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Thursday, 19 September, 2024
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चुनाव से पहले प्रधानमंत्री के तोहफे से हैरान मत होइए, ईंधन की कीमतों में इसी तरह हेराफेरी होती है

तेल की कीमतें जून 2022 की तुलना में लगभग 40% कम हैं, जब ईंधन की कीमतें प्रभावी रूप से स्थिर थीं; फिर भी, उपभोक्ताओं को इस कमी से कोई लाभ नहीं हुआ है.

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नरेंद्र मोदी सरकार ईंधन बाजार में अपने भारी प्रभुत्व का इस्तेमाल रणनीतिक या वित्तीय कारणों से नहीं बल्कि राजनीतिक अवसरवाद के लिए कर रही है, और इसे तुरंत रोकना चाहिए. यह कोई संयोग नहीं है कि ईंधन की कीमतें – जो जून 2022 से नहीं बदली थीं – मार्च में 2024 के आम चुनावों के लिए आदर्श आचार संहिता लागू होने से एक दिन पहले कम कर दी गईं.

ईंधन की कीमतों में चुनाव से संबंधित हेराफेरी पहले भी स्पष्ट हो चुकी है. अगर आगामी विधानसभा चुनावों से ठीक पहले ईंधन की कीमतों में फिर से कमी की जाती है, तो किसी को आश्चर्य नहीं होगा. यह राजनीतिक लाभ के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों का ज़बरदस्त दुरुपयोग है और इसकी निंदा की जानी चाहिए.

पिछले हफ़्ते अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में तेल की कीमतें 70 डॉलर प्रति बैरल से नीचे गिर गईं और तब से उसी स्तर पर बनी हुई हैं. भारतीय खरीददारों के लिए तेल की औसत कीमतें 73.5 डॉलर पर हैं – जो दिसंबर 2021 के बाद से सबसे कम हैं – और अंतर्राष्ट्रीय रुझान के अनुरूप आगे भी गिरने की संभावना है. सैद्धांतिक रूप से, इसका मतलब यह होना चाहिए कि भारत में ईंधन की कीमतें, जिन्हें मौजूदा तेल कीमतों के आधार पर दैनिक रूप से संशोधित किया जाना चाहिए, वह भी कम होनी चाहिए, है न? गलत. जून 2022 के बाद से उनमें बमुश्किल ही कोई बदलाव आया है.

सरकार द्वारा संचालित ऑयल मार्केटिंग कंपनियां (OMC) – इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन, भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन और हिंदुस्तान पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन – बाज़ार के लगभग 95 प्रतिशत हिस्से को नियंत्रित करती हैं. ईंधन की कीमतों से प्रभावित होने वाले तीन पक्षों – उपभोक्ता, सरकार और खुद OMC – में से निश्चित रूप से सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों ने उपभोक्ताओं के हितों को सबसे आगे रखा है? फिर से गलत.

सितंबर 2022 से, उच्च ईंधन कीमतों की वजह से ऑयल मार्केटिंग कंपनियों और सरकार को प्राथमिक तौर पर लाभ हुआ है, जो कि अक्सर उपभोक्ताओं की कीमत पर हुआ है.

लेकिन ठीक है, चूंकि ऑयल मार्केटिंग कंपनियां ही आधिकारिक तौर पर ईंधन की कीमतें निर्धारित करती हैं, न कि सरकार, इसलिए कोई यह मान सकता है कि राजनीति और चुनावों का ईंधन की कीमतों में उतार-चढ़ाव पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है. तीसरी बार गलत. चुनाव की तारीखों और ईंधन की कीमतों के बीच एक मजबूत संबंध है.

किसके लाभ के लिए मूल्य निर्धारण नीति?

जून 2017 में, सरकार ने एक गतिशील ईंधन मूल्य निर्धारण नीति पेश की, जिसके तहत तेल की मौजूदा कीमत के आधार पर पेट्रोल और डीजल की कीमतों में प्रतिदिन संशोधन किया जाता था. मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान इस बाजार से जुड़ी, पारदर्शी व्यवस्था ने अच्छा काम किया.

हालांकि, दूसरे कार्यकाल में इस तंत्र में विकृतियां दिखाई देने लगीं. दिसंबर 2022 में दिप्रिंट द्वारा किए गए विश्लेषण में पाया गया कि ओएमसी ने विधानसभा चुनावों से पहले ईंधन की कीमतों को लगातार अपरिवर्तित रखा, लेकिन चुनाव खत्म होने के तुरंत बाद उन्हें बढ़ा दिया.

जून 2022 में, ओएमसी ने गतिशील मूल्य निर्धारण नीति को पूरी तरह से त्याग दिया और ईंधन की कीमतों को स्थिर कर दिया. ईंधन की कीमतों में यह स्थिरता मार्च 2024 तक लगभग दो साल तक चली, जब उन्होंने ईंधन की कीमतों में 2 रुपये प्रति लीटर की कमी की, और तब से उन्हें स्थिर रखा है.

अब, बात यह है कि जनवरी 2022 में यूक्रेन पर रूस के आक्रमण के कारण तेल बाजार में उथल-पुथल को देखते हुए कीमतों को स्थिर रखना एक अच्छा विचार था. जून तक तेल की कीमतें 116 डॉलर प्रति बैरल तक बढ़ गईं, और इस वृद्धि को भारतीय उपभोक्ताओं पर डालने से उन्हें बहुत नुकसान होता.

जब ऑयल मार्केटिंग कंपनियां – जो ईंधन बेचने के लिए तेल खरीदती और रिफाइन करती हैं – उच्च तेल कीमतों की अवधि के दौरान ईंधन की कीमतों को अपेक्षाकृत कम रखती हैं, तो उन्हें स्वाभाविक रूप से नुकसान होता है. चूँकि वे उपभोक्ताओं की सुरक्षा के लिए इन घाटे को वहन करती हैं, इसलिए गतिशील मूल्य निर्धारण पर लौटने से पहले उन्हें इन घाटे की भरपाई करने की अनुमति देना उचित है. इसमें कोई विवाद नहीं है.

समस्या तब उत्पन्न होती है जब वे न केवल अपने घाटे की भरपाई करती हैं बल्कि भारी मुनाफा भी कमाती हैं – और सरकार को बड़े लाभांश का भुगतान करती हैं – फिर भी उपभोक्ताओं को लाभ पहुँचाने के लिए ईंधन की कीमतें कम नहीं करती हैं. बेशक, जब तक कि चुनाव नज़दीक न हों.

सरकार अनिश्चितता का बहाना बना रही है

दिप्रिंट द्वारा किए गए एक हालिया विश्लेषण में पाया गया कि उच्च तेल कीमतों के भार को वहन करने का वित्तीय प्रभाव अल्पकालिक था. जबकि सरकारी ऑयल मार्केटिंग कंपनियों ने अप्रैल से सितंबर 2022 तक दो तिमाहियों में घाटे का सामना किया, वे जल्दी ही मुनाफे में लौट आईं.

वास्तव में, तीन सरकारी ऑयल मार्केटिंग कपनियों ने वित्त वर्ष 2022-23 में 19,086 करोड़ रुपये का मुनाफा दर्ज किया, जिसका अर्थ है कि उस वित्तीय वर्ष की अंतिम दो तिमाहियों में अर्जित लाभ पहली दो तिमाहियों में हुए घाटे से अधिक था.

यह मजबूत लाभप्रदता वित्त वर्ष 2023-24 में भी जारी रही, जिसमें सरकारी ऑयल मार्केटिंग कंपनियों के मुनाफे में 324 प्रतिशत की भारी वृद्धि देखी गई, क्योंकि तेल की कीमतें ईंधन की कीमतों के स्थिर रहने की तुलना में काफी कम रहीं.

मुनाफे में इस वृद्धि की वजह से ऑयल मार्केटिंग कंपनियों ने सरकार को 12,775 करोड़ रुपये का लाभांश का भुगतान किया, जो पिछले वर्ष की तुलना में 83 प्रतिशत की वृद्धि थी.

दोबारा लाभप्रदता की स्थिति में वापस लौटने के बावजूद, ओएमसी ने पेट्रोल और डीजल की कीमतों में केवल एक बार, 15 मार्च 2024 को, 2 रुपये प्रति लीटर की कमी करने का फैसला किया. आम चुनाव 2024 के लिए आदर्श आचार संहिता अगले दिन लागू हो गई.

तेल की कीमतें वर्तमान में जून 2022 की तुलना में लगभग 40 प्रतिशत कम हैं, जब ईंधन की कीमतें प्रभावी रूप से स्थिर थीं, फिर भी उपभोक्ताओं को इस कमी से कोई लाभ नहीं हुआ है.

इस बारे में पूछे जाने पर, सरकार ने सुविधाजनक ढंग से तर्क दिया है कि ईंधन की कीमतें सरकार द्वारा नहीं, बल्कि ऑयल मार्केटिंग कंपनियों द्वारा निर्धारित की जाती हैं. हालांकि, ऑयल मार्केटिंग कंपनियां ईंधन की कीमतों के बारे में सारी पूछताछ पेट्रोलियम मंत्रालय से करती हैं.

सरकारी ऑयल मार्केटिंग कंपनियों को कई सवालों के जवाब देने होंगे. पहला, भारत में ईंधन की कीमतें निर्धारित करने के लिए वास्तव में कौन जिम्मेदार है? दूसरा, अगर ऑयल मार्केटिं कंपनियां ईंधन की कीमतें निर्धारित करने के लिए जिम्मेदार हैं, तो उन्होंने इतने लंबे समय तक आधिकारिक गतिशील मूल्य निर्धारण नीति को क्यों त्याग दिया है? तीसरा, कीमतों में बदलाव और चुनाव की तारीखों में इतना सामंजस्य क्यों दिखता है?

अगर सरकार वास्तव में कीमतें निर्धारित कर रही है – जो कि आधिकारिक दावों के बावजूद अब तक की सबसे संभावित स्थिति है – तो उसे आधिकारिक तौर पर 2017 में अपनाई गई दैनिक मूल्य निर्धारण नीति को त्याग देना चाहिए. आप एक ऐसी आधिकारिक नीति नहीं बना सकते जो कहती एक बात है जबकि व्यवहार में वास्तविकता कुछ और ही दिखती हो.

भारत में ईंधन की कीमतें तय करने के तरीके में यह बदलाव पहले शुरू की गई पारदर्शिता को खत्म कर रहा है, और एक अपारदर्शी प्रणाली की ओर बढ़ रहा है जिसमें विश्वसनीयता की कमी है. फिर भी सरकार इस गिरावट की परवाह नहीं करती है. अगर प्रधानमंत्री अगले विधानसभा चुनाव से कुछ दिन पहले ही ‘राष्ट्र को उपहार’ देने की घोषणा करते हैं तो आश्चर्यचकित न हों.

(टीसीए शरद राघवन दिप्रिंट में डिप्टी एडिटर-इकॉनमी हैं. उनका एक्स हैंडल @SharadRaghavan है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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