दिवंगत कर्पूरी ठाकुर और लालकृष्ण आडवाणी को 2024 लोकसभा चुनाव से ठीक पहले देश का सबसे बड़ा नागरिक सम्मान भारत रत्न देने का भारत सरकार का फैसला एक राजनीतिक वक्तव्य है. मेरी राय में ये एक ऐसा राजनीतिक प्रतीकवाद है, जिसे पहले कभी किसी सरकार ने करने की कोशिश नहीं की.
भारत रत्न देना हमेशा तत्कालीन सरकारों का राजनीतिक वक्तव्य रहा है, इसलिए इस बात से किसी को शिकायत नहीं होनी चाहिए कि नरेंद्र मोदी इस मामले में राजनीति क्यों कर रहे हैं. मेरा मानना है कि इन दो शख्सियतों को एक साथ भारत रत्न देने की घोषणा मंदिर और मंडल राजनीति को एक साथ साधने की बीजेपी की कोशिशों के तहत है.
कर्पूरी ठाकुर और लालकृष्ण आडवाणी भारतीय राजनीति के दो समानांतर ध्रुव की तरह नजर आते हैं. कर्पूरी ठाकुर उत्तर भारत में सामाजिक न्याय और पिछड़ी जाति की राजनीति के शिखर प्रतीक हैं, जिन्हें वंचितों का जितना स्नेह मिला, उसी अनुपात में जातिवादी-वर्णवादी शक्तियों की घृणा भी मिली. वैसे तो उनकी ख्याति कई कारणों से है, लेकिन ज्यादातर लोग उन्हें उस नेता के तौर पर याद करते हैं, जिन्होंने बिहार में पहली बार पिछड़ी जातियों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया. उनके अन्य कार्यों के बारे में आप यहां पढ़ सकते हैं. हालांकि उन्होंने जनसंघ/बीजेपी के साथ मिलकर भी सरकार चलाई, पर वे सेक्युलर नेता ही माने जाते हैं.
उनके मुकाबले लालकृष्ण आडवाणी की प्रमुख पहचान राममंदिर आंदोलन, रथयात्रा और हिंदुत्व की राजनीति के कारण है. 1984 के लोकसभा चुनाव में जब बीजेपी दो लोकसभा सांसद पर पहुंच गई थी, तो राममंदिर को सामने रखकर उन्होंने बीजेपी को फिर से खड़ा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
एक समय ऐसा भी था जब गैर-कांग्रेसवाद ने कर्पूरी ठाकुर और आडवाणी को एक साथ ला दिया था. उस समय भारतीय जनसंघ, समाजवादियों और कांग्रेस के छिटके लोगों ने इंदिरा गांधी के शासन के खिलाफ जनता पार्टी बनाई थी. 1977 के लोकसभा चुनाव के बाद मोरारजी देसाई के मंत्रिमंडल में लालकृष्ण आडवाणी सूचना और प्रसारण मंत्री बने, जबकि कर्पूरी ठाकुर बिहार के मुख्यमंत्री बने. उनके मंत्रिमंडल में वित्त मंत्री बने जनसंघ और अब बीजेपी के प्रमुख नेता कैलाशपति मिश्रा. लेकिन जनता पार्टी और आरएसएस की दोहरी सदस्यता को लेकर विवादों में, जनसंघ ने जनता पार्टी के साथ संबंध तोड़ लिया या उन्हें जनता पार्टी से निकाल दिया गया.
समाजवादियों और बीजेपी के बीच निर्णायक दूरी 1990 में बनी जब बीजेपी समर्थित वीपी सिंह सरकार ने 7 अगस्त को मंडल कमीशन की रिपोर्ट की एक अनुशंसा- केंद्र सरकार की नौकरियों में ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण- को लागू करने की घोषणा कर दी. कहना मुश्किल है कि इसके तुरंत बाद बीजेपी ने लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में सोमनाथ से अयोध्या रथ यात्रा निकालने का फैसला क्यों किया? क्या इस फैसले के पीछे एकमात्र कारण हिंदुत्व था, या फिर बीजेपी मंडल की राजनीति की काट ढूंढ रही थी?
बहरहाल जब रथयात्रा बिहार से गुजर रही थी, तो राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद के आदेश पर इसे रोक दिया गया और लालकृष्ण आडवाणी गिरफ्तार कर लिए गए. इस मुद्दे पर बीजेपी ने वीपी सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया और सरकार गिर गई.
यहीं से मंदिर और मंडल के रास्ते अलग हो गए और उनके बीच ऐसी दूरी बन गई, जिसके बारे में माना जाता रहा है कि इनके बीच कोई तारतम्य संभव नहीं है. ये खाई 6 दिसंबर 1992 को और गहरी हो गई जब आरएसएस और बीजेपी नेताओं की मौजूदगी में बाबरी मस्जिद गिरा दी गई.
इसके तीन असर हुए:
– यूपी और बिहार, जहां से तब लोकसभा की 134 सीटें आती थीं- में सामाजिक न्यायववादी-पिछड़ा/दलित नेतृत्व वाले दल स्थायी ताकत बन गए. मुसलमान भी लगभग स्थायी रूप से सामाजिक न्यायवादी पार्टियों से जुड़ गए.
– ये इन दो राज्यों में कांग्रेस कमजोर पड़ गई, जिससे वह आज तक नहीं उबर पाई है. दलित और मुसलमान दोनों उससे खिसक गए. इसके बाद सवर्ण ही वहां रहकर क्या करते?
– बीजेपी को इतनी ताकत मिल गई कि वह भारतीय राजनीति की स्थायी धुरी बन गई. यहां से पहले नंबर पर आना सिर्फ वक्त की बात थी.
एक बात गौर करने की है कि बीजेपी हिंदुत्व के मुद्दों को लगातर उछालती रही, अनुच्छेद 370, यूनिफॉर्म सिविल कोड, राम मंदिर और काशी-मथुरा लगातार उसके एजेंडे पर रहे. पर 2014 तक उसे केंद्र में पूर्ण बहुमत नहीं मिला. सवाल यही है कि 2013-14 के बीच बीजेपी में ऐसा क्या हुआ कि उसे 2014 के लोकसभा चुनाव में पहली बार पूर्ण बहुमत मिल गया?
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बीजेपी का मंडल अवतार
बीजेपी जब जनसंघ के रूप में थी, तो उसकी पहचान ब्राह्मण-बनिया पार्टी के रूप में थी, जिसमें पाकिस्तान से आए हिंदू शरणार्थी अच्छी संख्या में जुड़े थे. बीजेपी बनने के बाद पार्टी को अपना सामाजिक आधार बड़ा बनाने की जरूरत पड़ी. राममंदिर का आंदोलन शुरू हुआ तो उसने बड़ी संख्या में ओबीसी नेताओं- कल्याण सिंह, उमा भारती, विनय कटियार, साध्वी ऋतंभरा, गोपीनाथ मुंडे, शिवराज सिंह चौहान, बाबूलाल गौर, नरेंद्र मोदी आदि को आगे किया. इसे पार्टी महासचिव गोविंदाचार्य ने सोशल इंजीनियरिंग कहा.
लेकिन पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व अब भी सवर्ण नेताओं- वाजपेयी, आडवाणी, राजमाता सिंधिया, मुरली मनोहर जोशी, मदनलाल खुराना, राजनाथ सिंह, प्रमोद महाजन, वैंकैया नायडू, जगमोहन, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली आदि के हाथ में रहा. यानी ओबीसी नेताओं को राज्यों में आगे करके भी बीजेपी ब्राह्मण-बनिया पार्टी ही बनी रही.
पार्टी के मंडलीकरण का दूसरा दौर 2009 के लोकभा चुनाव में बीजेपी का बुरी हार के बाद शुरू हुआ. 2013 आते-आते आरएसएस और बीजेपी इस नतीजे पर पहुंच चुकी थी कि ब्राह्मण-बनिया नेताओं और हिंदुत्व के मुद्दे पर पार्टी को जहां तक पहुंचना है, वह हो चुका है. यहां से आगे का रास्ता ओबीसी को साथ लेकर ही नापा जा सकता है. आखिरकार पार्टी की गोवा बैठक में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश किया गया और पार्टी की कमान एक ऐसे ओबीसी नेता के हाथ में आ गई, जो बार बार अपनी ओबीसी पहचान को आगे करता है. मैंने अपने एक लेख में बताया है कि बीजेपी की ये रणनीति सावरकर के हिंदुत्व मॉडल के अनुरूप ही है जिसमें मुसलमानों के खिलाफ विराट हिंदू एकता की परिकल्पना है.
लेकिन ये कहना जितना आसान है, करना उतना ही मुश्किल. हिंदू जातियां हमेशा आपस में युद्धरत रहती हैं और उनके बीच प्रेम से ज्यादा घृणा और ईर्ष्या होती है. दूसरी जाति के दुख में दुखी होना हिंदू व्यवस्था में लगभग नामुमकिन है. तो फिर बीजेपी कैसे सवर्ण और ओबीसी तथा एससी के एक हिस्से को साथ ला पा रही है?
दरअसल बीजेपी ने, बल्कि कहें कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी ने, इस कलाबाजी में महारत हासिल कर ली है. इसके लिए सांप्रदायिक तापमान को लगातार ऊंचा रखा जाता है, क्योंकि यही एक तत्व है, जिसके आधार पर हिंदू कुछ समय के लिए एकजुट हो सकता है. लेकिन इतना काफी नहीं है. ओबीसी को कुछ प्रतीकात्मक और कुछ वास्तविक देना भी पड़ता है. बीजेपी ने ओबीसी को राजनीतिक प्रतिनिधित्व दिया है. उसके पास सबसे ज्यादा ओबीसी सांसद हैं और केंद्रीय मंत्रिपरिषद मे रिकॉर्ड 27 ओबीसी मंत्री हैं. प्रधानमंत्री ये बताने का कोई मौका नहीं चूकते कि वे ओबीसी हैं. इस बीच ओबीसी आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया गया है और नीट के ऑल इंडिया कोटा सीट में पहली बार ओबीसी आरक्षण लागू हुआ है. साथ ही नवोदय स्कूलों और सैनिक स्कूलों में पहली बार ओबीसी आरक्षण दिया गया है.
दूसरी तरफ सवर्ण जातियों का नौकरशाही और बिजनेस में दबदबा कायम है. न्यायपालिका के कोलिजियम सिस्टम को भी चलने दिया जा रहा है, जिसके जरिए सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में सवर्ण प्रभुत्व को कायम रखा गया है. सवर्णों को आर्थिक आधार पर पहली बार इसी सरकार में आरक्षण मिला है. राम मंदिर और धार्मिक मुद्दों के आधार पर जाति श्रेष्ठता की बुनियाद को कायम रखा जा रहा है.
वहीं, कांग्रेस की समस्या ये है कि उसने भारत की सर्वप्रमुख हिंदू पार्टी होने का खिताब खो दिया है. मोहनदास करमचंद गांधी के परिदृश्य में आने के बाद बेशक कांग्रेस ईश्वर अल्लाह तेरो नाम का नारा बुलंद कर रही थी, पर व्यावहारिक अर्थो में वह सनातनी हिंदू पार्टी बन गई थी. गांधी ने राम राज्य, वर्ण व्यवस्था, ग्राम स्वराज, स्वदेसी आदि विचारों को लेकर कांग्रेस को, वकीलों और जमींदारों की पार्टी से, आम जनता की पार्टी बना दिया. इस क्रम में कांग्रेस ने वंदे मातरम जैसे नारे और गीत को भी अपना लिया, जिसकी रचना मुस्लिम शासन के खिलाफ हुई थी. मुस्लिम लीग को जैसे ही ये बात समझ में आई, उसने मुसलमानों के लिए अलग देश मांग लिया. इस बात को इतिहास ने दर्ज किया कि भारत की आजादी का समारोह एक हिंदू धार्मिक आयोजन था. आगे भी ये सिलसिला जारी रहा और हिंदू विचारों को कांग्रेस के अंदर इतनी व्यापक जगह मिलती रही कि किसी हिंदू महासभा या जनसंघ के लिए गुंजाइश ही नहीं थी. कांग्रेस इस हद तक हिंदू पार्टी थी कि उसने सावरकर की स्मृति में डाक टिकट जारी किया और इंदिरा गांधी ने सावरकर को भारत की महान संतान बताया.
हिंदू पार्टी के तौर पर कांग्रेस का आखिरी बड़ा कार्य राजीव गांधी के कार्यकाल में राम मंदिर के ताले खोलना था. लेकिन मुसलमान और हिंदू के बीच संतुलन बनाने के क्रम में वह बीच में कहीं खो गई.
इस समय उभरती तीसरी धारा, सामाजिक न्याय के साथ भी कांग्रेस का शत्रुतापूर्ण व्यवहार रहा. वीपी सिंह जब मंडल कमीशन लेकर आए तो कांग्रेस विरोध में थी. इस दौरान राजीव गांधी ने नेता प्रतिपक्ष के तौर पर लोकसभा में बेहद लंबा भाषण दिया. इस तरह कांग्रेस न हिंदू पार्टी रह पाई, न सामाजिक न्याय की पार्टी बनी.
इसके मुकाबले बीजेपी दो नाव पर अभी तक सफलतापूर्वक चल पा रही है. लेकिन कब तक? यह सवाल भविष्य के गर्भ में है.
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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