संतकबीरनगर/गोरखपुर: इस चुनावी मौसम की गर्मी में नेताओं के कंधे पर गमछे आपने भी देखे होंगे लेकिन इन गमछों को तैयार करने वाले बुनकर इन नेताओं के वादों से ऊब चुके हैं. वह मौजूदा हालातों से बेहद दुखी हैं. पूर्वी उत्तर प्रदेश के संतकबीर नगर, गोरखपुर और वाराणसी जिले में लाखों की संख्या में बुनकर रहते हैं. इन बुनकरों का कहना है कि केंद्र व प्रदेश में भाजपा सरकार आने पर उनसे बड़े-बड़े वादे किए गए लेकिन पूरे नहीं हुए. वहीं नोटबंदी व जीएसटी ने उनका व्यापार भी ठप कर दिया.
2014 में केंद्र में मोदी और 2017 में प्रदेश में योगी सरकार आने के बाद वाराणसी, गोरखपुर व उसके आस-पास के जिलों के बुनकरों में उम्मीद जगी थी कि कम से कम इन इलाकों में तो व्यापार चमक उठेगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ. हथकरघा और पावरलूम उद्योग से जुड़े जिले के हजारों कामगारों को कम मजदूरी, रॉ-मटीरियल की कीमत अधिक होना, मार्केटिंग की सही व्यवस्था नहीं होने जैसी तमाम मुश्किलें आज भी बरकरार हैं.
पूरा गांव बुनकरों का, चुनावी माहौल में हैं परेशान
संतकबीर नगर के ब्रह्मचारी गांव में 90% बुनकर आबादी है. यहां के रहने वाले इमामुद्दीन बताते हैं कि पूर्वांचल में सबसे अधिक बुनकर खलीलाबाद (संतकबीरनगर) के ही हैं. गोरखपुर व वाराणसी में काम करने वाले भी कई बुनकर खलीलाबाद के रहने वाले हैं. इमामुद्दीन कहते हैं महंगाई व सरकार की उपेक्षा के कारण पिछले कुछ साल से लगातार उनका धंधा चौपट होता जा रहा है. किसी तरह दो वक्त की रोटी का इंतजाम होता है. ऐसा ही हाल रहा तो ये भी बंद हो जाएगा.
इसी गांव के बिलाल हसन ने बताया कि सूत (तागा) 800 रुपए प्रति बंडल से 1200 रुपए प्रति बंडल बिक रहा है. हर महीने ये महंगा होता जा रहा है. दूसरी ओर ज्यादा बिक्री भी नहीं हो रही. वह 40 साल से इस पेशे में हैं लेकिन ऐसा हाल पहले नहीं देखा.
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बिलाल के मुताबिक ‘सूत हमारी औकात से ज़्यादा महंगा हो गया. सरकार का सूत की महंगाई पर कोई नियंत्रण नहीं रहा. यहां की स्थानीय सूती मिलें खड़ी-खड़ी सड़ गईं
योगी के गढ़ में भी बुनकर बेहाल
गोरखधाम मंदिर के पास पुराना गोरखपुर मोहल्ला है. यहां के लोग बताते हैं कि किसी ज़माने में इस मोहल्ले में करीब 5 हज़ार कारखाने थे. अब 20-25 बचे हैं. यहां के निवासी तौफीक के मुताबिक गोरखपुर में करीब 30 हजार लोग हथकरघा या पावरलूम उद्योग से प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से जुड़े हुए हैं. बुनकरों को मजदूरी कम मिलने और उनके तैयार कपड़ों के लिए बाजार के सिकुड़ने का सिलसिला 1990 के दशक के आखिर से शुरू हुआ था और आगे यह बढ़ता ही गया.
हथकरघा उद्योग से जुड़े फिरोज कहते हैं, ‘कभी पुराने गोरखपुर इलाके में तीन लाख से अधिक बुनकर हुआ करते थे लेकिन संकट करीब 20-22 साल पहले उस वक्त शुरू हुआ जब चीन के लिए बाजार खोल दिया गया और ये सिलसिला आज भी जारी है. फिरोज के मुताबिक अब जो कपड़ा हम सौ रुपये की लागत से तैयार करते हैं, वही कपड़ा चीन 70-75 रुपये में बेच रहा है. हमारी लागत ज्यादा है. सरकार से तमाम वादे मिले लेकिन कुछ नहीं बदला.
बनारस के बुनकरों को अब अच्छे दिन की आस कम
पीएम मोदी के गढ़ वाराणसी में बुनकर उद्योग तकरीबन एक हजार करोड़ से अधिक का है लेकिन ये जानकर आपको हैरानी होगी कि इससे होने वाले फायदे में आम बुनकरों का हिस्सा बेहद मामूली है. इतना जिससे कि उन्हें घर चलाना भी मुश्किल होता है. बनारस के रहने वाले बुनकर मो.रिजवान कहते हैं कि सरकारें बुनकरों की भलाई के लिये कहती हैं और योजनाएं भी बनाती हैं, पर उनपर अमल नहीं हो पाता पैसे जारी होते हैं लेकिन बुनकरों तक नहीं पहुंचते. यहां के लोकल अखबारों में प्रकाशित रिपोर्ट भी यही दर्शाती हैं. लल्लापुरा के बुनकर इदरीस अंसारी एक अखबार से कहते हैं कि 1989 के दो फैसलों ने बुनकरों को बदहाली के कगार पर पहुंचा दिया. पहली थी पावरलूम के इस्तेमाल की इजाजत और दूसरी यूपी और यूपिका हैण्डलूम के जरिये बुनकरों का तैयार माल लेना बंद करना. इससे काफी नुकसान हुआ.
चुनाव में किस ओर रहेगा झुकाव
खलीलाबाद के बुनकर मोहम्मद हनीफ़ ने बताया कि बुनकर समाज की चुनाव में विशेष दिलचस्पी नहीं है लेकिन पिछले पांच साल में जिस तरह से उनके व्यापार पर असर पड़ा है वह मौजूदा सरकार से नाखुश हैं. हालांकि खलीलाबाद (संत कबीरनगर) में बुनकरों में कांग्रेस व महागठबंधन के बीच कन्फ्यूजन दिखा लेकिन गोरखपुर में अधिकतर बुनकरों का झुकाव महागठबंधन की ओर नजर आया. गोरखपुर के युवा बुनकर साक़िब का कहना था कि वोट डालना अधिकार है इसलिए वह वोट डालने जाएंगे. सरकार किसी की बने लेकिन बुनकरों की परेशानियों का कोई तुरंत समाधान दिखाई नहीं दे रहा है.