सुलतानपुर: एक जमाने में यूपी के सुलतानपुर जिले के बंधुआ कला गांव की पहचान पीतल व तांबे के बर्तनों से थी. यहां हर घर में बर्तन बनते थे. जो देश में कई जगह आर्डर से भेजे जाते थे. आज यहां बर्तन की खनक गायब है. सरकारों की उपेक्षा से यह उद्योग आज गुमनामी की कगार पर है. 70 प्रतिशत घरों में ताले लगे हैं. रोजगार की तलाश में लोगों ने दूसरे शहर का रुख कर लिया है.
कभी हर घर से आती थी बर्तन की खनक
सुलतानपुर-लखनऊ राजमार्ग पर स्थित बंधुआ कला गांव शहर से महज 8 किमी. दूर है. गांव में घुसते ही खाली पड़े मकान दिखने लगते हैं. आधे से ज्यादा घरों में ताले बंद हैं. यहां लोग बताते हैं कि कभी बंधुआ कला का ठठेरी बाजार मोहल्ले का हर घर कारखाने की शक्ल में था. यहां करीब 250 घरों में पीतल, तांबा, कांसा धातु के बटुआ, लोटा, परात से लेकर हर छोटे-मोटे बर्तन बनते थे. मुरादाबाद, रायबरेली, मिर्जापुर, लखनऊ, बाराबंकी, नेपाल से आए खरीदारों में बर्तनों को पाने की होड़ लगी रहती थी. लेकिन आज यहां सन्नाटा पसरा हुआ है.
सरकारें तमाम आईं लेकिन नहीं दिया ध्यान
पिछले 40 साल से इस व्यापार से जुड़े राधा कृष्ण बताते हैं कि सरकारों की उपेक्षा के कारण यहां का उद्योग बैठ गया. नब्बे के दशक में यहां व्यापारियों का जमावड़ा हुआ करता था. आज इक्का-दुक्का दिख जाएं तो बड़ी बात मानी जाती है. बर्तन बनाने वाले अजीत कुमार बताते हैं कि यहां के बर्तनों में बटुआ सबसे मशहूर माना जाता रहा. ये भगौने की तरह होता है. लेकिन आकार काफी बड़ा होता है. दूसरे शहरों से बटुआ के लिए विशेष आर्डर आते थे जो अब काफी कम हो गए हैं. बची हुई कसर जीएसटी और नोटबंदी ने पूरी कर दी. कई व्यापारी इससे हताश तो कुछ का कहना है कि नोटबंदी से कई साल पहले ही यहां का व्यापार ठप हो गया था.यहां के रहने वाले मंगलकुमार कहते हैं कि सिर्फ कारोबारी ही नहीं. बल्कि हजारों लोगों इस रोजगार से जुड़े थे. औद्योगिक क्षेत्रों की तरह सुबह शाम यहां मजदूर ही मजदूर दिखाई देते थे. दुकान, खोमचे व चाय की गुमटी चलाने वाले भी हजारों कमाते थे. अब सब बंद है.
बर्तन की नक्शी कर रहे मदन गोपाल बताते हैं कि इस समय प्लास्टिक और स्टील के बर्तनों की मांग ज्यादा है. जिस वजह से पीतल, तांबा आदि की मांग कम हो गई. शादी-ब्याह के सीजन में थोड़ा बहुत काम चल जाता है. वहीं सरकार की ओर से भी इस इलाके की काफी उपेक्षा की गई. किसी जनप्रतिनिधि ने भी यहां के बारे में नहीं सोचा.
पलायन कर चुके हैं दर्जनों परिवार
बंदुआ कला की आबादी 10 हजार से अधिक थी. लेकिन अब आधे से ज्यादा घरों में ताले लगे हैं. यहां के निवासी रूपेश बताते हैं कि धंधा खत्म होने लगा तो रोजी रोटी के भी लाले पड़ने लगे. हाथ में हुनर होने के बावजूद इन्हें भरण पोषण के लिए दूसरे जगहों पर पलायन करना पड़ा. अब तक दर्जनों परिवार यहां से लखनऊ, कानपुर, फैजाबाद, मुरादाबाद आदि जिलों में पलायन कर चुके हैं. जो बचे भी हैं. उनमें से अधिकतर ने दूसरा कारोबार शुरू कर लिया है. पुष्पा देवी बताती हैं कि उन्होंने अपने दोनों बच्चों को बाहर इसलिए भेजा. क्योंकि यहां रहते तो दो वक्त की रोटी भी मुश्किल हो जाती. अब बाहर रहकर कहीं किसी की दुकान पर काम करते हैं. वहां से पैसे भेजते हैं जिससे घर चलता है. उनके घर में पहले बर्तन बनाने का काम होता था जो अब बंद पड़ा है.
कोई जीते -हारे कोई फर्क नहीं
इस चुनाव को लेकर यहां के निवासियों में कोई खास दिलचस्पी नहीं. सुमित कौशल कहते हैं कि इस इलाके की कितनी उपेक्षा की गई है कि अब वोटिंग में कोई दिलचस्पी नहीं बची. लेकिन वह वोट डालने जाएंगे. मताधिकार का प्रयोग न करना भी कोई समाधान नहीं है. यहां से सांसद रहे संजय सिंह को स्थिति का अंदाजा है. वहीं मौजूदा उम्मीदवार मेनका गांधी व सोनू सिंह भी यहां के हालात जानते होंगे. तीनों चुनाव लड़ रहे हैं. लेकिन उनके भाषणों में इस गांव के मुद्दे नहीं हैं. गांव के बुजुर्ग राधे कृष्ण कहते हैं कि अमेठी, रायबरेली, बनारस की तरह सुलतानपुर भी वीआईपी सीट है. यहां चुनाव नेताओं के नाम पर लड़ा जा रहा है. असल मुद्दे पूरी तरह गायब है.