे में कई कहानियां सुनने को मिलीं और, एक बात जो मुझे चौंकाती है, वह है, स्थानीय समुदाय का सोशल मीडिया पर संघर्षों के बारे में दी जाने वाली प्रतिक्रिया. ज़मीनी स्तर पर, मैंने दोनों पक्षों के स्थानीय नेताओं द्वारा शांति स्थापित करने के वास्तविक प्रयास देखे हैं. जैसे — वरिष्ठ नागरिकों द्वारा दोनों समुदायों के बीच की दरार पाटने की कोशिश, शांति वार्ता में मध्यस्थता करने और स्थायी समाधान के उद्देश्य से एक-दूसरे के बीच बातचीत को बढ़ावा देने के लिए आगे आना, लेकिन, दुख की बात है कि सोशल मीडिया की अपनी एक अलग दुनिया है, जो बीच-बचाव की बात करने के बजाय एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने का काम करती है. सोशल मीडिया पर कई पॉपुलर अकाउंट अक्सर समाधान के बजाय संघर्षों को बढ़ावा देते हैं, जिससे ध्रुवीकरण होने की संभावना को बल मिलता है. मेरा मानना ​​है कि इसका कारण यह हो सकता है कि इन अकाउंट्स के पीछे के लोग इस तरह के दुष्चक्र का हिस्सा बनकर लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचना चाहते हैं, जबकि स्थानीय लोगों को वास्तविक स्थिति का सामना करना पड़ता है. ये झड़पें वास्तविक जीवन में सोशल मीडिया पर मौजूद लोगों को कभी प्रभावित नहीं करेंगी.

सबसे पहले, हमें यह पूछना चाहिए कि भारत में आखिर “मुस्लिम इलाकों” जैसा नैरेटिव मौजूद ही क्यों है. घेट्टोवाइज़ेशन एक वास्तविकता है, लेकिन ऐसे तर्क ये संदेश देते हैं कि एरिया अगर मुस्लिम बाहुल्य वाला है तो स्वाभाविक रूप से समस्याग्रस्त या अलग है और इस वजह से वहां से अन्य समुदाय के जुलूस नहीं जाने चाहिए. साथ ही, एक परेशान करने वाला विमर्श है जो अक्सर इन तथाकथित मुस्लिम इलाकों से गुजरने वाले हिंदू जुलूसों को स्वाभाविक रूप से विवादास्पद के रूप में पेश करता है. ऐसे जुलूसों के खिलाफ आरोप भी लगाए जाते हैं, यह कहते हुए कि उन्हें मनोवैज्ञानिक वर्चस्व के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, जिसका उद्देश्य मुसलमानों को दबाना की कोशिश करना या अशांति भड़काना है.

राम गोपाल मिश्रा की मौत के हालिया मामले में, हमने देखा कि सोशल मीडिया पर यह नैरेटिव कैसे चलाया गया. प्रमुख इन्फ्लुएंसर्स ने मिश्रा के हरे झंडे को हटाकर उसकी जगह भगवा झंडा लगाने के वीडियो साझा किए, लगभग ऐसा लगा जैसे कि उनकी हत्या के लिए दोष को सही ठहराने या उसे दूसरे पर थोपने का प्रयास किया जा रहा हो. यह पीड़ित को दोषी ठहराने का एक परेशान करने वाला रूप है, जो पीड़ित की हरकतों को भड़काऊ बताकर हिंसा को माफ करने जैसा प्रतीत होता है.

विश्वास की कमी

यह पूछने के बजाय कि सार्वजनिक स्थानों पर हिंदू धार्मिक जुलूसों के दौरान मुसलमान क्यों अतिसंवेदनशील या तनावग्रस्त महसूस कर सकते हैं, एक निश्चित वर्ग यह सुझाव देने पर आमादा है कि हिंदू जुलूसों को मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों से पूरी तरह से बचना चाहिए. यह दृष्टिकोण न केवल अंतर्निहित मुद्दों को दरकिनार करता है बल्कि अलग-अलग सार्वजनिक स्थानों की स्वीकृति का भी संकेत देता है. कल्पना कीजिए कि अगर यही तर्क मुस्लिम जुलूसों के दौरान लागू किया जाता. तो क्या हम इन आयोजनों को हिंदू-बहुल क्षेत्रों से गुजरने से रोकने की वकालत करेंगे? वास्तव में, ऐसे वीडियो हैं जिनमें मुस्लिम जुलूस कई क्षेत्रों से गुजरते हुए भड़काऊ गाने और भाषण बजा रहे हैं और हम शायद ही कभी उन पर इस तरह का कोई जवाबी हमला सुनते हैं.

यह भी तर्क दिया जाता है कि कुछ हिंदू जुलूस भड़काऊ नारे लगाते हैं और गाली-गलौज करते हैं, कुछ का सुझाव है कि ये आयोजन “अश्वमेध सिद्धांत” दृष्टिकोण को दर्शाते हैं – जहां जुलूस या तो संघर्ष की ओर ले जाता है या मनोवैज्ञानिक प्रभुत्व का दावा करता है. लेकिन अगर हम यह स्वीकार भी कर लें कि इस दावे में कुछ सच्चाई है, तो क्या यह प्रतिशोधात्मक हत्या या हमले को उचित ठहराएगा? यह तर्क कुछ इस तरह है कि गौहत्या या तस्करी हिंदू भावनाओं का जानबूझकर अपमान करने के समान है, तो क्या इससे गौरक्षकों द्वारा हिंसा को उचित ठहराया जा सकता है?

वास्तविकता यह है कि समुदायों के बीच समझ या विश्वास की एक निश्चित कमी है जो उनके बीच दरार पैदा करती है. जब आप पहले से ही एक-दूसरे को अलग-अलग मानते हैं या इरादे पर संदेह करते हैं, तो आपके ज़्यादातर काम अपमानजनक या हमला करने वाले लगते हैं. इन दरारों की गहरी ऐतिहासिक जड़ें हैं, जो प्राचीन आदिवासी संघर्षों से लेकर धार्मिक युद्धों और आक्रमणों के निशानों तक हर चीज़ से आकार लेती हैं.

जबकि मुस्लिम समुदाय के भीतर प्रतिगामी और पुरातन मान्यताओं ने उन्हें पहले से ही अलगाव की ओर धकेल दिया है और उनमें अविश्वास भर दिया है, आधुनिकता उनके लिए विविधता को स्वीकार करने और अलगाव की मानसिकता से बाहर आने का समाधान हो सकती थी. लेकिन दुख की बात है कि जिन्हें इसे सुधारने के लिए काम करना चाहिए, वे दूसरों पर दोष मढ़ने और खुद को पीड़ित के रूप में चित्रित करने में अधिक चिंतित हैं. यह समुदाय को दूसरे समुदाय के प्रति और अधिक संदेह से भर देता है. दुर्भाग्य से, दूसरा पक्ष भी धैर्य खो रहा है. सोशल मीडिया द्वारा संचालित ध्रुवीकृत नैरेटिव के साथ, संदेह का लाभ देने और ईमानदारीपूर्ण कम्युनिकेशन के लिए जगह बनाने की इच्छा कम हो रही है. जैसे-जैसे विश्वास कम होता है, वैसे-वैसे ईमानदार संचार में शामिल होने की इच्छा भी कम होती जाती है जो विभाजन को पाट सकता है.

(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नामक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं, उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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