नई दिल्ली: प्रदूषण तेजी से बच्चों को अपनी गिरफ्त में ले रहा है. आज करीब स्कूल जाने वाले 20 फीसदी बच्चे प्रदूषण की वजह से अस्थमा की चपेट में आ रहे हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार दुनिया भर में 100 से 150 मिलियन लोग अस्थमा से पीड़ित हैं. भारत में, इसकी संख्या बढ़ते हुए 15-20 मिलियन तक पहुंच गई है और, अस्थमा को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने में मदद करने वाली सही दवा की पहचान के महत्व पर पर्याप्त जोर दिए जाने तक अस्थमा के मरीजों की बढ़ती रहेगी.
दुनिया भर में तेजी से बढ़ रहे प्रदूषण और हमारे बिगड़ते खान-पान से कई बीमारियां जन्म ले-लेती है. ऐसी ही एक बीमारी है अस्थमा. देश में सामान्य रूप से बच्चों और यातायात प्रदूषित शहरों में अस्थमा मरीजों की बढ़ती संख्या को लेकर लोगों में जागरूकता फैलाने के लिए हर साल मई महीने में विश्व अस्थमा दिवस मनाया जाता है.
अस्थमा की बढ़ती गंभीरता के कारणों के कई घटक हैं. उनमें हवा में पर्टिकुलेट कणों में वृद्धि के साथ वायु प्रदूषण का बढ़ना, धूम्रपान, बच्चों का गलत उपचार, बचपन में वायरल संक्रमण और हेल्थकेयर पेशेवरों के बीच जागरूकता बढ़ाना शामिल है.
अस्थमा से जुड़ी जानकारी देने के लिए प्रेस कांफ्रेस करते डॉ सेठी और डॉ अनंत | शुभम सिंह
भ्रांतियां
अस्थमा से जुड़ी हमारे समाज में कई भ्रांतियां हैं. जैसे इतना छोटा बच्चा है इसको नहीं हो सकता है. सिर्फ खांसता तो है. सांस फूलता नहीं. बहुत सारे पैरेंटस को लगता है जब तक यह बहुत भयंकर न हो जाए तब तक बीमारी नहीं है. ज्यादातर लोग यह भी मानते हैं कि यह केवल बूढ़ों की बीमारी है, बच्चों में यह नहीं होता है.
डॉ सेठी बताते हैं, ‘ वैसे तो इसका कोई कंफरमेट्री टेस्ट नहीं होता है लेकिन कफ अगर दस दिन से ज्यादा है तो ये अस्थमा है. और ये किसी को भी हो सकता है. बहुत सारे लोगों को लगता है एलर्जी है अस्थमा नहीं लेकिन सांस के रास्ते की एलर्जी को ही अस्थमा बोलते हैं. ’
कितना उचित है इनहेलर
अस्थमा के इलाज के लिए इनहेलर का प्रयोग किया जाता है. लेकिन लोगों के मन में इससे जुड़ी कई भ्रांतियां होती हैं.
डॉ अनंत मोहन बताते हैं, ‘इनहेलेशन थेरेपी से दवाओं को सीधे फेफेड़ों तक पहुंचाने में मदद मिलती है, जहां उनकी आवश्यकता होती है, इसलिए वे तेज, बेहतर ढ़ग से और बिना किसी साइड इफेक्ट के काम करती हैं. ये ब्रेन(दिमाग) और ब्लड (खून) में नहीं जाएगी.’
वे आगे कहते हैं, ‘इनहेलर दो तरह के होते हैं. एक रिलीवर और दूसरा कंट्रोलर. आमतौर पर लोग रिलीवर का प्रयोग करते हैं. जोकि गलत है. हमें कंट्रोलर इनहेलर का प्रयोग करना चाहिए. जोकि लंबे समय तक के लिए लाभदायक होता है. कोई सिंपटमस न हो तो भी हमें इसका प्रयोग करते रहना चाहिए.’
यह पूछने पर कि क्या इसकी आदत भविष्य के लिए कितना बेहतर है?
वे कहते हैं, ‘मैं पिछले 25 सालों से चश्मा लगा रहा हूं. तो इस बात के लिए क्या किसी को कोसा जाना चाहिए. ये इलाज का एक तरीका है. ये एकदम गलत बात है कि इनहेलर की आदत पड़ जाएगी और इससे हमारा नुकसान होगा.’
अस्थमा को संभालने के लिए एक और चुनौती यह है कि जब लक्षण कम हो जाते हैं तो दवा बंद कर दी जाती है. दुर्भागय से, इसकी वजह से बीमारी के बढ़ने और लक्षणों को भड़कने की संभावना बढ़ जाती है, जिससे बीमारी और बिगड़ सकती है. डॉक्टरों का सुझाव दिया कि इस तरह के कदम उठाने से पहले डॉक्टर से परामर्श करना चाहिए क्योंकि अस्थमा में लंबे इलाज की जरूरत पड़ती है.
भारत में इलाज सबसे सस्ता, लेकिन डेथ रेट सबसे ज्यादा
डॉ सेठी के अनुसार, ‘अस्थमा के कारण किसी की मौत नहीं होनी चाहिए. लेकिन इस बीमारी के कारण मरने वालों का संख्या में भारत पहले नंबर पर है. जितनी मौतें अस्थमा से पूरी दुनिया में होती हैं उसका 30 प्रतिशत अकेले केवल भारत में होती है.’
गौरतलब है कि अस्थमा का इलाज दुनिया भर में सबसे सस्ता भारत में है. डॉ सेठी के अनुसार भारत में अस्थमा का इलाज 6-7 रुपया प्रतिदिन है.
अस्थमा से बचे कैसे
वायु प्रदूषण से होनी वाली इस बीमारी के लिए गलत उपचार, धूम्रपान आदि जिम्मेदार हैं. प्रदूषण के कारण देश की राजधानी की हालत ऐसी है कि यहां हर किसी को मास्क पहन लेना चाहिए. इस पर अनंत मोहन कहते हैं, ‘आप अपना खान-पान, आदत आदि पर कंट्रोल कर सकते हैं लेकिन आपका नियंत्रण सभी चीजों पर नहीं हो सकता है. दिल्ली में अस्थमा से बचने के लिए एमसीडी के डस्टिंग कर्मचारी और कंस्ट्रकशन के कार्यों से जुड़े मजदूरों को मास्क का इस्तेमाल अवश्य करना चाहिए.’