पिछले कुछ वर्षों से हम यही सुन रहे हैं कि कंपनियों और बैंकों को ऋण को लेकर दोहरे संकट का सामना करना पड़ रहा है. हम क्रेडिट सुइस की ‘हाउस ऑफ डेट’ रिपोर्ट भी पढ़ चुके हैं जिसमें उन कंपनियों के बारे में बताया गया है जिनके पास मूल कर्ज़ तो दूर, ब्याज का भुगतान करने के लिए भी पैसे नहीं हैं. बैंक अपने बुरे कर्ज़ों को किस तरह बट्टे खाते में डाल रहे हैं, इसके बारे में भी हम बेशक जरूरत से ज्यादा बातें पढ़ते रहे हैं. वैसे, कोई भी यह नहीं देख रहा कि व्यक्तिगत स्तर पर कितना भारी कर्ज़ लिया जा रहा है और घरेलू ऋण का स्तर कितना बढ़ गया है. वक़्त आ गया है कि इस पर गौर किया जाए, जबकि अर्थव्यवस्था को निवेश की मंदी के दौर में भी गति देने वाला उपभोग इंजिन पहले की तरह तेजी नहीं प्रदान कर रहा.
व्यक्तिगत या घरेलू वित्तीय संकट आम तौर पर बेरोजगारी या आजीविका संकट के कारण पैदा होता है. कुछ मामले ऐसे हुए हैं. जरा कृषि क्षेत्र में आय में गिरावट, जेट एयरवेज की बदकिस्मती, या नोटबंदी के प्रभावों पर नज़र डालिए. लेकिन इससे भी गहरा संकट उभरता दिख रहा है, जो कि आर्थिक मंदी या उथलपुथल की वजह से नहीं है. निजी ऋण का स्तर बढ़ रहा है, और हमें यह देखना पड़ेगा कि भुगतान का बोझ कहीं उस पैसे को तो नहीं हड़प रहा, जो अतिरिक्त आय के रूप में हासिल होता है, विशेषकर इसलिए कि गृह ऋण का भुगतान गृह प्रोजेक्ट के स्थगित होने के बाद भी करना पड़ रहा है. जरा आंकड़ों पर नज़र डाल लीजिए.
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भारतीय रिजर्व बैंक के ‘हैंडबुक ऑफ स्टैटिस्टिक्स ऑन द इंडियन एकोनोमी’ के मुताबिक, 2013-14 से 2017-18 के बीच बैंकों से जारी किए गए निजी ऋणों का अनुपात 89 प्रतिशत बढ़कर 19.1 खरब पर पहुंच गया, जबकि इस बीच निजी उपभोग में केवल 53 प्रतिशत की वृद्धि हुई. उपभोक्ता सामान में 54 प्रतिशत की और वाहनों में 78 प्रतिशत की. सबसे मार्के की 154 प्रतिशत वृद्धि ‘अन्य निजी ऋणों’ में हुई, जबकि क्रेडिट कार्ड आउटस्टैंडिंग में और भी ज्यादा 176 प्रतिशत की वृद्धि हो गई.
इन आंकड़ों को घरेलू बचत के आंकड़ों के बरअक्स देखा जाए तो ये और गंभीर दिखते हैं, जिनमें 2016-17 तक के तीन सालों में 18 प्रतिशत की वृद्धि हो गई. उधर, घरेलू बचत में वास्तव में गिरावट आई, भले ही आंशिक तौर पर सही. घरेलू बचत के आंकड़ों में अनिगमित उद्यमों को भी शामिल किया गया है. इसलिए आंकड़ों की वास्तव में तुलना नहीं की जा सकती. जो भी हो, उपभोग के लिए उधार लेने का चलन तो साफ बढ़ता दिख रहा है. उधार और कुल उपभोग (दैनिक जरूरतों समेत) के बीच का अनुपात चार साल में 15.6 प्रतिशत से बढ़कर 19.3 प्रतिशत पर पहुंच गया.
यह तो केवल बैंक क्रेडिट की बात हुई. लोग आम तौर पर मकान या कार के लिए ही नहीं बल्कि उपभोक्ता सामान या शादी वगैरह के लिए भी गैर-बैंकिंग कंपनियों (एनबीएफसी) से भी कर्ज़ लेते हैं. रिजर्व बैंक के आंकड़े बताते हैं कि दो तिहाई गृह ऋण बैंकों से लिए जाते हैं और घरेलू वित्तीय देनदारियों में 2017-18 में 6.7 खरब की वृद्धि हो गई. यह इससे एक साल पहले के मुक़ाबले इसमें आश्चर्यजनक 80 प्रतिशत की वृद्धि थी.
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भारत में घरेलू कर्ज़ का जीडीपी के मुक़ाबले अनुपात दूसरे ‘ब्रिक्स’ देशों की तुलना में काफी कम है— मात्र 11 प्रतिशत. रूस में यह अनुपात 17 प्रतिशत, ब्राज़ील में 26 और चीन में 48 प्रतिशत है. कर्ज़ का भुगतान अतिरिक्त आय से किया जाना है. लेकिन भारत में इसका अनुपात भी नीचे होगा क्योंकि दूसरे ‘ब्रिक्स’ देशों की तुलना में भारत के अधिकांश लोग बड़ी मुश्किल से गुजारा करते हैं. दूसरे ‘ब्रिक्स’ देशों की प्रति व्यक्ति आय भारत की इस आय की पांच गुना है. इसलिए निजी ऋण के मामले में उन देशों से तुलना भ्रामक होगी. इसके अलावा, चालू वृद्धि दर के हिसाब से भारत में निजी ऋण केवल दो-तीन वर्षों में बैंकों से जारी किया जाने वाला सबसे बड़ा ऋण बन जाएगा और अभी जो आगे हैं उन बड़े उद्योगों और सेवा क्षेत्र को पीछे छोड़ देगा. उदाहरण के लिए, सभी उद्योगों को बैंक कर्ज़ में 2107-18 तक के चार साल में केवल 7.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई. अगर घरेलू आय बढ़ रही हो तो घरेलू वित्तीय मदद देना ठीक है. अगर ऐसा नहीं है तो ऊंचा ऋण स्तर उलता असर दिखने लगता है. और हम पर दोहरी मार पड़ सकती है.
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