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जब भी यह शब्द आता है, तो ज़ेहन में तमाम तरह के प्रश्न उठते हैं क्योंकि पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है. हमारी आस्था हर वह चीज से जुड़ी है जो लोकतंत्र का हिस्सा है या किसी न किसी रूप में लोकतंत्र से जुड़ी हुई है.
बदलते समय में पत्रकारिता का परिदृश्य बदल गया है, सवाल तब भी थे पर पूछने का अंदाज़ बदल गया है. समय और वक्त के साथ पत्रकारिता आसान हो गई है, तकनीक के इस दौर में सोशल मीडिया की उपलब्धता ने पत्रकारिता को नई उड़ान दी है, पर हर बदलाव के साथ कुछ बवंडर उठना लाज़मी है. धीरे-धीरे थम जाएगा तो अस्थिरता आ जाएगी.
आज कल कुछ ऐसे भी व्यक्ति पत्रकारिता जगत से जुड़ रहे हैं जो पहले से ही किसी खास विचारधारा से प्रभावित हैं, इसलिए वे निष्पक्ष पत्रकारिता करने में असमर्थ हैं. इन्ही कारणों से आज पत्रकारिता दो खेमों में बटी हुई नज़र आ रही है. कोई भाजपा के समर्थक है तो कोई कांग्रेस के, पर देश को इन समर्थकों की ज़रूरत नहीं है. कुछ ऐसे लोग हैं जो निष्पक्ष पत्रकारिता कर रहे हैं, जो सत्ता के दबाव और व्यक्तिगत महत्वकांक्षा से परे होकर पत्रकारिता कर रहे हैं.
उनकी संख्या भले ही कम हो, पर रोशनी पर्याप्त है और अंधेरा नहीं है.
पत्रकार की नैतिक जिम्मेदारी है कि सत्ता में बैठे हुए नेताओं या फिर किसी भी इंस्टीट्यूशन में बैठा हुआ कोई पदाधिकारी उनसे जन सरोकार के मुद्दे पर सवाल पूछे ताकि उनकी जवाबदेही तय हो.
राजनीति और पत्रकारिता दोनों एक दूसरे के पूरक हैं. राजनीति जन सेवा का एक माध्यम है तो पत्रकारिता जन-जन की आवाज़ है, समाज के किसी भी कोने में बैठे हुए व्यक्ति चाहे वह पीड़ित हो या उपलब्धियों के शिखर पर बैठा हुआ सम्मानित व्यक्ति हो, उनकी स्थिति से देश को अवगत कराने का काम पत्रकार का है.
इसलिए पत्रकार को राजनीतिक चाटुकारिता से ऊपर उठकर अपने नैतिक दायित्व का निर्वाहन करना चाहिए.
(इस लेख को ज्यों का त्यों प्रकाशित किया गया है. इसे दिप्रिंट द्वारा संपादित/फैक्ट-चैक नहीं किया गया है.)