नई दिल्ली: आम चुनाव में बिहार के नतीजे भी पूरी तरह से एनडीए के पक्ष में रहे. आलम ये है कि महागठबंधन ने 40 लोकसभा सीटों में से महज़ एक सीट कांग्रेस को मिली. किशनगंज की इस सीट पर कांग्रेस के मोहम्मद जावेद ने जीत हासिल की है. 39 सीटों पर महागठबंधन की हार के बाद ये सवाल उठता है कि आख़िर जाति आधारित कई पार्टियों के साथ आने के बावजूद ये मुंह के बल क्यों गिरा?
चारा घोटाले मामले में सज़ा काट रहे लालू की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल का नेतृत्व उनके बेटे तेजस्वी यादव कर रहे थे. तेजस्वी के पहले आम चुनाव में पूरे राज्य ने उन्हें सिरे से नकार दिया है. पाटलीपुत्र से मैदान में उतरीं लालू की बड़ी बेटी मीसा भारती को भी वहां के वोटरों ने दोबारा नकार दिया है. मीसा को 2014 में भी हार मिली थी. ऐसे में एक और सवाल ये है कि पहले से लालू के बड़े बेटे तेजप्रताप और तेजस्वी के बीच नेतृत्व के कलह में उलझी इस पार्टी के भविष्य क्या होगा?
मंहगाई-बेरोज़गारी जैसे मुद्दों पर राष्ट्रवाद का मुद्दा हावी रहा
दिप्रिंट ने जब टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (टिस) के पुश्पेंद्र से इस पर बात की तो उन्होंने कहा कि ये सिर्फ आरजेडी या उसके नेतृत्व का संकट नहीं है. ये लिबरल इंडिया की समझ से जुड़ा संकट है. पुश्पेंद्र कहते हैं, ‘ये सिर्फ गठबंधन और उसके गणित से जुड़ा हुआ नहीं है. अभी के माहौल में एक सैन्य कमांडर और बहुसंख्यकों के नेता की मांग है.’ मंहगाई-बेरोज़गारी जैसे मुद्दों पर राष्ट्रवाद का मुद्दा हावी रहा. विपक्ष राष्ट्रवाद का काट नहीं दे पाया.
लिबरल भारत के संदेश को नहीं बेच पाया विपक्ष
प्रधानमंत्री मोदी ने भी जीत के बाद के अपने संबोधन में इसकी तस्दीक की थी. उन्होंने कहा कि आज़ादी के बाद हुए तमाम भारतीय चुनावों में ये पहला मौका था जब भ्रष्टाचार-मंहगाई कोई मुद्दा नहीं था. उन्होंने धर्मनिरपेक्षता की राजनीति पर हमला करते हुए कहा कि इस बार कोई भी इस मुखौटे का इस्तेमाल नहीं कर पाया. इस पर पुश्पेंद्र कहते हैं कि पीएम एक अनुदार भारत को बेचने में सफल रहे. इसलिए उन्होंने जीत के बाद धर्मनिरपेक्षता का माखौल बनाया. ये लिबरल भारत को बेचने वालों की भी असफलता है.
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‘एनडीए को सिर्फ पुराने जातिगत गठबंधनों से नहीं हराया जा सकता’
पुश्पेंद्र आगे कहते हैं कि एम+वाई (मुस्लिम+यादव) जैसे समीकरण अभी के माहौल में पर्याप्त नहीं है. राष्ट्रवाद और बहुसंख्यक राजनीति के सामने ये समीकरण धरे रह जाते हैं. आर्थिक रूप से पिछड़ों को मिले आरक्षण को भी वो भाजपा की जीत का एक बड़ा कारण मानते हैं और कहते हैं कि ये लोग अब उस तरह से वोट नहीं करते जैसे पहले करते थे.
इस बार के महागठबंधन में लालू की आरजेडी के अलावा कांग्रेस समेत जाति आधारित राजनीति करने वाली उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (आरएलएसपी), जीतन राम मांझी की हिंदुस्तान आवाम मोर्चा (हम) और मुकेश साहनी की विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) जैसी पार्टियां थीं. बावजूद इसके पुश्पेंद्र कहते हैं कि अगर सिर्फ जाति आधारित पहचान की राजनीति करनी है तो इन पार्टियों को दायरा बड़ा करना होगा.
वोट बैंक की राजीनित बनी हार का बड़ा कारण
चुनाव के दौरान जब दिप्रिंट की टीम बिहार दौरे पर थी तब एक नेता ने उन्हें मिली ज़्यादा सीटों के पीछे वोट बैंक का हवाला दिया. उनका कहना था कि उन्हें इतनी सीटें इसलिए मिली हैं क्योंकि उनके पास वोट बैंक है. ये पीएम मोदी की उस राजनीति को बल देता है जिसमें वो इन पार्टियों पर वोट बैंक की राजनीति करने का आरोप लगाते हैं और वोटरों के लिए कुछ भी नहीं करने के बावजूद इस आस में रहने का आरोप लगाते हैं कि वो उन्हीं को वोट करेंगे.
‘तेजस्वी से ज़्यादा आइडिया ऑफ इंडिया की हार’
अपनी हार के बाद पीएम मोदी को बधाई देते हुए तेजस्वी यादव ने ट्वीट कर लिखा, ‘हम हार-जीत के कारणों का विश्लेषण कर गांधी, जेपी, लोहिया और जननायक कर्पूरी ठाकुर के विचारों पर अडिग रहते हुए साथ मिलकर बड़ी लड़ाई लड़ेंगे और जीतेंगे.’ क्या ये हार तेजस्वी की हार है जैसे सवाल के जवाब में पुश्पेंद्र कहते हैं, ‘ये तेजस्वी या राहुल को अस्वीकार किए जाने से ज़्यादा आइडिया ऑफ इंडिया को अस्वीकार किया जाना है.’
दिल्ली से बिहार तक चुनाव कवरेज के दौरान दिप्रिंट की टीम ने पाया कि भाजपा ने पीएम मोदी और राष्ट्रवाद के नाम पर चुनाव लड़ा. पार्टी की हर बात बस इन्हीं दो चीज़ों से जुड़ी थी और नतीजों से साफ है कि पार्टी अपना संदेश देने में सफल रही. वहीं, शौचालय से लेकर सिलेंडर तक लोगों तक पहुंचा है. इसके पहुंचने के बाद इनके सफल-असफल होने पर बहस है. लेकिन भाजपा को मिली प्रचंड सफलता ऐसी बहसों को फैरी तौर पर विराम देने वाली है.
विपक्ष लोगों को राफेल, न्याय योजना और बिहार में चले संविधान बचाओ के नारे को समझाने में असफल रहा. तेजप्रताप से नेतृत्व छीनने वाले तेजस्वी के नेतृत्व का भी कोई असर नहीं रहा. लोकसभा के मामले में पार्टी राज्य से साफ हो गई. लालू यादव की कमी साफ नज़र आई और नतीजों के बाद एक बात तय है कि तेजस्वी का नेतृत्व राहुल की तरह सवालों के घेरे में आएगा. पहले से नेतृत्व के मामले में परिवारिक कलह में उल्झी पार्टी का भविष्य संकट में नज़र आता है.