पटना: बिहार में चुनाव सिर्फ जाति, समुदाय, विकास, राष्ट्रीय सुरक्षा, भ्रष्टाचार या आरक्षण जैसे मुद्दों पर ही नहीं लड़ा जा रहा है.
कई वरिष्ठ नेता इस चुनाव को अपनी अंतिम चुनावी लड़ाई बताकर या फिर क्षेत्र विशेष से अपने लगाव को दर्शाने वाली पुरानी बातें छेड़कर मतदाताओं को भावनात्मक रूप से रिझाने का प्रयास कर रहे हैं.
इस तरह के चुनाव अभियान में शामिल नेताओं में लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के नेता रामविलास पासवान सबसे आगे रहे हैं. लोजपा प्रमुख हाजीपुर लोकसभा क्षेत्र के पर्यायवाची की तरह हैं. जहां से पहली बार 1977 में चुनाव लड़ने के बाद वह नौ बार निर्वाचित हो चुके हैं.
हालांकि, मौजूदा लोकसभा चुनाव में पासवान की भागीदारी एक उम्मीदवार के रूप में नहीं है. क्योंकि उन्होंने हाजीपुर सीट पर अपनी जगह अपने छोटे भाई पशुपति कुमार पारस को खड़ा किया है. वहां 6 मई को हुए मतदान से पहले अपने भाई के लिए वोट मांगते हुए पासवान ने हाजीपुर से अपने 40 साल के संबंधों की दुहाई दी.
अपने पुराने चुनाव क्षेत्र में 12 अप्रैल को एक रैली में पासवान ने कहा, ‘हाजीपुर मेरी मां की तरह है. आपने जब मुझे प्रतिनिधि चुना. तब मैं युवा था. आज मैं बूढ़ा हो चुका हूं और स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों के कारण चुनाव नहीं लड़ रहा हूं. पर मैं हाजीपुर के विकास के लिए काम करता रहूंगा और हाजीपुर का कोई भी आदमी मदद मांगने आता है तो मैं उसके लिए मौजूद रहूंगा.’
पासवान हाजीपुर के मतदाताओं से भावनात्मक तार जोड़ने का प्रयास ऐसे समय कर रहे थे. जब उनके भाई पारस के स्थानीय लोगों में ज्यादा लोकप्रिय नहीं होने की बातें सामने आ रही थीं.
लोजपा के एक वरिष्ठ नेता के अनुसार, ‘पारस में कमी जैसी कोई बात नहीं है. सिवाय ये कि रामविलास जी की बराबरी करना उनके लिए आसान नहीं है.’
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पासवान हाजीपुर से कुल 11 बार चुनाव लड़ चुके हैं, और सिर्फ 1984 और 2009 में उन्हें पराजय का मुंह देखना पड़ा था. पहली बार 1977 में उन्होंने अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी को 4.5 लाख से अधिक मतों से हराकर रिकॉर्ड कायम किया था. लोजपा प्रवक्ता मोहम्मद अशरफ के अनुसार, ‘विगत 42 वर्षों में हाजीपुर रामविलास पासवान का पर्यायवाची बन गया है. इस इलाके की हर बड़ी परियोजना के पीछे पासवान जी का हाथ है और उन्हें हर वर्ग का समर्थन प्राप्त है.’
नाम नहीं देने की शर्त पर लोजपा के एक नेता ने कहा कि पासवान चुनाव क्षेत्र में पड़ने वाले हर गांव के कम से कम पांच-छह लोगों को व्यक्तिगत रूप से जानते हैं. वहीं पारस चुनावी मौसम के अलावा और कभी मतदाताओं से मिलने की परवाह नहीं करते.
पार्टी के एक अन्य नेता ने कहा, ‘शुरू में पारस नाम लेते ही लोग बिदक जाते थे. ये तो पासवान जी के भावनात्मक भाषण का असर है कि विरोध का ये भाव बढ़ नहीं पाया.’ हालांकि ये तो 23 मई को परिणाम के ही दिन पता चलेगा कि विरोधभाव पर कितना काबू पाया जा सका.
सिर्फ पासवान ही नहीं
हालांकि भावनात्मक आधार पर चुनाव प्रचार चलाने वाले पासवान अकेले नेता नहीं हैं.
10 अप्रैल को, यानि मौजूदा लोकसभा चुनाव में मतदान शुरू होने से ठीक पहले, राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के प्रमुख लालू प्रसाद यादव ने ‘प्यारे बिहार वासियों’ के नाम दो पृष्ठों का भावनात्मक पत्र जारी किया. प्रसाद इस समय रांची में न्यायिक हिरासत में हैं.
बिहार के मतदाताओं से मोदी के खिलाफ वोट देने की अपील करते हुए उन्होंने लिखा, ‘यहां रांची के अस्पताल में अकेले में बैठकर मैं सोच रहा हूं कि क्या विध्वंसकारी शक्तियों ने तो मुझे कैद नहीं कराया है. कैद में मैं हूं, मेरे विचार नहीं.’ अपने पत्र में लालू ने आरक्षण जैसे मुद्दों को भी छेड़ा और चेतावनी दी कि मोदी के जीतने पर ‘समाज के दबे-कुचले लोगों का हाल 35 साल पहले जैसा हो जाएगा.’
लालू के पत्र के विषयों को तेजस्वी यादव राबड़ी देवी और मीसा भारती की जनसभाओं में दोहराया जा रहा है. राजद के एक विधायक ने कहा, ‘यह संदेश राजद समर्थकों को लक्षित है. इस आरोप को बारंबार दोहराते हुए कि वह किसी साज़िश के तहत जेल में बंद हैं.’ पर, विरोधी नेता लालू के पत्र को ‘भावनात्मक ब्लैकमेल’ की संज्ञा देते हैं.
बिहार के वरिष्ठ भाजपा नेता और उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने कहा, ‘सबको पता है कि लालू यादव चारा घोटाले में दोषी ठहराए जाने के कारण जेल में हैं. उनके खिलाफ मामले तब दर्ज किए गए थे जब हम सत्ता में थे भी नहीं. ये सहानुभूति हासिल करने की चाल है.’
पूर्वी चंपारण से पांच बार के भाजपा सांसद और केंद्रीय कृषि मंत्री राधामोहन सिंह अपने क्षेत्र के मतदाताओं को याद दिला रहे हैं कि ये उनका आखिरी लोकसभा चुनाव है. पूर्वी चंपारण में वोटिंग 12 मई को होगी.
बिहार में भाजपा के वरिष्ठ नेता ने इस बारे में कहा, ‘केंद्रीय मंत्री अभी करीब 70 साल के हैं और उन्हें पता है कि अगले चुनाव के समय वह उम्र के 75वें पड़ाव के पास होंगे, जिसके बाद पार्टी उन्हें टिकट नहीं देगी. लेकिन सांसद के रूप में उन्होंने अपने क्षेत्र का लंबे समय तक प्रतिनिधित्व किया है और वह जानते हैं कि इस तरह की घोषणा से मतदाताओं तक एक भावनात्मक संदेश पहुंचेगा.’
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राजद के दिग्गज नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह वैशाली सीट से चुनाव लड़ रहे हैं. यहां से पूर्व में वह 2014 में हारने तक लगातार पांच बार निर्वाचित हो चुके हैं. उन्होंने भी इस बार के चुनाव को अपना अंतिम चुनाव घोषित कर रखा है. वैशाली सीट पर 12 मई को वोट डाले जाएंगे.
पूर्व में गणित के प्रोफेसर रहे सिंह ने दिप्रिंट से कहा, ‘मैंने लंबी पारी खेली है और मैं समझता हूं अब मुझे अपनी पार्टी की युवा पीढ़ी को अवसर देना चाहिए.’ पिछले चुनाव में हारने के बाद सिंह ने अपने निर्वाचन क्षेत्र में अच्छा-खासा समय बिताया है, पर राजद के उच्च वर्ग के गरीबों को आरक्षण का विरोध के चलते उनके लिए स्थिति चुनौतीपूर्ण हो गई है. उनकी खुद की राजपूत जाति के मतदाता जाहिर तौर पर उनसे चिढ़े हुए हैं. राजद के एक विधायक ने स्वीकार किया, ‘रघुवंश बाबू को जीत के लिए अपनी खुद की जाति का समर्थन चाहिए. उनकी एक ईमानदार नेता की छवि है, पर इतना भर काफी नहीं है.’
वैसे, ये पहला मौका नहीं है जब बिहार में भावनात्मक मुद्दों पर चुनाव लड़े जा रहे हैं. 2014 में विरोधियों में भी चाचा तस्लीम के नाम से मशहूर मोहम्मद तस्लीमुद्दीन ने अररिया लोकसभा सीट से अपना अंतिम चुनाव लड़ने की घोषणा करते हुए मतदाताओं से विदाई वोट देने का अनुरोध किया था. मतदाताओं ने उनकी बात रखी और वह करीब डेढ़ लाख वोटों के अंतर से विजयी हुए. पर, कार्यकाल के बीच ही 2017 में उनका देहांत हो गया और फिर हुए उपचुनाव में जीत कर उनके पुत्र सरफराज़ आलम सांसद बने.
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