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Thursday, 21 November, 2024
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मोदी सरकार ग्रामीण भारत को बदल रही है, वे मनरेगा युग से अलग खर्च कर रहे हैं

घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण 2022-23 का मुख्य आकर्षण यह है कि अनाज पर ग्रामीण परिवारों के खर्च का हिस्सा पहली बार 10% से नीचे गिर गया है.

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ग्रामीण भारत में धीरे-धीरे बदलाव देखा जा रहा है, कम से कम टॉप स्तर पर उपभोक्ता व्यवहार, यात्रा की आदतों और बुनियादी सुविधाओं तक पहुंच से देखा जा सकता है. ग्रामीण भारतीयों का एक वर्ग – निश्चित रूप से अधिक समृद्ध लोग-अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा बाहर खाने और परिवहन पर खर्च करना पसंद कर रहे हैं, जिसमें कार और फ्लाइट्स दोनों शामिल हैं.

इसके अलावा, बिजली और नल के पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं की उपलब्धता भी बढ़ रही है.

जीवन की गुणवत्ता में इनमें से कई सुधार 2011-12 के बाद से पिछले 10 वर्षों में हुए हैं, और स्वाभाविक रूप से इसका बड़ा श्रेय नरेंद्र मोदी सरकार को जाता है, क्योंकि इस दौरान वह सबसे अधिक समय तक केंद्र में सत्ता में रही है. इनमें से कुछ, जैसे नल से पीने के पानी और क्षेत्रीय हवाई अड्डों तक पहुंच, को सीधे तौर पर इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है.

ग्रामीण भारतीयों के जीवन में आए इस बदलाव के बारे में काफी कुछ हाल ही में जारी और बहुप्रतीक्षित घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण 2022-23 के आंकड़ों से पता चलता है. सर्वेक्षण का सबसे महत्वपूर्ण बिंदु, जैसा कि अब तमाम एक्सपर्ट्स द्वारा बताया गया है, ग्रामीण परिवारों द्वारा भोजन और विशेष रूप से अनाज व दालों जैसे मुख्य खाद्य पदार्थों पर किए जाने वाले खर्च का गिरना है.

यहां स्पष्ट रूप से एक स्वाभाविक व्याख्या यह है कि मोदी सरकार 80 करोड़ लोगों को बड़ी मात्रा में मुफ्त अनाज दे रही है, और इसलिए निश्चित रूप से उनके पास अन्य चीजों पर खर्च करने के लिए अधिक पैसा होगा. लेकिन डेटा में इसका ध्यान रखा गया है. सर्वेक्षण में इन परिवारों को मुफ्त में मिलने वाली वस्तुओं के मूल्य का अनुमान लगाने के बाद व्यय का डेटा भी शामिल है.

दिलचस्प बात यह है कि मुफ्त खाद्यान्न के मूल्य को शामिल करने के बाद भी, सर्वेक्षण से पता चलता है कि ग्रामीण परिवारों ने 2011-12 की तुलना में 2022-23 में अनाज पर कम हिस्सा खर्च किया. मासिक प्रति व्यक्ति व्यय पर डेटा की आवधिकता असमान है – 1990-91, 2004-05, 2009-10, 2011-12 और 2022-23 के लिए उपलब्ध – जिसका अर्थ है कि सांख्यिकीय तुलना मजबूत नहीं होगी.

लेकिन मुख्य नतीजा यह है कि ग्रामीण परिवार अब अपने खर्च का लगभग 7 प्रतिशत ही अनाज पर खर्च कर रहे हैं, पहली बार यह संख्या 10 प्रतिशत से नीचे आ गई है. दालें 2 प्रतिशत से भी कम हैं, यह पहली बार है.

भोजन पर कुल व्यय भी गिर रहा है और 1990 के बाद पहली बार यह ग्रामीण परिवारों के कुल व्यय का 50 प्रतिशत से भी कम हो गया है. यह बहुत अच्छी खबर है. देश के बढ़ते विकास की पहचान समग्र घरेलू व्यय में मुख्य वस्तुओं की गिरती हिस्सेदारी है. इसका मतलब यह भी है कि, जबकि ग्रामीण परिवारों के लिए समग्र भोजन पर खर्च का हिस्सा गिर गया है, पेय पदार्थ, प्रसंस्कृत भोजन और पका हुआ भोजन श्रेणी के लिए यह बढ़ गया है.

इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि कम से कम अधिक समृद्ध ग्रामीण परिवार अपने पैसे का एक बड़ा हिस्सा प्रसंस्कृत और पैकेज्ड भोजन – जो बड़े पैमाने पर एफएमसीजी कंपनियों द्वारा बेचा जाता है – और पके हुए भोजन पर, संभवतः ढाबों या छोटे रेस्तरां में पर खर्च करना पसंद कर रहे हैं. आंकड़ों से यह बात साफ है.

उपभोग व्यय सर्वेक्षण ग्रामीण भारत के लिए औसत प्रदान करता है. आंकड़ों के अनुसार, प्रसंस्कृत और पके हुए भोजन पर व्यय की हिस्सेदारी में औसत वृद्धि का मतलब या तो यह होगा कि जो लोग पहले से ही ऐसा भोजन खरीद सकते थे, वे तेजी से इसे चुन रहे हैं, या यह कि उन परिवारों का समूह जो इसे खरीद सकते हैं, वह व्यापक रूप से बढ़ रहा है.

जब सरकार अगले साल अपने दूसरे राउंड के सर्वेक्षण का डेटा जारी करेगी, जिसमें विस्तृत डेटा होगा, तो हमें स्पष्ट उत्तर मिलने की संभावना है.

लेकिन अगर यह वास्तव में लकड़ी के चूल्हे पर बनी दाल, रोटी और सब्जी खाने के अलावा कोई विकल्प नहीं होने से कुछ हद तक व्यापक बदलाव का संकेत देता है, तो यह स्वागत योग्य है. इससे सरकार को इस बात की भी जानकारी मिलती है कि वह सबसे निचले पायदान पर मौजूद लोगों की मदद के लिए दिए जाने वाले सपोर्ट को कैसे बेहतर और बेहतर तरीके से टारगेट कर सकती है.

इसका मतलब यह नहीं है कि ग्रामीण भारतीयों के लिए सब कुछ ठीक चल रहा है. उनमें से अधिकांश के लिए अभी भी गंभीर आय संकट है, जैसा कि नरेगा जैसी आय-सहायता योजनाओं की उच्च मांग से देखा जा सकता है. लेकिन इस स्थिति में कोई भी बदलाव ध्यान देने योग्य है.


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दो पहियों से चार पहिया और फ्लाइट तक

फिर यह तथ्य भी है कि ग्रामीण परिवारों द्वारा परिवहन पर खर्च का हिस्सा भी बढ़ गया है. यहां परिवहन का मतलब परिवहन के सभी तरीकों से है, लेकिन इसमें ईंधन की लागत शामिल नहीं है, ऐसा न हो कि लोग उच्च पेट्रोल और डीजल की कीमतों को इसका कारण बताएं. परिवहन में वाहनों, ट्रेनों, फ्लाइट्स और यात्रा-संबंधी अन्य लागतों पर व्यय शामिल है.

यह निष्कर्ष इस तथ्य से समर्थित है कि 2018-19 के बाद से पिछले छह वर्षों में से प्रत्येक में ग्रामीण भारत में यात्री वाहन की बिक्री में वृद्धि ने शहरी भारत में बिक्री को पीछे छोड़ दिया है. बेशक, यह निचले आधार पर है, लेकिन छह साल की अवधि कोई अपवाद नहीं है. हालांकि, अभी भी अपेक्षाकृत शुरुआती चरण में है.

हालांकि, अभी भी अपेक्षाकृत शुरुआती चरण में, ग्रामीण और छोटे शहरों के भारतीय तेजी से दोपहिया वाहनों से चार-पहिया वाहनों पर स्विच कर रहे हैं, जो कि अपने जर्जर दोपहिया वाहन पर सवार किसान की खास छवि से अलग है.

इस बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है कि कैसे अधिक भारतीय अब फ्लाइट से आना-जाना पसंद कर रहे हैं, लेकिन बड़े हवाई अड्डों से दूर जाने वाले यात्रियों की संख्या के बारे में कम ही कहा गया है. भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण के आंकड़ों से पता चलता है कि घरेलू यात्री संख्या में छह मेट्रो हवाई अड्डों की हिस्सेदारी इस वित्तीय वर्ष की अप्रैल-जनवरी अवधि में गिरकर 58 प्रतिशत हो गई है, जो 2014-15 की इसी अवधि के दौरान लगभग 65 प्रतिशत थी.

इसके अलावा, यह बताया गया है कि देश के शीर्ष 10 हवाई अड्डों पर 2024 में घरेलू यात्रियों की संख्या में 69 प्रतिशत का योगदान रहा, जो 2014 में 75 प्रतिशत से कम है. इसका मतलब यह है कि अधिक लोग फ्लाइट्स ले रहे हैं और यहां उतर रहे हैं. छोटे हवाई अड्डे, जिनमें से कई सरकार की उड़ान योजना के तहत आए हैं.

यह इस बात का संकेत है कि फ्लाइट्स अब सिर्फ शहरी अमीरों की चीज़ नहीं रह गई है. ग्रामीण और अर्ध-शहरी भारत के लोग भी इसका फायदा उठा रहे हैं. वास्तव में, दिप्रिंट के कृष्ण मुरारी ने बताया है कि बिहार के दरभंगा में एक नया हवाई अड्डा किस तरह का बदलाव ला रहा है.

हर तरफ पानी ही पानी

गाँव की महिलाएँ सुबह की रोशनी में सिर पर बर्तन लेकर दूर-दराज के कुओं की ओर जाती हैं, यह ग्रामीण भारत से जुड़ी सबसे स्थायी और लोकप्रिय छवियों में से एक है. हालाँकि, वास्तविकता अब अलग होनी चाहिए. सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि, कुछ ही दिन पहले, जल जीवन मिशन ने 75 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों को नल का पानी कनेक्शन प्रदान करने का मील का पत्थर पार कर लिया है. जब इसे अगस्त 2019 में लॉन्च किया गया था, तो लगभग 17 प्रतिशत ग्रामीण परिवार ही इसमें शामिल थे.

अब, भले ही आप आधिकारिक आंकड़ों को नजरअंदाज करना चाहें और कहें कि सरकार अपनी उपलब्धियों को बढ़ा-चढ़ाकर बता रही है, मान लीजिए कि वास्तव में यह संख्या 50 प्रतिशत है, न कि 75 प्रतिशत. इसका मतलब यह भी है कि दो में से एक ग्रामीण परिवार के पास नल तक पहुंच है.

बेशक, कोई यह सवाल कर सकता है कि क्या इन नलों से पानी बह रहा है. लेकिन जैसा कि बेंगलुरु ने पिछले कुछ दिनों में हमें दिखाया है, पानी की कमी न तो केवल ग्रामीण और न ही गरीब व्यक्ति की समस्या है.

शायद ग्रामीण भारत में सबसे महत्वपूर्ण बदलाव को अर्थशास्त्री राधिका पांडे ने दिप्रिंट के लिए अपने साप्ताहिक मैक्रोसूत्र कॉलम में उजागर किया था. उन्होंने बताया कि निम्न उपभोग समूहों के लिए शहरी-ग्रामीण अंतर अधिक कम हो गया है. यानी, ग्रामीण गरीबों और शहरी गरीबों के बीच खर्च के मामले में अंतर कम हो रहा है.

जैसा कि पांडे ने कहा, यह एक संकेत है कि सरकारी नीतियां ग्रामीण गरीबों को लक्षित करने और उनके उत्थान में प्रभावी रही हैं.

इनमें से अधिकांश डेटा बिंदु पहले भी रिपोर्ट किए जा चुके हैं, लेकिन कुल मिलाकर वे ग्रामीण भारत में धीरे-धीरे बदलाव की ओर इशारा करते हैं, एक ऐसा तथ्य जिसमें हर किसी के लिए कुछ न कुछ है.

नीति निर्माताओं को यह सुनिश्चित करना होगा कि यह बदलाव कागजों तक ही सीमित न रहे. उन्हें यह भी निर्धारित करना होगा कि क्या उपभोक्ता व्यवहार में यह बदलाव संपन्न ग्रामीण परिवारों के एक छोटे समूह तक ही सीमित है, या यह और भी व्यापक होता जा रहा है.

एफएमसीजी कंपनियां भी यह देखना चाहेंगी कि क्या यह एक नए और बढ़ते बाजार का प्रतिनिधित्व करता है.

(शरद राघवन दिप्रिंट में इकॉनमी के डिप्टी एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @SharadRaghavan है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)


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