टैगोर हिमालय के पार यात्रा कर चुके थे और शायद वे आधुनिक भारतीय विचारकों में से पहले थे जिन्होंने 20वीं सदी की शुरुआत में भारत और चीन के बीच लंबे समय से चले आ रहे “सभ्यतागत संबंधों” के महत्व को संजोया था.
गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर का जन्म 7 मई 1861 को हुआ था और वे भारतीय साहित्य के प्रतीक और अंतर-एशियाई एकजुटता और पैन-एशियाई सहयोग के प्रबल समर्थक थे. इस महीने जब हम उनकी जयंती मना रहे हैं, तो यह समझना महत्वपूर्ण है कि उन्होंने चीन और भारत की दो महान सभ्यताओं के बीच परस्पर लाभकारी इंटरएक्टिव संबंधों में विश्वास किया.
1932 में लिखी गई उनकी एक कविता में उन्होंने कहा था, “महान सुबह, जो सभी के लिए है, पूर्व में दिखाई देती है; आइए इसकी रोशनी हमें एक-दूसरे को प्रकट करे जो तीर्थयात्रा के समान मार्ग पर चलते हैं.”
टैगोर की चीन की समझ के कुछ प्रमुख पहलू हैं, जो दोनों देशों के समकालीन विद्वानों के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं.
पहली बात, की चीन जाने से पहले ही उनका काम वहां के विद्वानों में रुचि और मान्यता प्राप्त कर चुका था. टैगोर के भाषण, लेखन और चीन की यात्रा को प्रसिद्ध साहित्यिक विद्वान सुन यिक्सुए ने अच्छी तरह से दर्ज किया है, जिन्होंने देखा कि टैगोर “विश्व-बचाव और मसीहाई संदेश” के साथ चीन आए थे.
1924 में उनकी यात्रा से पहले ही, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चीन (सीपीसी) के संस्थापक सदस्यों में से एक चेन डुशियू ने उनके सबसे उल्लेखनीय कार्य गीतांजलि का चीन की भाषा (मंदारिन) में अनुवाद कर लिया था. उनकी कविता, द क्रिसेंट मून, भी इसी समय के आसपास चीन की पत्रिकाओं में अनूदित और प्रकाशित हुईं थीं. टैगोर की कहानी काबुलीवाला कम से कम छह बार चीन में प्रकाशित हुई.
दूसरा, टैगोर ने 1924 और 1928 में अपनी दो यात्राओं के दौरान गहरी छाप छोड़ी. पहली यात्रा मई फोर्थ (May 4) मूवमेंट के दौरान बीजिंग लेक्चर एसोसिएशन के निमंत्रण पर हुई थी. इस समय, भारत भी औपनिवेशिक प्रतिरोध से बाहर आ रहा था. उनके जन्मदिन को चिह्नित करने के लिए बीजिंग नॉर्मल विश्वविद्यालय में, युवा चीनी अभिनेताओं ने अंग्रेज़ी में उनके नाटक चित्रा का मंचन किया.
अपने भाषणों के दौरान, उन्होंने भारत और चीन जैसी विभिन्न एशियाई संस्कृतियों के बीच करीबी बातचीत के सच्चे गुणों पर जोर दिया.
तीसरे, जब 21वीं सदी में एशिया की वैश्विक स्थिति को फिर से स्थापित किया जा रहा है, तो यह याद रखना चाहिए कि टैगोर “एशियाई सार्वभौमिकता” के सबसे रचनात्मक प्रतिपादकों में से एक थे और उन्होंने “एशियाई पहचान” का प्रचार किया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति शी जिनपिंग द्वारा उल्लेखित “एशियाई सेंचुरी” का विजन टैगोर के “एशियाई सार्वभौमिकता” की भावना को पुनर्जीवित करता है. टैगोर ने इसे एशियाई संस्कृतियों और मूल्यों के प्रवाह की एक गतिशील प्रक्रिया के रूप में और एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में बात की थी जिसमें राष्ट्रीय सीमाएं तरल होती हैं.
1916 में चीन की पत्रिका डोंगफांग ज़ाझी ने जापान में दिया गया टैगोर का भाषण प्रकाशित किया, जिसमें आधुनिक पश्चिमी सभ्यता और इसके भौतिकवाद की उनकी तीव्र आलोचना का उल्लेख किया गया था. राष्ट्रवाद पर टैगोर की आलोचना उनके औपनिवेशिक विरोधी विचारों और देशभक्ति कविता का एक अच्छा संयोजन था. उनके विचार में भारत और चीन के बीच कोई मौलिक विरोधाभास नहीं था क्योंकि दोनों ने वसुधैव कुटुंबकम (विश्व एक परिवार है) और शिजीए दातोंग (सामंजस्य में विश्व) की भावना में सामंजस्यपूर्ण विकास की अवधारणा पर जोर दिया.
चौथे, टैगोर के विचार और दृष्टिकोण, शांतिपूर्ण विश्व व्यवस्था की स्थापना के लिए महत्वपूर्ण हैं. उन्होंने दक्षिण पूर्व एशिया के अपने दृष्टिकोण पर तीन प्रमुख विशेषताओं पर जोर दिया. उन्होंने किसी भी प्रकार के “सैन्य आक्रमण” की भूमिका को कम कर दिया और राष्ट्रों के बीच “सांस्कृतिक आदान-प्रदान” की भूमिका को उजागर किया, आधुनिक राष्ट्र-राज्य की किसी भी प्रकार की समझ की आलोचना की और दूसरों से सांस्कृतिक अदान प्रदान की अनुमति दी.
उन्होंने दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के इतिहास और संस्कृति में भारतीय सभ्यता और मूल्यों की केंद्रीयता पर भी ध्यान देने की बात कही. एक खुला, शांतिपूर्ण और आर्थिक रूप से एकीकृत और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध दक्षिण पूर्व एशिया का विचार टैगोर की दृष्टि को अच्छी तरह से दर्शाता है और हर राष्ट्र के लिए “मार्गदर्शक भावना” बनाता है.
अंत में, भारत में चीनी अध्ययन के विकास में टैगोर की भूमिका अतुलनीय थी.
बंगाल में एक अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय, विश्व-भारती की स्थापना, पहले भारत-चीन सांस्कृतिक समाज का गठन और शांति निकेतन में चीनी विभाग (चीना भवन) की स्थापना मील का पत्थर थीं. तन युन-शान जैसे कई विद्वानों ने चीनी सभ्यता और इसके आधुनिक विकास की आधुनिक भारत की समझ में बहुत योगदान दिया. यह अभी भी भारत में शोध कर रहे चीनी विद्वानों के लिए एक बौद्धिक तीर्थ स्थान है.
पेकिंग विश्वविद्यालय के प्रोफेसर वांग बांगवेई ने टैगोर को “एक भारतीय ऋषि, एक एशियाई ऋषि और एक विश्व ऋषि” कहा. उनके लिए, पश्चिम में भौतिकवादी लाभ की पागल खोज के विपरीत, अध्यात्म एशिया की सभ्यताओं की “सबसे बड़ी संपत्ति” है, जबकि टैगोर को चीन की प्रतिक्रियावादी ताकतों से उचित मात्रा में आलोचना मिली, दिवंगत जी जियानलिन, पद्म भूषण, ने देखा कि टैगोर भारत-चीन मित्रता के प्रतीक और अग्रदूत थे.
(लेखक देशबंधु कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं और चीन अध्ययन में डॉक्टरेट हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)
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