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Friday, 11 October, 2024
होममत-विमतरतन टाटा के साथ रिश्ते की ठंडी शुरुआत, डॉग्स के प्रति प्रेम के साझेपन से किस तरह गर्मजोशी में बदली

रतन टाटा के साथ रिश्ते की ठंडी शुरुआत, डॉग्स के प्रति प्रेम के साझेपन से किस तरह गर्मजोशी में बदली

सियासत, व्यवसाय के माहौल से उनकी निराशा, उद्यमशीलता से लेकर टेक्नोलॉजी और विमानन के मामले में उनके प्रेरक विचारों, और दान-परोपकार आदि पर हुई बातों के बीच हमने पाया कि हम दोनों को डॉग्स को पैट बनाने का शौक है.

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सात साल पहले जब‘दिप्रिंट’ शुरू हुआ था, उसकी हौसलाफजाई करने वालों में रतन टाटा भी शामिल थे. यह लंबे समय से कायम भरोसे, सम्मान, दोस्ती और सबसे महत्वपूर्ण इस साझा यकीन का फल था कि अच्छी, निष्पक्ष पत्रकारिता से सबका भला ही होता है. इसलिए, उनका चले जाना संस्था के लिहाज़ से ‘दिप्रिंट’ के लिए और व्यक्तिगत रूप से मेरे लिए एक त्रासदी है.

लेकिन उनके साथ इस रिश्ते की शुरुआत को आदर्श शुरुआत नहीं कहा जा सकता. अक्टूबर 1997 में जब मैं ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ का लगभग नया संपादक ही था, उसके खोजी पत्रकारों के ब्यूरो की चीफ ऋतु सरीन, जिन्हें मैं बड़ी इज्ज़त से ‘मुस्कराती कातिल’ कह सकता हूं, कुछ हांफती हुई मेरे कमरे में आईं. उनके हाथ में दो कैसेट टेप थे. यह डिजिटल युग से पहले के युग की बात है. सरीन ने कहा, “जरा इसको सुनो”. उनका पूरा चेहरा मानो एक बड़े ‘स्कूप’ का ऐलान कर रहा था.

उन टेपों में टाटा ग्रुप के कुछ टॉप अधिकारियों, उनकी ओर से बात कर रहे उद्योगपति नुसली वाडिया, केंद्र सरकार के कुछ बड़े अधिकारियों, फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ (जो उस समय टाटा ग्रुप के एक निदेशक थे) और कई और लोगों के बीच हुई बातचीत दर्ज़ थी. यह बातचीत असम के बागी गुट ‘उल्फा’ द्वारा बंधक बनाए गए कुछ लोगों को छुड़ाने में टाटा ग्रुप की मदद करने, असम में टाटा टी के चाय बागान के अधिकारियों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए इस बागी गुट और टाटा ग्रुप में ‘सुलह कराने’ को लेकर भी की गई थी.

इस खबर ने भारी हलचल पैदा कर दी, रतन टाटा और पूरे टाटा ग्रुप को बुरी तरह नाराज़ कर दिया. टाटा ग्रुप के मित्र और खुद नुसली वाडिया टीवी चैनलों पर आए और अखबार तथा उसके संपादक को गैर-जिम्मेदार बताया. इंद्र कुमार गुजराल सरकार ने यह जांच करने का आदेश जारी कर दिया कि उस बातचीत में शामिल लोगों के फोन किसने टेप किए, लेकिन इस जांच का कोई नतीजा नहीं निकला. मामला खत्म हो गया, लेकिन टाटा ग्रुप और मेरे संपादन में प्रकाशित उस अखबार के रिश्ते में बर्फ जमी रही.

यह बर्फ रिपोर्टर की आम खुशकिस्मती के कारण पिघली. 1998 की गर्मियों में मैं न्यूयॉर्क में सुबह की दौड़ लगाकर टाटा (ताज ग्रुप) के लेक्सिंग्टन होटल लौट रहा था जब एक पहचाने-से अमेरिकी स्वर में किसी ने मुझे आवाज़ दी. ये फ्रैंक विसनर थे, जो तब एक साल पहले तक भारत में अमेरिका के राजदूत थे. उनके साथ सुबह के नाश्ते पर उनका साथ दे रहे थे रतन टाटा. विसनर ने अपने खास अंदाज़ में उत्साह के साथ उदारतापूर्वक तारीफ करते मेरा परिचय उनसे करवाया. मैं रतन टाटा से पहली बार मिल रहा था. हम दोनों के बीच कोई बातचीत नहीं हुई सिवाए इसके कि हमने हाथ मिलाए और असहज मुस्कानों का आदान-प्रदान किया.

इसके दो दिन बाद मैं चेक आउट करने के लिए लाइन में खड़ा था कि मैंने पाया, रतन टाटा मेरे आगे खड़े थे. होटल का पूरा स्टाफ उन्हें विदा करने और उनके साथ ग्रुप फोटो खिंचवाने के लिए वहां जमा था. मैंने सोचा, यह भी मेरी खुशकिस्मती ही है. हम दोनों अब एअर इंडिया की एक ही फ्लाइट से यात्रा कर रहे होंगे. मैंने उनसे कहा, “आपसे विमान में मुलाकात होगी. मैं भी एअर इंडिया की फ्लाइट से जा रहा हूं.”

उन्होंने कहा, “लेकिन मैं ब्रिटिश एअरलाइन की फ्लाइट से जा रहा हूं.”

मैंने पूछा, “लेकिन मिस्टर टाटा एअर इंडिया से यात्रा क्यों नहीं कर रहे हैं?”

“मैं ऐसा तब करूंगा जब इस एयरलाइन को फिर से चलाने लगूंगा.” मैंने उन्हें शुभकामनाएं दी और हमने फिर मुस्कानों का आदान-प्रदान किया.

कुछ महीने बाद मुझे उनके ऑफिस से फोन आया और पूछा गया कि क्या मैं उनके साथ लंच में शरीक हो सकता हूं? लंच मुंबई के ताज होटल के एक प्राइवेट कमरे में हुआ और इस बीच ‘उन टेपों’ वाली खबर का कोई ज़िक्र नहीं किया गया. आम सियासत, व्यवसाय के माहौल से उनकी निराशा, उद्यमशीलता से लेकर टेक्नोलॉजी और विमानन के मामले में उनके प्रेरक विचारों, और दान-परोपकार आदि पर हुई बातों के बीच हमने पाया कि हम दोनों को डॉग्स को घर में पैट बनाने का शौक है.


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तमाम आकस्मिक मुलाकातों, हैंडशेक और मुस्कानों को छोड़िए, डॉग्स से लगाव ने हम दोनों के बीच पड़ी बर्फ को साफ किया.

अब हम अक्सर मिलने लगे और हमारी बातचीत में हमेशा कुत्तों की बातें भी होतीं. उन्होंने मुझे अपने दस्तखत के साथ एक फोटो भेजी जिसमें उनका प्यारा पैट टीटो मुंह में एक गेंद फंसाए रतन टाटा की ओर बड़े आदर से निहार रहा था.

हमारी एक बातचीत में उन्होंने हाल में ही पढ़ी ‘द आर्ट ऑफ रेसिंग इन द रेन’ नामक किताब के बारे में बड़ी भावुकता से बात की. 2008 में प्रकाशित, गार्थ स्टेन की लिखी यह किताब फॉर्मूला-1 रेस के एक कार ड्राइवर डेन्नी और उसके गोल्डन रिट्रीवर, ‘एंजो’ के उस अविश्वसनीय प्रेम, जो विवाह से भी बड़ा है, की और एक बच्चे के आगमन, हादसों और मौत की दास्तां कहती है. मौत इसलिए क्योंकि उस कुत्ते ने वह मंगोलियाई डॉकुमेंटरी देखी है जिसमें कहा गया है कि कुत्ते मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म लेते हैं. किताब में पूरी कहानी एंजो कहता है, मानो वह मनुष्य हो. इस कहानी के बारे में बात करते हुए रतन टाटा की आंखें अक्सर भर आती थीं. उन्हें किताब की कई पंक्तियां याद थीं, एंजो की बातें. इस संवाद के बाद उन्होंने मुझे वह किताब भेजी और उस पर गर्मजोशी भरा संदेश अपने एक ऐसे साथी के नाम लिखा जो उनकी तरह ही डॉग्स से प्यार करता था. इस किताब पर 2019 में हॉलीवुड फिल्म बनी.

उनसे हुई बातचीत में मैंने पाया कि वे डॉग्स और दूसरे जानवरों से कितनी गहरी हमदर्दी रखते थे — अपने पैट्स से, तमाम जानवरों से और खासकर सड़कों वाले जानवरों से.

उनके अपने डॉग टीटो की बात करें, तो उसका एक पैर जब टूट गया तो वे उसे अपने निजी विमान से अमेरिका के उस अस्पताल में ले गए जो हड्डी ट्रांसप्लांट करने में महारत रखता है. उसकी सर्जरी जब फेल कर गई और टीटो चल बसा तो टाटा बहुत दुखी हुए. आप खबरें पढ़ते रहे होंगे कि वे टाटा सन्स के मुख्यालय में आवारा डॉग्स को आने की किस तरह छूट देते रहते थे, या उन्होंने किस तरह जानवरों का एक छोटा अस्पताल बनवाया, या मुंबई के ताज होटल में बचा-खुचा खाना अपनी गाड़ी में भरकर किस तरह वे रात में कोलाबा की गलियों में डॉग्स को खाना खिलाया करते थे. ऐसी सारी खबरें सच्ची थीं.

टाटा सन्स मुख्यालय के दरवाजे के साथ बनी सीढ़ियों के बगल में एक बड़ा कमरा आवारा जानवरों के लिए बनाया गया है.

उन्हें सबसे ज्यादा गुस्सा तब आता था जब वे जानवरों के साथ बुरे व्यवहार की खबरें पढ़ते थे. कोलाबा में वे जहां रहते थे वहां पड़ोस में रहने वाले नौसैनिक अधिकारियों और उनके परिवारों से भारी शिकायत थी. “वो लोग आवार कुत्तों के साथ इतना बुरा व्यवहार क्यों करते हैं, उन्हें मारते क्यों हैं, उन्हें खत्म करना क्यों चाहते हैं? उन बेचारों को बस थोड़ा खाना, थोड़ा प्यार और इज्जत चाहिए. इसके बदले वह आपको इतना कुछ देंगे और कोई बुराई नहीं करेंगे. लोगों को यह बात क्यों नहीं समझ में आती है?”

कई दूसरी बातें भी उन्हें परेशान करती थीं. जैसे कॉर्पोरेट सेक्टर के प्रति सरकार के रवैये में पारदर्शिता और मानदंडों की कमी. हमने एनडीटीवी के ‘वाक द टॉक’ कार्यक्रम के लिए सात वर्षों के अंतर पर दो एपिसोड रिकॉर्ड किए थे. पहला एपिसोड पुणे में टाटा मोटर्स के कारखाने में रिकॉर्ड किया गया जिसका एक हिस्सा टाटा की नई ‘इंडिका’ कार के स्पेशल एडिशन में रिकॉर्ड किया गया जिसकी छत काट दी गई थी. इस बातचीत में उन्होंने कहा था कि आर्थिक सुधारों के इतने साल बाद भी सौदे नई दिल्ली के सत्ता गलियारों में 11 बजे रात के अंधेरे में किए जा रहे हैं.

दूसरा एपिसोड 2010 में बनाया गया जो अधिक तीखा, गहरी राजनीति वाला और सुर्खियां बनाने वाला था. यह तब की बात है जब टाटा ग्रुप राडिया टेप कांड की आंच महसूस कर रहा था और उन्होंने मुझसे खुलासा करने के लिए कहा था. इस वीडियो को देखिए और टेपों के संपादित ब्योरों को पढिए. उन्होंने मेरे बारे में या हमारी पत्रकारिता के स्तर के बारे में जो भी अच्छी बातें कही हैं उन्हें छोड़ दीजिए, इन्हें आप एक डॉग-लवर की दूसरे डॉग-लवर के प्रति उदारता मान कर भुला सकते हैं, लेकिन उन्होंने नियमों की उपेक्षा, सिस्टम में मनमाने फैसलों और लोगों के फोन इतनी आज़ादी से टेप किए जाने तथा मनपसंद बातें लीक किए जाने आदि को लेकर जो आशंकाएं जताईं उन पर गौर कीजिए.

उन्होंने आशंका जताई कि भारत एक ‘बनाना रिपब्लिक’ (विदेश पर निर्भर गणतंत्र) बन सकता है, “मैं इस मुहावरे को कोई मज़ाक के लिए नहीं इस्तेमाल कर रहा हूं”.

उन्होंने कहा था कि ‘बनाना रिपब्लिक’ भाई-भतीजावाद पर चलता है.

“बड़ी ताकत वाले लोग बड़ी ताकत का इस्तेमाल करते हैं, सत्ता से हटाए गए या कम ताकत वाले लोगों को बिना सबूत के जेलों में डाल दिया जाता है या उनकी लाशें कार की डिग्गी में पाईं जाती हैं. खतरा यह है कि आप भी कहीं उस तरह के माहौल में ने फंस जाएं…” यह बात उन्हें परेशान कर रही थी.

उसी दौरान ‘द इंडस आंत्रप्रेन्योर्स’ (टीआइई) ने मुझसे कहा कि मैं लीडरशिप के मुद्दे पर रतन टाटा और एन.आर. नारायणमूर्ति के बीच एक बातचीत करूं. यह बातचीत शानदार रही, दोनों ने इतनी खुल कर बातें कीं जैसी इतने अनुभवी और कामयाब लोग अक्सर नहीं किया करते. इस बातचीत का लिंक यहां दिया जा रहा है.

एक और बातचीत की अध्यक्षता मैंने 1 जून 2012 को बेंगलुरु में की जिसकी मेजबानी गेट्स फाउंडेशन ने की थी. इसमें रतन टाटा, बिल गेट्स, नारायणमूर्ति, अज़ीम प्रेमजी और किरण मजूमदार-शॉ शामिल हुईं. हमारी इन्हीं वार्ताओं में से कुछ में टाटा ने सुझाव दिया था कि मैं अपने बूते पहल करूं और मैंने ऐसा किया तो वे शुरुआती निवेश करेंगे. उनके लिहाज़ से यह बेहद छोटा, जेब की रेज़गारी जैसा निवेश था, लेकिन ‘दिप्रिंट’ में हम लोगों के लिए यह अमूल्य विश्वास-मत था. इसलिए भी हमें आधुनिक भारत के महान निर्माताओं में से एक की कमी बहुत महसूस होगी.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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