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Friday, 22 November, 2024
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दलित-आदिवासी नेताओं से ही शुद्ध राजनीति की कामना क्यों?

आज जो ‘नैतिक न्यूनतम जरूरतों’ की बात उठाई जा रही है, उसके साथ खतरा यह है कि यह हाशिए के समूहों के नेताओं पर ब्राह्मणवादी वर्चस्व स्थापित करने का एक जरिया बन जायेगी.

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हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनावों में बीजेपी को अभूतपूर्व सफलता मिली है. ये सफलता उसे एससी और एसटी के लिए रिजर्व सीटों पर भी हासिल हुई है. उसने 131 रिजर्व सीटों में से 77 पर जीत हासिल की है. इसे जातिवाद की राजनीति के अंत के तौर पर भी पेश किया जा रहा है. इस बारे में प्रमुख राजनीति विज्ञानी और इकॉनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली के संपादक प्रो. गोपाल गुरु ने एक संपादकीय लिखा है, जिसने भारतीय राजनीति के कुछ जटिल प्रश्नों को छेड़ दिया है.

इस लेख का प्रस्थान बिंदु ये है कि चुनावी राजनीति के मुकाबले शुद्ध या आदर्श राजनीति  का विकल्प होना चाहिए. इस प्रश्न को प्रो. गुरु खासकर दलितों और आदिवासियों के उन नेताओं के लिए उठा रहे हैं, जो सत्ता का हिस्सा बनना चाहते हैं और सिद्धांतों के साथ खड़ा होने की जगह संभावनाओं के साथ चलना  चाहते हैं. प्रो. गुरु इन सामाजिक समूहों के नेताओं से उस नैतिकता की कामना कर रहे हैं, जो 1936 में बाबा साहब द्वारा गठित इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी में शामिल होने वाले नेताओं में थे.

प्रो. गुरु लिखते हैं – ‘आरक्षित सीटों पर भारतीय जनता पार्टी की कामयाबी को राजनीतिक विश्लेषक जाति की राजनीति का अंत मान रहे हैं…लेकिन मूल सवाल बरकरार है कि क्या इस तरह की चुनावी राजनीति से ऐसे उम्मीदवार आत्मसम्मान हासिल करते हैं?’ प्रो गुरु का जवाब है कि ऐसा नहीं हो पाता. सत्ता की राजनीति में उतरे एससी/एसटी सदस्य और अन्य सांसद लोक संस्थानों और सार्वजनिक परिदृश्य में खुद को समान स्थिति में नहीं पाते हैं. चुनावी राजनीति के असमान संबंधों का परिणाम यह होता है कि ये प्रतिनिधि शुद्ध राजनीति के नैतिक न्यूनतम  से दूर होते चले जाते हैं.

हाशिये के समूहों के नेताओं पर नैतिकता का बोझ

गोपाल गुरु ने राजनीति के जिस बदलाव की बात की है, वह सही है. चुनावी राजनीति ने नया रूप ले लिया है. चुनावी राजनीति होती ही सत्ता में भागीदारी के लिए. जो भी लोग उसमें शामिल हैवे चाहे हाशिए के समूहों के नेता ही क्यों न हो, ‘संभावनाओं के साथ’ चलने की कोशिश तो करेंगे ही. फर्क सिर्फ इतना सा है कि इसे कभी ‘अवसरों की राजनीति‘ कहा जाता थाअब संभावनाओं की राजनीति‘ कहा जा रहा है. बात वही है,परिभाषाएं बदल गई हैंपर चुनावी राजनीति का अपना अवसरवादी चरित्र और चेहरा जैसा का तैसा ही है.


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‘वैकल्पिक राजनीति’ की बात इस देश में नई नहीं हैयह काफी लंबे समय से जारी हैजब भी किसी ने सामाजिक बदलाव के लिए राजनीतिक कार्य को चुना, उस समूह का दावा रहा है कि वे वैकल्पिक राजनीति की शुरुआत कर रहे हैं. यह प्रक्रिया समाज के एनजीओकरण के बाद काफी बढ़ी है. इसे उच्च जातीय वर्चस्व वाले कथित भद्रजनों व मध्यम वर्ग का पाखंड कह सकते हैं, जो यथास्थिति बनाए रखते हुए क्रांति की कल्पित बातों व बौद्धिक जुगाली में लगे रहते हैं.

सक्षम समुदायों की ओर से वैकल्पिक राजनीति, राजनीतिक विकल्प और विकल्पों की राजनीति जैसी शब्दावली गढ़ी और चलाई जाती है. जनसाधारण को इस वैकल्पिक राजनीति ने कई बार ठगा है. होता यह है कि वैकल्पिक राजनीति के बड़े-बड़े दावे अतंत: स्थापित परंपरागत राजनीति का हिस्सा बन कर रह जाते है या उसे ही पुष्ट करते हैं.

 नैतिक होने की मांग का वर्तमान संदर्भ

आज जो ‘नैतिक न्यूनतम जरूरतों’ की बात उठाई जा रही हैउसके साथ खतरा यह है कि यह हाशिए के समूहों के नेताओं पर ब्राह्मणवादी वर्चस्व स्थापित करने का एक जरिया बन जायेगी. यह दिलचस्प है कि जब तक देश की राजनीति पर सवर्ण आभिजात्य वर्ग का कब्ज़ा रहाउसे नैतिक न्यूनतम‘ की जरूरत महसूस नहीं हुई. लेकिन राजनीति के लोकतांत्रिकरण के क्रम में जब नए सामाजिक समूह आगे आए और जैसे ही पुराना वर्चस्व टूटाउन्होंने नैतिकता का फिल्टर लगाना शुरू कर दिया. यह राजनीतिक क्षेत्र में वंचित व हाशिये के समूहों के बढ़ते प्रभाव को रोकने का एक नया सूक्ष्म ब्राह्मणवादी औजार है. गोपाल गुरु जिस समस्या की ओर इशारा कर रहे हैं, वह वास्तविक है. लेकिन वे समस्या को जिस फ्रेम यानी दायरे में रख रहे हैं, वह समस्यामूलक है. ये वंचित सामाजिक समूहों को नेताओं पर दोहरा दबाव डालना होगा, क्योंकि उन पर कामयाब होने और सम्मानजनक या बराबरी का स्थान हासिल करने का दबाव पहले से है. नैतिकता या शुद्धता का एक और दबाव क्या उन पर विशिष्ट रूप से होना चाहिएऔर फिर नैतिकता, आदर्श और शुद्धता का दबाव सवर्ण या डोमिनेंट कास्ट के नेताओं पर क्यों नहीं?

राजनीति में आदर्शों का क्षरण किसी पार्टी या विचारधारा विशेष में नहीं हुआ है. कोई भी पार्टी आदर्श स्थिति में नहीं है. कोई भी दल या राजनीतिक विचार समूह नैतिक न्यूनतम‘ अथवा ‘शुद्ध व आदर्श राजनीति’ करने का दावा नहीं कर सकता है. सब ने अपनी-अपनी मूल प्रतिबद्धताओं को छोड़ा है और समझौते किए हैं. विचार से लेकर पार्टी संचालन तक में घालमेल एक सर्वव्यापी परिघटना है. चाहे वामपंथी दल हों अथवा दक्षिणपंथी या सोशलिस्ट अथवा बहुजनवादीसबका पहला लक्ष्य सत्ता हासिल करना है. सत्ता ही विचारधारा है.

जब संपूर्ण समाज और राजनीति इससे प्रभावित है, तो हाशिये के तबके के नेता इससे कैसे अप्रभावित रहेंगेयह कहना सर्वथा गलत होगा कि वर्तमान सत्ताधारी पार्टी ‘सर्वसमावेशी’ हैदरअसल वह ‘सर्वभक्षी’ है. वह निर्ममता से हर किसी को निगल रही है. वंचित समुदायों के नेता भी उनका आहार बन रहे हैं. लेकिन, प्रगतिशील सवर्ण भी कहां पीछे हैं. पश्चिम बंगाल के जाने कितने प्रगतिशील भद्रलोक कम्युनिस्टों ने अपनी विचारधारा त्यागकर बीजेपी के साथ चलना स्वीकार कर लिया है.

वंचित समूहों के नेता दक्षिणपंथ की शरण में क्यों?

वंचित समूह के वे जनप्रतिनिधिजिन्होंने अपनी वैचारिकी को दरकिनार करके सत्तारूढ़ दक्षिणपंथी गठबंधन की गोद में बैठ जाना उचित समझा है. इसके दो-तीन कारण साफ-साफ दिखते हैं. उनमें ‘सत्ता की अदम्य लालसा’ तो है ही, उनके द्वारा पूर्व में की गई छोटीबड़ी ‘वित्तीय अनियमितताएं’ भी इसकी एक वजह हैआय से अधिक संपत्ति और विकास कार्यों में हुए कथित घोटालों में संलिप्तता के प्रकरणों में केंद्रीय जांच एजेंसियों के जरिए इन नेताओं को डरा धमकाकर रखना और उन्हें अपने खेमे में शामिल कर लेना सत्ताधारी दल के लिए मुश्किल नहीं होता.


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यह बात तथ्यात्मक रूप से सही है कि आरक्षित सीटों पर भाजपा ने कामयाबी के झंडे गाड़े है. राजस्थान में पिछली बार विधानसभा चुनाव में 34 रिजर्व सीटों में सभी पर भाजपा जीत गई थी. हालांकि, वे अपना ऐसा प्रदर्शन इस बार दोबारा नहीं कर पाई, लेकिन लोकसभा में अधिकांश रिजर्व सीटों पर उसके उम्मीदवार जीते हैं. इसके कई कारण हैंजिनमें प्रमुख यह है कि पढ़े-लिखेनौकरी पेशा व सक्षम आर्थिक स्थिति वाले मध्यमवर्ग के दलितों की पहली पसंद इन दिनों भाजपा और आरएसएस जैसे दक्षिणपंथी समूह हैं. दूसरा यह भी है कि कांग्रेस व अन्य दल रिजर्व सीटों पर लगभग अनपढ़ अथवा कुपढ़ और जेबी टाइप के लोगों को टिकट देती रही हैजो समाज के नेतृत्वकर्ता की भूमिका में नहीं आ पाते है. इतना ही नहीं, बल्कि बेहद चालाकी से आरएसएस-भाजपा ने वंचित समूहों में उपजातीय अस्मिता का खतरनाक खेल सफलतापूर्वक खेल लिया है. उसने दलित समुदाय की विभिन्न जातियों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करके विभिन्न उपेक्षित उपजाति समूहों को अपने साथ मिला लिया है. लेकिन यह सफलता क्षणिक हैं, अप्रैल, 2018 के भारत बंद जैसे आंदोलन ने संघ के इस कुचक्र को आंशिक रूप से आघात पहुंचाया है.

(लेखक शून्यकाल डॉट कॉम के संपादक हैं)

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