scorecardresearch
Wednesday, 18 December, 2024
होममत-विमतबिहार में सोशल इंजीनियरिंग और विकास के ढहते पुल-पुलिया

बिहार में सोशल इंजीनियरिंग और विकास के ढहते पुल-पुलिया

इस तरह राजनीति के जातिकरण ने जातियों के राजनीतिकरण की प्रगतिशीलता को कुंद करके उसे सिर के बल खड़ा कर दिया है. फलस्वरूप बिहार पूरी तरह प्रतिगामी राजनीति और जातिगत संकीर्णता में फंसकर प्रगति के मार्ग से भटक गया है.

Text Size:

चुनाव जीतने के बाद राजनीतिक दुस्साहसपूर्ण बयान दिया जा रहा है, ‘‘दो अमुक जातियों का काम नहीं करूंगा क्योंकि उनका वोट हमको नहीं मिला.’’ विश्वविद्यालयों में मनुस्मृति पढ़ाने की कोशिश और पिछले कुछ दिनों में बिहार में 15 पुल-पुलिये ध्वस्त होना, इन सभी का कारण भ्रष्टाचार है.

हालांकि, पुल तो चुनाव से पहले भी गिरे हैं. स्वास्थ्य और शिक्षा व्यवस्था खत्म हो रहे हैं और रोज़गार की हालत यह है कि बिहार पूरे देश को सस्ता श्रम आपूर्ति करने वाला राज्य बन गया है. सृजन घोटाले, पेपर लीक जैसे घोटाले खूब हुए, लेकिन मीडिया के माध्यम से उनको दबा दिया गया. सरकारी संरक्षण में रिमांड होम में पलने वाली बच्चियों के साथ बलात्कार हो रहे हैं, लेकिन सरकार निश्चिंत है क्योंकि उनको भरोसा है कि सोशल इंजीनियरिंग और राजनीति का जातिकरण उनको तमाम नकारात्मक रिकॉर्डों के बावजूद अगले चुनाव में जीत दिलाएगा.

बिहार जातिवाद की अंधी गली में फंस गया है. वोट करने का आधार जाति हो गया है. किसी की जाति के आधार पर आप अनुमान लगा सकते हैं कि यह व्यक्ति किस पार्टी को वोट करेगा. डॉ. आंबेडकर ने लिखा था कि जाति राष्ट्र विरोधी है और बिहार इस वक्त इसका ज्वलंत उदाहरण है.

जातियों की भूमिका

भारतीय लोकतंत्र में जातियों की भूमिका के प्रति हमेशा से सजगता रही है. जाति का नाम लेकर और बिना नाम लेकर अनेक फैसले होते रहे हैं. कहने की ज़रूरत नहीं है कि भारत में सबल से सबल और निर्बल से निर्बल जातियां पहले भी रही हैं और आज भी हैं. उनकी स्थितियों में थोड़ा-बहुत परिवर्तन होता रहा है. मगर जाति के सवाल आज भी राजनीति में महत्वपूर्ण हैं. इन सवालों को लेकर सामाजिक न्याय की अवधारणा राजनीति में एक प्रमुख पक्ष रही है. कोशिश की जाती है कि जाति के सवालों को लेकर जो सामाजिक संघर्ष हैं उनका समुचित राजनीतिक समाधान निकाला जा सके ताकि इनके सहारे जाति-आधारित सामाजिक-आर्थिक प्रश्नों को सुलझाया में मदद मिले. ऐसा नहीं समझना चाहिए कि जाति की राजनीति की ज़रूरत केवल निर्बल जातियों को रही है. सबल जातियां भी सजग-सक्रिय रूप से जाति-हित के प्रश्नों पर विचार करती रही हैं. यह फर्क ज़रूर रहा है कि निर्बल जातियों की सक्रियता अपनी स्थिति को बेहतर बनाने के प्रति रही है और सबल जातियों का उद्देश्य रहा है कि उनका वर्चस्व कायम रहे!

भारतीय राजनीति में जाति के प्रश्न को प्रगतिशीलता के खिलाफ मानने वाले बहुत लोग मिल जाएंगे. इस तरह की बात या तो नादान लोग करते हैं जिन्हें भारत के सामाजिक विन्यास की जानकारी नहीं है या वे शातिर लोग करते हैं जो जातियों के क्रम को यथावत् बनाए रखने के पक्षधर हैं! वे जानते हैं कि जाति के प्रश्नों पर बात होगी तो उन सामाजिक अन्यायों पर भी बात होगी जो जाति के नाम पर होते रहे हैं! तब यह भी पहचान हो जाएगी कि शोषक जातियां कौन-सी हैं और शोषित जातियां कौन-सी? जाति आधारित गैर-बराबरी के सवालों को जितना दबाने की कोशिश की गई वह उतना ही खुलकर सामने आए हैं. ऐसा इसलिए हुआ कि वे हमारी सामाजिक बनावट के मूल सूत्र हैं. भारतीय समाज उस कपड़े की तरह है जिसकी बुनाई जाति के धागों से हुई है. आप चाहे जितना महिमामंडन कर लीजिए, धर्म और संस्कृति की जितनी दुहाई दे दीजिए, चाहे जितने परदे डालिए, आज तक हुए सामाजिक चिंतन के हर पन्ने में जाति की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष उपस्थित आपको दिखाई पड़ जाएगी.

समय के अनुसार जातियों की स्थितियों में बदलाव आए हैं. शोषण के तरीके बदले हैं. सामाजिक अन्याय के रूप भी बदल गए हैं. अब खुलेआम जातिसूचक गाली देना आम बात नहीं रह गई. अब घर तोड़ देने, फसल जला देने या बस्ती जला देने की घटनाएं कम हो गई हैं. जाति-आधारित अन्याय के खुले रूपों की जगह छिपे हुए रूपों ने ले ली है. अब उन तमाम प्रक्रियाओं को बदल डालने की भरपूर कोशिश की जा रही है जिनके कारण कमज़ोर जातियों की स्थितियों में कुछ सुधार आज़ादी के बाद से शुरू हुए थे. सरकारी नौकरियों में आरक्षण को कभी भी ठीक से लागू नहीं किया जा सका. सरकारी ठेकेदारी को वंचित जातियों तक पहुंचाने के प्रयास को विदेशी-देशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के प्रवेश ने निष्प्रभावी कर दिया. आज अर्थव्यवस्था का कोई रूप ऐसा नहीं बचा है जिनके सहारे कमजोर जातियों की आर्थिक स्थिति को सीधे सुधारने का प्रयास किया जा सके.

जाति के प्रश्नों को सामाजिक न्याय की राजनीति में जो उभार मिला उसे हर तरह से बदनाम करने की कोशिश की गई. यह दिखाने की कोशिश की गई कि सामाजिक न्याय की राजनीति का फायदा कुछेक जातियों जैसे यादवों और पासवान/जाटवों ने ही उठाया बाकी को कुछ नहीं मिला. सामाजिक न्याय के राजनीति में ढेर सारे अंतर्विरोध हैं, लेकिन यह भी मानना पड़ेगा कि उसने जाति-आधारित अन्याय करने वालों के हौसलों पर लगाम भी लगाई है, शोषित जातियों को बोलने का हौसला ज़रूर दिया है. उसने आर्थिक तरक्की भले नहीं दी मगर समाज के ताने-बाने को ऊपरी तौर पर ज़रूर बदला है और समाज की सार्वजनिक भाषा में जाति-आधारित मान-अपमान के प्रश्नों को सही दिशा में आगे बढ़ाया है.

सामाजिक न्याय

सामाजिक न्याय की प्रगतिशीलता को कुंद करने के लिए सोशल इंजीनियरिंग की प्रतिगामी नीति लाई गई. आरएसएस के सर संघ चालक बाला साहेब देवरस ने पिछड़ावादी और बहुजनवादी राजनैतिक चुनौतियों से मुकाबला करने के लिए पहली बार जो नीति अपनाई उसे बाद में कभी भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव केएन गोविंदाचार्य ने सोशल इंजीनियरिंग कहकर स्थापित किया. जातियों की जोड़तोड़ के कुछ गुर संघ ने राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण की संगत से भी सीखे, लेकिन उनके उलट परिणाम हासिल करने के लिए. इसलिए सोशल इंजीनियरिंग का उद्देश्य उस समय चाहे जो भी बताया गया था मगर इतने वर्षों के बाद सब को समझ में आ गया है कि जाति-आधारित राजनीति को साधने का यह एक कुटिल तरीका है. उन्होंने जाति अपील पर आधारित राजनीति का इस्तेमाल सवर्ण वर्चस्व को बनाये रखने के लिए किया है. यानी कोशिश रही है कि सांप भी मर जाए और लाठी भी बची रहे.

प्रतिनिधित्व और अधिकारों को हासिल करने के लिए जो लड़ाई लोकतांत्रिक संघर्षों के माध्यम से लड़ी जा रही थी उसे सोशल इंजीनियरिंग ने टोकन बना कर रख दिया है. इसने तमाम कमज़ोर जातियों से ऐसे लोगों को बड़े से लेकर छोटे पदों पर बिठाया जिनके पास अपनी जाति की बेहतरी के लिए किसी भी प्रकार के संघर्ष की पृष्ठभूमि नहीं है. इन लोगों ने ऐसा कोई संघर्ष नहीं किया था जिसका संबंध इनकी कमज़ोर सामाजिक स्थिति के बारे में रहा हो. इन्होंने ऐसे पिछड़े, दलित और आदिवासी नेताओं को आगे कर बड़े पदों पर बिठाया जिन्होंने बहुजन आंदोलनों में कभी भाग लिया ही नहीं.

पिछड़े, दलित और आदिवासी आंदोलनों को कुंद करने के लिए लगातार प्रतिगामी कार्यक्रम चलाकर भी सामाजिक न्याय की भावना को नुकसान पहुंचाया गया. इस टोकेनिज्म का सीधा उद्देश्य रहा है कि किसी मिट्टी के माधो को पद पर बिठा दिया जाए और प्रचार किया जाए कि देखिए साहब हमने पिछड़ों, दलितों, आदिवासियों और मुसलमानों को वह जगह दी जो पहले कभी नहीं मिली थी. यह अलग बात है कि वह मुसलमान कभी भी मुसलमानों का प्रतिनिधि नहीं रहा, वह आदिवासी भी कभी जल, जंगल और ज़मीन के आंदोलनों से जुड़ा नहीं रहा, वह दलित कभी अस्पृश्यता या दलित उत्पीड़न के खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोला और वह पिछड़ा कभी भी सामाजिक गैर-बराबरी के खिलाफ आंदोलनों का हिस्सा नहीं रहा. ऐसे लोग लोकतंत्र के प्रतिनिधि नहीं हो सकते.

सोशल इंजीनियरिंग ने राजनीतिक मोहरा बनाने की प्रक्रिया को सर्वाधिक ऊंचाई तक पहुंचाया. इसी तरह के उदाहरण नीचे तक के पदों पर मिलते हैं. इस प्रक्रिया ने राजनीति का जातिकरण किया है और जाति-आधारित सामाजिक गैर- बराबरी के खिलाफ राजनीति को दिग्भ्रमित किया है. जैसे अंधेरे में रस्सी सांप होने का भ्रम देता है उसी तरह भ्रम के वातावरण में सोशल इंजीनियरिंग को ही लोग सामाजिक न्याय समझने की भूल कर बैठे हैं. इसने एक ऐसी राजनीति खड़ी करने की कोशिश की जिसमें सामाजिक प्रश्न ठोस धरातल पर खड़े न हो सकें. जातियों की सुगबुगाहट को पदासीन लोगों के चेहरे दिखाकर शान्त करने के प्रयास में उन्हें सफलता भी मिली है.

पिछड़े, दलित और आदिवासी

पिछड़े, दलित और आदिवासी प्रतिनिधियों की झूठी हैसियत को पूरे देश ने अपनी आंखों से कई बार देखा है. सर्वोच्च पद पर बैठे रहकर भी ये लोग हाथ जोड़कर खड़े रहने को विवश होते हैं क्योंकि इनके पास अपने संघर्ष की कोई सामाजिक-राजनीतिक ताकत नहीं होती है. वे टोकन के रूप में कृपापूर्वक इन पदों पर बिठाए जाते हैं. वे बिठाए ही इसीलिए जाते हैं ताकि वे अपने व्यक्तिगत जीवन में सफलता महसूस करें और अपने सामाजिक-राजनीतिक जीवन में निरर्थकता!

इन तमाम स्थितियों में हम देख पाते हैं कि जातियों की राजनीतिक लड़ाई भ्रमित वातावरण में लंबे समय से चल रही है. यह लड़ाई हमारे समाज का सच है इसलिए यह खत्म नहीं होती है. इस लड़ाई को दिग्भ्रमित करनेवाली शक्तियां समानांतर तौर पर सक्रिय हैं. यही कारण है कि यह संघर्ष खत्म नहीं हो पाता है और जनता अंततः इस निष्कर्ष पर पहुंचती है राजनीतिक लड़ाई में अपनी जाति के साथ रहो!

पहला पक्ष है कि जातियां राजनीतिक रूप से सजग होंगी तो निष्कर्ष अच्छे आएंगे. दूसरा पक्ष है कि राजनीति करने वाले जातियों का इस्तेमाल करेंगे तो गलत निष्कर्ष आएंगे. पहला पक्ष सामाजिक न्याय का है और दूसरा पक्ष सोशल इंजीनियरिंग का.

राजनीति का जातिकरण और सोशल इंजीनियरिंग ने बिहार की राजनीति पर सबसे ज़्यादा असर डाला है. पिछली सदी में नब्बे के दशक के पूर्वार्द्ध में जब बिहार मण्डल जनित सामाजिक क्रांति के दौर से गुज़र रहा था तो इस क्रांति की दिशा को भटकाने के लिए सामाजिक न्याय की काट में जैसा कि पूर्व में चर्चा की गई है बीजेपी के गोविंदाचार्य सोशल इंजीनियरिंग लेकर आये थे. इसके तहत पिछड़े वर्गों से ऐसे लोगों को सामने लाया गया जो कभी बीजेपी की पहचान नहीं बने थे. ये ऐसे लोग थे जिनका सामाजिक न्याय की वैचारिकी, आंदोलन और राजनीति से कभी कोई संबंध नहीं रहा था. बीजेपी की राजनीति में उनका महत्व इतना ही था कि वे जिन जातियों से आते थे उन जातियों का वोट बीजेपी की ओर आकर्षित करना था. बीजेपी की इस मुहिम के साथी नीतीश कुमार बने. जातिवादी भारतीय समाज में ऐसा करना या होना कोई नया नहीं है, लेकिन नीतीश और बीजेपी के इस संयुक्त प्रोजेक्ट की खास बात यह रही है कि उन्होंने इसको राजनीति करने का एकमात्र आधार बना दिया.

एक ओर लालू प्रसाद यादव सामाजिक न्याय के मुद्दे पर छोटी छोटी जातियों की सभाएं कर उनको राजनीति की मुख्य धारा में ला रहे थे तो दूसरी ओर नीतीश अपनी खुद की जाति की सभा के मंच से लालू जी को चुनौती पेश कर रहे थे. एक ओर लालूजी कमजोर जातियों को सामाजिक न्याय की विचारधारा से जोड़कर उनका राजनीतिकरण कर रहे थे तो दूसरी ओर नीतीश अपनी जाति की रैली बुलाकर राजनीति का जातिकरण कर रहे थे. लालू यादव की राजनीति में चाहे जो भी कमियां रही हो, लेकिन एक बात से सभी सहमत होते हैं कि उन्होंने बिहार की राजनीति से सवर्ण वर्चस्व को कमजोर किया, लेकिन नीतीश कुमार और बीजेपी ने मिलकर सोशल इंजीनियरिंग के माध्यम से सवर्ण वर्चस्व को फिर हवा दी है. नीतीश जी ने बीजेपी के साथ मिलकर किस तरह लोकतांत्रिक राजनीति को जातिवाद की अंधी गली में भटकाने का काम किया है, उसके कई उदाहरण हैं.

बिहार में इक्कीस दलित जातियों में चार दलित जातियों, चमार, दुसाध या पासवान, धोबी और पासी को छोड़कर बाकी 17 जातियां महादलित आंदोलन चला रही थीं. इनकी मांग थी कि दलित आरक्षण में भी आंतरिक विभाजन किए जाएं और दलित राजनीति में उनकी भागीदारी बढ़े.

नीतीश कुमार ने पासवान को छोड़कर बाकी सभी को महादलित का दर्जा दे दिया. दलित एकता को छिन्न-भिन्न कर दिया गया. कुछ सालों के बाद दबाव पड़ने पर पासवान को भी महादलित की श्रेणी में ले आया गया. जैसे योगी आदित्यनाथ ने हिंदुत्व की राजनीति के तहत इलाहाबाद का नाम बदलकर प्रयागराज कर दिया उसी तरह नीतीश कुमार ने सोशल इंजीनियरिंग की राजनीति के तहत दलित का नाम बदलकर महादलित कर दिया. इन सब का परिणाम यह हुआ है कि जिस दलित चेतना और राजनीति का आधार लोकतंत्र, सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता की विचारधाराएं थीं उसका आधार अब जातिवाद बन कर रह गया. दलित राजनीति की दिशा ही बदल दी गई. आज बिहार में दलित राजनीति के नाम पर दो राजनीतिक दल चल रहे हैं , एक चिराग पासवान के नेतृत्व में और दूसरा जीतन राम मांझी के नेतृत्व में. इन दोनों नेताओं का दलित आंदोलन से कभी कोई रिश्ता नहीं रहा है. दलित वैचारिकी और जन आंदोलनों से बहुजन समाज पार्टी बनी थी, लेकिन इन दो पार्टियों का निर्माण सोशल इंजीनियरिंग और राजनीति के जातिकरण की प्रक्रिया के तहत हुआ है. इन दो पार्टियों का मुख्य लक्ष्य जिन जातियों से ये दोनों नेता आते हैं उनका वोट एनडीए को दिलाना है. ‘गैर यादवी सामाजिक न्याय’ की आशा में बाकी पिछड़ी जातियों से आने वाले अवसरवादी राजनीतिकों को कुछ पद भले हासिल हो गए हैं, लेकिन उन्होंने सामाजिक गैर-बराबरी, शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ वैचारिक संघर्ष को दिग्भ्रमित किया है. उन्होंने अपने क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति में अपने सामाजिक आधारों को सांप्रदायिक और संविधान विरोधी पूंजीवाद सेवी प्रतिक्रियावादी दक्षिणपंथी राजनीति की पैदल सेना बना दिया है.

बिहार कभी जन आंदोलनों की धरती थी, लेकिन सोशल इंजीनियरिंग और राजनीति के जातिकरण ने ऐसा प्रभाव डाला है कि बड़े से बड़े जन आंदोलन का कोई प्रभाव बिहार पर नहीं पड़ रहा है.

उदाहरण के लिए मोदी सरकार के तीन कृषि क़ानून के खिलाफ किसान आंदोलन को लीजिए. अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना बिहार में महान किसान नेता और स्वतंत्रता सेनानी सहजानंद सरस्वती ने की थी, लेकिन मोदी सरकार के तीन कृषि कानून (अब निरस्त हो चुके हैं) के खिलाफ ऐतिहासिक किसान आंदोलन का कोई प्रभाव बिहार पर नहीं पड़ा. यादव, कोइरी, कुर्मी, राजपूत, भूमिहार, ब्राह्मण बिहार की कुछ प्रमुख जातियां हैं जो कृषि कार्य में लगी हुई है. इन जातियों में अधिकांश जातियां एनडीए पार्टियों के साथ हैं. इसका नतीजा यह हुआ कि बिहार में किसान आंदोलन का प्रभाव जीरो रहा. जब किसान आंदोलन चल रहा था तो उसके बीच बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश कुमार ने बयान दिया कि जो कानून अभी मोदी की केंद्र सरकार लागू कर रही है उसको बहुत पहले मेरी सरकार ने बिहार में लागू कर दिखाया है. उनका आशय उनकी सरकार द्वारा कृषि मंडियों को खत्म करने के लिए बनाए गए कानून से था. यह काम उन्होंने 2005 में अपनी सरकार बनने के कुछ ही महीनों के भीतर किया था. इस घनघोर कृषि और किसान विरोधी और पूंजीपरस्त कानून के खिलाफ बिहार में कोई किसान आंदोलन नहीं हुआ. कारण रहा राजनीति का जातिकरण.

नीतीश कुमार ने पंचायती राज और शहरी स्वशासी निकायों में अति पिछड़ों को आरक्षण दिया. जब यह लागू किया तो लगा कि इससे सामाजिक न्याय की ताक़तों को मज़बूती मिलेगी. नीतीश कुमार के इस निर्णय की सर्वत्र प्रशंसा हुई थी, लेकिन आज इतने वर्षों के अनुभवों की रौशनी में यह कहा जा सकता है कि इसका उद्देश्य सामाजिक न्याय की विचारधारा, शक्तियों और राजनीति को मज़बूत करना नहीं था बल्कि नीतीश कुमार ने बिहार के सबसे गरीब लोगों का वोट अमीरों के लिए काम करने वाली पार्टी बीजेपी को दिलवा कर उनको बिहार और केंद्र में मज़बूत किया है और सामाजिक न्याय को देशभर में कमजोर किया है. ‘बहुजन’ से ‘सर्वजन’ की तरफ बढ़ने की राजनीति का पतन हमने यूपी में देख लिया है. यह समझने की ज़रूरत है कि सामाजिक न्याय की वैचारिकी और तेवर को खोकर कुछ सीटों-पदों पर प्रतिनिधित्व तो मिल सकता है, लेकिन सामाजिक न्याय नहीं मिल सकता है.

उत्तर प्रदेश और बिहार में यही अंतर है कि उत्तर प्रदेश में नीतीश कुमार जैसा सोशल इंजीनियरिंग और राजनीति के जातिकरण को अपनी राजनीति का आधार बनाने वाला कोई बड़ा ओबीसी नेता नहीं है. इस अंतर का परिणाम 2024 के लोकसभा चुनाव के परिणामों में परिलक्षित हुआ है.

सोशल इंजीनियरिंग और राजनीति के जातिकरण के तहत नीतीश ने अपने दूसरे कार्यकाल में एक और नायाब काम किया. पिछड़े या पसमांदा मुसलमानों में पहले उन्होंने अंसारियों या जुलाहों को साधा. मुसलमानों की पिछड़ी जातियों में अंसारी सबसे ज़्यादा आबादी वाली जाति है. फिर उन्होंने धुरद नाम से एक कार्यक्रम बनाया जो मुसलमानों की पिछड़ी जातियों में धुनिया, रंगरेज और दर्जी के पहले अक्षरों से बना है. इसमें बुनकरी का काम करनेवाले अंसारियों को ओझल कर दिया गया.

इस तरह राजनीति के जातिकरण ने जातियों के राजनीतिकरण की प्रगतिशीलता को कुंद करके उसे सिर के बल खड़ा कर दिया है. फलस्वरूप बिहार पूरी तरह प्रतिगामी राजनीति और जातिगत संकीर्णता में फंसकर प्रगति के मार्ग से भटक गया है. सामाजिक न्याय की राजनीति के सम्मुख सोशल इंजीनियरिंग की राजनीति और जातियों के राजनीतिकरण के सम्मुख राजनीति का जातिकरण बाधा और चुनौती बनकर खड़ी है.

(लेखक कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव हैं. उनका एक्स हैंडल @chandanjnu है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)


यह भी पढ़ें: सामाजिक न्याय हमेशा से कांग्रेस का एजेंडा रहा है पर क्या आधुनिक हिंदुत्ववाद में भी इसके लिए जगह है


 

share & View comments