नई दिल्ली: बिहार के मुजफ्फरपुर में एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (इंसेफेलाइटिस) ने 100 बच्चों की जान ले ली है. दवाओं और मेडिकल सुविधा की कमी के बीच डॉक्टरों की कमी ने राज्य सरकार और केंद्र सरकार की स्वास्थ्य व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है. बीमार बच्चों की मौत के बीच राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दिल्ली दौरे पर हैं. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बिहार में बच्चों की बीमारी को लेकर आंतरिक बैठक बुलाई है, इस बैठक में स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों सहित मंत्रालय के लोग भी शामिल होंगे. हालांकि, सीएम ने पीड़ित परिवारों के लिए चार लाख़ के मुआवज़े का एलान किया है.
रविवार को मुजफ्फरपुर पहुंचे केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन ने कहा कि एक साल के भीतर मुजफ्फरपुर में एक वॉयरोलॉजी लैब काम करने लगेगा. उनका ये बयान इसलिए अहम है क्योंकि महामारी बन चुके इंसेफेलाइटिस यानी दिमागी बुख़ार से जुड़े वायरस का पता अब तक नहीं लगाया जा सका है.
#UPDATE Sunil Kumar Shahi, Superintendent at Sri Krishna Medical College&Hospital (SKMCH): Death toll due to Acute Encephalitis Syndrome (AES) in Muzaffarpur rises to 100. #Bihar https://t.co/KsS4axA0zD
— ANI (@ANI) June 17, 2019
मुजफ्फरपुर के श्री कृष्ण मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल (एसकेएमसीएच) में चार दशक से सेवा दे रहे डॉक्टर (रि.) बृजमोहन ने दिप्रिंट से कहा कि इस बीमारी ने पहली बार 1994 में अपना कहर बरपाया था. तब 400 से अधिक मामले समाने आए थे.
1994 हो या 2014 या 2019, अनगिनत बच्चों की मौत के बीच सरकारों और मेडिकल व्यवस्था की गंभीरता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि किसी ने अब तक इसके वायरस तक का पता लगाने से जुड़ा ईमानदार प्रयास नहीं किया.
ऐसे में इस बीमारी के लिची से होने से लेकर इसे चमकी बुलाए जाने जैसी कई भ्रांतियां हैं और किसी को ठीक से कुछ भी नहीं पता. दिप्रिंट ने मुजफ्फरपुर के दो और दिल्ली के एक डॉक्टर से बात करके समझने की कोशिश की कि इस बीमारी से जुड़ी भ्रांतियां क्या हैं और उनका सच क्या है?
क्या है इंसेफेलाइटिस
इंसेफेलाइटिस एक तरह का दिमाग़ी बुख़ार हैं. दिल्ली मेडिकल एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष डॉक्टर अनिल बंसल बताते हैं, ‘इंसेफेलाइटिस के मामलों में यह एक तरह का दिमागी संक्रमण होता है.’ इस बीमारी में दिमाग़ के अलावा शरीर के बाकी हिस्से में भी बुख़ार होता है और शरीर में तेज कंपन होता है. ये सारे इंसेफेलाइटिस के लक्ष्ण हैं.
कौन से वायरस से होतो है ये बीमारी, इसे चमकी क्यों कहते हैं
एसकेएमसीएच के वरिष्ठ डॉक्टर जेपी मंडल ने बताया, ‘जब मरीज़ आते हैं तो उनमें बेहोशी, चमकी (ऐंठन- convulsion) और बुख़ार जैसे लक्ष्ण होते हैं. ऐसे बच्चे कुछ समय तो ठीक दिखते हैं लेकिन अचानक उनका शरीर सख्त हो जाता है, उनके दिमाग और शरीर में ऐठन शुरू हो जाती है. इसी ऐठन को चमकी कहते हैं. बच्चों के दिमाग़ में एक वायरस होता है. डॉक्टर बंसल और डॉक्टर मंडल दोनों ही ने बताया कि अब तक इस वायरस का पता नहीं लगाया जा सका है.
चमकी इस बीमारी का एक लक्ष्ण है. हालांकि, चमकी सिर्फ इस बीमारी में नहीं बल्कि ऐसी कई और बीमारियों में होता है. मैनिंजाइटिस (दिमाग़ी बुख़ार) से लेकर टिटनस तक जैसी बीमारियों चमकी के लक्षण पाए जाते हैं.
क्या लीची से होती है ये बीमारी
दिप्रिंट ने जिन तीन डॉक्टरों से बात की उनके मुताबिक लीची से इस बीमारी का दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है. छोटे-बड़े स्तर पर ये बीमारी पूरे साल होती रहती है और लीची का मंजर लगने से पहले से बच्चे बीमार पड़ रहे होते हैं. डॉक्टरों के मुताबिक एक से दो साल के बच्चे लीची नहीं खाते हैं. ऐसे में लीची के सेवन को कारण नहीं माना जाना चाहिए.
डॉ. मंडल ने आगे बताया कि ये बीमारी पूरे साल होती है और मुजफ्फरपुर महामारी वाला क्षेत्र है. ज़्यादातर मरीज़ बेहद ग़रीब परिवार से होते हैं और गांवों से ताल्लुक रखते हैं. शहरी बच्चे शायद ही इसकी चपेट में हैं. हालांकि, उनके मुताबिक ज़्यादातर बीमार बच्चे कुपोशित नहीं होते.
हालांकि, डॉक्टर बंसल कहते हैं कि लीची एक कारण हो सकता है क्योंकि उसमें कीड़े भी होते हैं. कीड़े का रंग सफेद होता जिसकी वजह से बच्चे इसे पहचान नहीं पाते और बिना कीड़ा हटाए खा लेते हैं. यही कीड़ा जब दिमाग़ में चला जाता होगा तो बीमारी होती होगी, हालांकि इसे प्रमाणित नहीं किया जा सका है.
अगर लीची से नहीं तो कैसे होती है ये बीमारी
डॉक्टर मंडल कहते हैं, ‘मच्छर काटने से जापानी इंसेफेलाइटिस होता है. लेकिन ये इंसेफेलाइटिस किस वायरस से हो रहा है इसका पता नहीं लगाया जा सका है. बच्चे सोने जाते हैं तो ठीक होते हैं और सोकर उठते हैं तो उन्हें ये बीमारी हो जाती है. अब बच्चों को मच्छर काट रहे हैं या कोई कीटाणु या वायरस किसी और तरीके से उनके दिमाग़ में जा रहा है, इसका किसी को पता नहीं है.’
उनके मुताबिक अगर वायरस का पता लग भी जाए तो भी इस मामले में लक्ष्ण पर आधारित और सहायक इलाज ही होता है. डॉ. मंडल कहते हैं कि वायरल बीमारियों के मामले में एंटी वायरस दवा के आविष्कार की दरकार होती है जो कि काफी मुश्किल काम है. वो जॉन्डिस जैसी बीमारियां का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि इनके वायरस का पता है लेकिन इनका कोई एंटी वायरस नहीं है. ऐसे में लक्ष्ण पर आधारित और सहायक इलाज के जरिए ये बीमारियां ठीक हो जाती हैं.
बिहार या मुजफ्फरपुर में इंसेफेलाइटिस के इतने व्यापक होने के पीछे की वजहों में भारी आबादी, बच्चों के शरीर का कमज़ोर इम्यून सिस्टम (प्रतिरक्षा प्रणाली), भीषण गर्मी, पर्यावरण का क्षीण होना जैसी कई संभावित वजहें बताई गईं. इसके पीछे का तर्क ये है कि गर्मी के मौसम में ये महामारी में तब्दील हो जाती है और मार्च से जुलाई तक सबसे ज़्यादा मामले सामने आते हैं. वहीं, ये बीमारी दो से तीन सालों के चक्र में महामारी का रूप लेती है. यानी अगर 2014 में इसने महामारी का रूप लिया था फिर 2018 तक तुलनात्मक रूप से कम कहर बरपाया और 2019 में फिर से महामारी बन गई.
वहीं, डॉक्टर (रि.) बृजमोहन के मुताबिक एक्यूट एंसेफिलाइटिस सिंड्रोम (इंसेफेलाइटिस) के मामले हाइपरग्लेसेमिया के हैं. इसमें ब्लड में शुगर की मात्रा असंतुलित हो जाती है. उनके मुताबिक बोनस ग्लुकोज़ चढ़ाने से बच्चे ठीक हो जाते हैं. कॉन्ट्रैक्ट पर अभी भी एसकेएमसीएच को सेवा दे रहे डॉक्टर (रि.) बृजमोहन का दावा है कि ज़्यादातर मौतें देर से आने की वजह से होती हैं. दावा है कि यहां आने के पहले परिवार वाले झाड़-फूंक और झोलाछाप डॉक्टरों का सहारा लेते हैं.
उन्होंने कहा , ‘हाइपरग्लेसेमिया के सबसे ज़्यादा मामले 2014 में सामने आए. तब करीब 800 बच्चे बीमार हुए थे. इस बीमारी से जुड़े सबसे पहले मामले 1994 में आए थे जब करीब 400 से अधिक केस समाने आए थे.’ ये भी जानकारी मिली कि दिल्ली की नेशनल कम्युनिकेबल डिज़ीज (एनकेडी) की टीम ने 2014 की महामारी के दौरान कहा था कि ये किसी एक कारण से नहीं हो रहा बल्कि इस बीमारी के पीछे कई वजहें हैं.
1994 से चुनौती बनी हुई है वायरस का पता लगाना
अचरज की बात ये है कि 1994 में पहली बार इस बीमारी ने महामारी का रूप लेकर कई बच्चों की जान ली. तब से अब तक दिमाग़ी बुख़ार से जुड़े इस वायरस का पता नहीं लगाया जा सका है. केंद्रीय स्वास्थ्य मंंत्री हर्षवर्धन की मानें तो भी मुजफ्फपुर में वायरोलॉजी लैब एक साल बाद काम करना शुरू करेगा. ऐसे में इस समस्या का जड़ पता लगना ही पहली चुनौती है जो कि ढाई दशक पुरानी है और जब तक समस्या के जड़ का पता नहीं लगता, उसे हल कैसे करेंगे इसका जवाब किसी के पास नहीं है.