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Saturday, 5 October, 2024
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भारतीय मुस्लिम नेताओं को हिजबुल्लाह से हमदर्दी नहीं रखनी चाहिए, मुस्लिम आइडेंटिटी से पहले ‘देश’ होता है

इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेंटर ने हिजबुल्लाह के एक नेता को सम्मानित करना उचित समझा, जिसे कई अरब देशों द्वारा आधिकारिक तौर पर आतंकवादी संगठन के रूप में नामित किया गया है.

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इज़रायल द्वारा हसन नसरल्लाह की हत्या ने हिजबुल्लाह को करारा झटका दिया है. भू-राजनीतिक दृष्टि से, हिजबुल्लाह नेता की हत्या को बेंजामिन नेतन्याहू के लिए एक ऐसे महत्वपूर्ण क्षण के रूप में देखा जा सकता है, जिसे बदला नहीं जा सकता. यह घटनाक्रम या तो हिजबुल्ला के मनोबल को खत्म कर सकता है या उसके सदस्यों के गुस्से को भड़का सकता है और उन्हें उकसा सकता है. लेकिन आम तौर पर, जब एक नेता जिसकी पहचान का आधार धर्म है, उसे खत्म कर दिया जाता है, तो ऐसे संगठनों की प्रभावशीलता कम हो जाती है. एक नए नेता के लिए तुरंत उसी स्तर की पकड़ बना पाना और प्रभाव हासिल कर पाना मुश्किल होता है.

राजनीतिक और उग्रवादी शाखाओं में विभाजित हिजबुल्लाह को अमेरिका, सऊदी अरब, बहरीन, यूरोपीय संघ और अरब लीग सहित कई देशों द्वारा आतंकवादी संगठन घोषित किया गया है. हालांकि मध्य पूर्वी भू-राजनीति में इस समूह की भूमिका के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है, लेकिन जिस बात ने मेरा ध्यान खींचा, वह है नसरल्लाह की मौत पर दुनिया भर में हुई प्रतिक्रिया, विशेष रूप से भारतीय मुसलमानों के बीच.

इनमें से कुछ बहुत ही परेशान करने वाले हैं – जैसे कि सोमवार शाम को दिल्ली में इंडिया इस्लामिक कल्चर सेंटर में आयोजित प्रार्थना और शोक सभा, जिसमें नसरल्लाह और अन्य हिजबुल्लाह अधिकारियों को श्रद्धांजलि दी गई.

नसरल्लाह की मौत के जवाब में मुख्य रूप से शिया संगठनों द्वारा आयोजित कई विरोध रैलियां भी हुईं.

दिशाहीन एकजुटता

यह देखना निराशाजनक है कि मुसलमानों का एक वर्ग और विशेष रूप से उनका नेतृत्व इस तरह के घटनाक्रमों के इर्द-गिर्द की बारीकियों और जटिलताओं को स्वीकार करने में विफल रहता है, खासकर भारत के अपने आंतरिक सुरक्षा मुद्दों को देखते हुए. उनके बयान और कार्य हिजबुल्लाह और उसके इजरायल-विरोधी रुख के साथ धार्मिक एकजुटता से प्रेरित हैं, जबकि वे खुद को चरमपंथी उग्रवाद से अलग करने की आवश्यकता की अनदेखी करते हैं. जब प्रमुख मुसलमान चेहरे राष्ट्रीय हितों की अनदेखी करके अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों के संदर्भ में “मुस्लिम होने” की भावना के इर्द-गिर्द मुसलमानों को एकजुट करते हैं, तो वे मुस्लिम समुदाय और राष्ट्र दोनों को नुकसान पहुंचाते हैं.

कई आम मुसलमान, खास तौर पर पसमांदा मुसलमान, मध्य पूर्वी भू-राजनीति की जटिलताओं को पूरी तरह से नहीं समझ सकते हैं, लेकिन वे आसानी से अपने साथी मुसलमानों के लिए एकजुटता दिखाने के लिए हिजबुल्लाह के साथ सहानुभूति रख सकते हैं. हालांकि, असली मुद्दा उन प्रमुख लोगों के साथ है जो जटिलताओं को समझते हैं और फिर भी भावनात्मक राजनीति करना चुनते हैं. ये नेता, जिन्हें राष्ट्रीय हितों और भारतीय मुसलमानों के सामने आने वाले वास्तविक मुद्दों को प्राथमिकता देनी चाहिए, या तो कबीलाई वफ़ादारी में फंसे हुए हैं या सत्ता हथियाने की ख़तरनाक इच्छा दिखाते हैं, चाहे इससे समुदाय और राष्ट्र के हितों का कितना ही नुकसान क्यों न हो.

मानवाधिकारों का दोहरा मापदंड

हिजबुल्लाह को आधिकारिक तौर पर आतंकवादी संगठन घोषित करने में भारत की स्पष्ट अनिच्छा को अक्सर उसके प्रति सहानुभूति के बहाने के रूप में प्रदर्शित किया जाता है. फिर भी, दो-राज्य समाधान के पक्ष में भारत के आधिकारिक रुख के बावजूद, इज़रायल की निंदा करने में कोई हिचकिचाहट नहीं है. तर्क अक्सर मानवाधिकारों की ओर मुड़ जाता है, जो अपने आप में समस्या वाली बात नहीं है – अपने सह-धर्मियों के अधिकारों के लिए खड़ा होना समझ में आता है. लेकिन सवाल यह उठता है कि मानवाधिकारों के प्रति यह चिंता अन्य संदर्भों में क्यों नहीं जताई जाती?

हमारे पड़ोसी देशों में मानवाधिकारों के हनन की बात आने पर इतनी आवाज़ क्यों नहीं उठती? ज़्यादा परेशान करने वाली बात यह है कि भारत में ही मानवाधिकारों के मुद्दों पर ध्यान नहीं दिया जाता. उदाहरण के लिए, कश्मीरी अल्पसंख्यकों के अधिकार या उससे भी ज़्यादा व्यापक रूप से मुस्लिम समुदाय में महिलाओं के अधिकारों को नज़रअंदाज़ किया जाता है या दरकिनार कर दिया जाता है. मानवाधिकारों के लिए यह चुनिंदा चिंता बताती है कि यह मुद्दा सिद्धांतों से ज़्यादा राजनीति और भावुकता से जुड़ा है – जो सिर्फ़ यही साबित करता है कि उनके तर्क में कोई विश्वसनीयता नहीं है.

क्या इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेंटर (IICC), जिसका नेतृत्व मुख्य रूप से अशराफ़ अभिजात वर्ग करता है, ने कभी हिंदुओं, ईसाइयों या यहां तक कि सिखों के मानवाधिकारों को स्वीकार करने के लिए कोई कार्यक्रम आयोजित किया है? मुझे ऐसा कोई उदाहरण याद नहीं आता.

फिर भी, उन्होंने हिजबुल्लाह जैसे संगठन के एक नेता को सम्मानित करना उचित समझा, जिसे कि कई अरब देशों द्वारा आधिकारिक तौर पर आतंकवादी संगठन के रूप में नामित किया गया है.

जबकि IICC का उद्देश्य इस देश के लोगों के बीच आपसी समझ और सौहार्द्र को बढ़ावा देना है, लेकिन इसके कार्य इसके विपरीत संकेत देते हैं.

इससे IICC की प्राथमिकताओं और समावेशिता तथा आपसी समझ को बढ़ावा देने की इसकी वास्तविक प्रतिबद्धता पर गंभीर सवाल उठते हैं. ऐसा लगता है कि यह भारत में मुसलमानों सहित सभी समुदायों को प्रभावित करने वाले ज्वलंत मुद्दों को संबोधित करने के बजाय अशराफ अभिजात वर्ग के हितों की सेवा करने से अधिक प्रेरित है.

मैं कहूंगी कि पसमांदा मुस्लिम नेताओं ने IICC की प्रासंगिकता पर सवाल उठाकर सही काम किया है, यहां तक ​​कि उन्होंने यह सुझाव भी दिया है कि मुसलमानों के उत्थान के लिए काम करने में इसकी सीमित भूमिका को देखते हुए सरकार को इसे अस्पताल में बदल देना चाहिए.

लेकिन पसमांदाओं के बीच भी हिजबुल्लाह के प्रति प्रतिक्रिया कम रही है.

प्राथमिकताओं का संकट

अतीत में, समुदाय के एक प्रमुख संगठन पसमांदा मुस्लिम महाज ने इजरायल-फिलिस्तीन मुद्दे पर भारत सरकार के रुख के साथ तालमेल बिठाया था, और हमास द्वारा नागरिकों पर हमले की निंदा की थी. लेकिन संगठन ने हिजबुल्लाह पर कोई बयान जारी नहीं किया, जो भारतीय मुसलमानों के बीच एक सामूहिक वास्तविकता को दर्शाता है. समुदाय या तो नसरल्लाह की मौत पर शोक मना रहा है या उदासीन बना हुआ है. दोनों ही बातें खराब हैं. भारत में अन्य समुदायों के एक वर्ग को भारतीय मुसलमानों का यह कृत्य इस हद तक कबीलाई लगता है कि वे आतंकवाद का समर्थन भी करते हैं.

दुखद वास्तविकता यह है कि भारतीय मुस्लिम समुदाय में ऐसी धारणाओं या सामान्यीकरणों का मुकाबला करने के लिए सामाजिक पूंजी का अभाव है. और यह कैसे हो सकता है, जब इसके अभिजात वर्ग चरमपंथी तत्वों का महिमामंडन करने में अपनी ऊर्जा बर्बाद करते हैं? समुदाय के नेता समुदाय के कल्याण की तुलना में भावना, धर्म और पीड़ित होने के राजनीतिकरण पर ध्यान अधिक केंद्रित करते हैं. समुदाय के रोल मॉडल वे लोग नहीं हैं जिन्होंने सफलता हासिल की है, मानवता की सेवा की है या राष्ट्र निर्माण में योगदान दिया है, बल्कि वे लोग हैं जो निरंतर टकराव में फंसे रहते हैं.

समुदाय के भीतर सामान्य राजनीतिक मान्यताओं में एक महत्वपूर्ण बदलाव की आवश्यकता है ताकि स्वीकार्य विचारों और चर्चाओं की सीमा संकीर्ण और पुरातन मानसिकता और नैरेटिव से परे हो.

(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नामक एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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