उदारवादियों के कोसने से लिबरल्स काफी परेशान होते हैं. वे सही तरीके से इशारा करते हैं कि सभी वाम-उदारवादियों को एक ही चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए.
आप यह नहीं कह सकते हैं कि उदारवादी कटे हुए खान मार्केट इलीट हैं, क्योंकि उन राज्यों और छोटे शहरों में भी उदारवादी हैं, जिन्हें आप जानते हैं. आप यह नहीं कह सकते हैं कि सभी उदारवादी कांग्रेस समर्थक हैं. क्योंकि आपको वाम-उदारवादियों के बीच कांग्रेस के कई आलोचक मिल सकते हैं.
वहीं आरोप उदारवादियों पर भी लगाया जा सकता है. उनमें से कई मोदी के वोटरों को एक ही तराजू में तौलने की गलती करते हैं. जब से मोदी दूसरी बार लोकसभा चुनाव जीते हैं, कई उदारवादियों को यह कहते हुए पाया गया है कि सभी मोदी मतदाता ‘धर्मांध’ हैं. हम कह रहे थे कि भाजपा को वोट देने वाले 22 करोड़ लोगों में से प्रत्येक व्यक्ति कट्टर हिंदुत्व में विश्वास करता है.
इस विचारधारा के अनुसार मोदी की चुनावी जीत का विपक्ष से कोई लेना देना नहीं था. विपक्ष के पास विश्वसनीय चेहरा नहीं है या मोदी की कल्याणकारी योजनाओं, या उनकी भाषणबाज़ी की कला और राजनीतिक करिश्मा से कोई लेना-देना नहीं है. यह धार्मिक बहुसंख्यकवाद है. इन सभी 22 करोड़ मतदाताओं को ‘धर्मांध’ बताया गया है.
प्रिय उदारवादियों, इसका सामना करो. हम नए लोगों का चुनाव नहीं कर सकते. भारत के लोग वही हैं जो वे हैं. दुष्प्रचार करना और दबाना आपको कही आगे नहीं ले जायेगा. हिन्दुत्व है या नहीं, जिसके वजह से वे लोग मोदी को वोट देते हैं, आपको उन्हीं लोगों के साथ काम करना होगा, उनके साथ जुड़ना होगा, उनसे बात करनी होगी, उन्हें समझना होगा.
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हम ऐसा करना शुरू भी नहीं करते जब हम उन्हें बेचारी भोली जनता समझते हैं जो कि बहुसंख्यवाद के भावुक मोहपाश में बंधे हुए हैं. हमारे कई उदारवादियों के अनुसार भावना इतनी मजबूत है कि वे मानते हैं कि ये नासमझ, ‘अशिक्षित’ जनता इतना भी नहीं जानती कि उनके आर्थिक हितों के लिए क्या सबसे अच्छा है. कुछ उदारवादियों के अनुसार लोग इतने मूर्ख हैं कि वे भूखे सो सकते हैं और बिना नौकरी के भी रह सकते हैं लेकिन पहले हिंदू राष्ट्र की मांग करते हैं.
अगर ऐसी स्थिति है, तो लोकसभा चुनाव से कुछ महीने पहले ही भाजपा राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव क्यों हार गई? इन राज्यों के मतदाता ‘सांप्रदायिक ’ से ‘धर्मनिरपेक्ष ’और’ फिर ‘सांप्रदायिक’ के पीछे क्यों चले गए?
दिल्ली के मतदाताओं ने 2014 में भाजपा को सभी सात लोकसभा सीटें क्यों दीं और फिर 2015 की 70 विधानसभा सीटों में से 67 सीटें आम आदमी पार्टी को दीं? (वामपंथियों का एक वर्ग अभी भी आप को संघ की साजिश के हिस्से के रूप में देखता है, लेकिन कभी बुरा नहीं मानता)
अगर हिंदुत्व मतदाताओं की चिंता का सबसे महत्वपूर्ण विषय है, तो लोकसभा चुनाव जीतने के कुछ ही दिन बाद कर्नाटक के सिविक पोल में कांग्रेस ने अच्छा प्रदर्शन क्यों किया? कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिलने के लिए हिंदुत्व पर्याप्त क्यों नहीं था?
2014 में बिहार के मतदाताओं ने मोदी को कैसे चुना लेकिन, 2015 में नीतीश कुमार-लालू यादव को चुन लिया? आह, क्या आप इसे लालू और नीतीश का जाति अंकगणित कहेंगे? तो फिर, यूपी में मतदाताओं ने मायावती और अखिलेश की जाति अंकगणित को क्यों खारिज कर दिया और कथित तौर पर हिंदुत्व को क्यो चुना?
इस मामले की सच्चाई यह है कि ‘हिंदुत्व’ भाजपा की सफलता और अपील का केवल एक मुख्य तत्व है. और वह अपील हमेशा करती रही है. बाबरी मस्जिद विध्वंस के तुरंत बाद भाजपा सत्ता में नहीं आई थी. वाजपेयी गुजरात दंगे से महज दो साल बाद भाजपा 2004 में हार गयी. आडवाणी ने 2009 में राष्ट्रीय सुरक्षा अभियान चलाया, जिसमें अफज़ल गुरू को फांसी देने में कथित देरी के लिए कांग्रेस पर मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप लगाया और फिर भी वो मनमोहन सिंह से बुरी तरह हार गए.
मोदीत्व हिंदुत्व से बहुत बड़ा है
यह हिंदुत्व नहीं बल्कि नरेंद्र मोदी का व्यक्तित्व है. जो भाजपा की सफलता के पीछे है. यह उसी तरह है जैसा लोगों ने इंदिरा गांधी में विश्वास जताया था या जिस तरह से बंगाल में लोगों ने ज्योति बसु पर भरोसा किया था. आज भी नवीन पटनायक पर लोग भरोसा कैसे करते हैं. राज्य के चुनावों और आम चुनावों के बीच का अंतर आपको नरेंद्र मोदी की अविश्वसनीय लोकप्रियता दिखाता है.
मोदी में यह भरोसा और विश्वास हिंदुत्व के कारण नहीं है. कुछ के लिए यह हिंदुत्व की वजह भी हो सकता है. कुछ मतदाता हिंदुत्व के लिए सामान्य सहमति देते हैं. क्योंकि उनके द्वारा इसे बेचा जाता है. वे तर्क देते हैं कि हिंदुओं के हितों की बात करने में क्या गलत है.
लेकिन, मोदी की वाकपटुता, मजबूत छवि, जनता के अनुमोदन के साथ शासन करने का तरीका भी पसंद है. इन सबसे बढ़कर मतदाताओं को मोदी पसंद हैं. क्योंकि वे राहुल गांधी के विकल्प को पसंद नहीं करते हैं. हालांकि यह ज़रूरी नहीं है कि कांग्रेस को पसंद नहीं करते हों.
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कई वाम-उदारवादियों के पास मोदी को समझाने के लिए आसान कीवर्ड हैं: फासीवाद, बहुसंख्यकवाद, समाजवाद, लोकतंत्र, राष्ट्रवाद, ज़ेनोफोबिया, इस्लामोफोबिया इत्यादि. सीमित शब्दकोश से परे कोई भी जांच खतरनाक है. यह जनता की तुलना में हमारे उदारवादियों के बारे में अधिक बताता है. यह दिखा सकता है कि हमारे उदारवादी जनता से कितने दूर हैं. हम सांस्कृतिक और सामाजिक रूप से या राष्ट्रीयता या किसी अन्य विचारधारा के साथ जुड़ने में असमर्थ हैं.
यह बेमेल हमारे उदारवादियों के बीच उतना ही परिलक्षित होता है. जितना कि वह उन राजनीतिक दलों के बीच होता है, जो उनके पक्ष में हैं. इस तरह के उदार टिप्पणीकार ने लिखा है, ‘यह पता लगाना एक भयानक एहसास है कि आपका देश अजनबियों से भरा है’ वह महसूस नहीं करता है कि मजाक उन पर है.
(ये लेखक के विचार निजी हैं) (इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)