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Saturday, 16 November, 2024
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एंकर्स की लिस्ट जारी करने से पहले विपक्ष को एक बार सोचना चाहिए था, क्या इससे उनका राजनीतिक मकसद पूरा होगा

विपक्षी गठबंधन को पूरा ‘अधिकार’ है कि वह किसका बायकॉट करे. वह अपने नेताओं, सदस्यों और प्रवक्ताओं को कुछ टीवी शो में जाने से मना कर सकता है लेकिन जब वे इन एंकरों के नाम और उनकी सूची जारी करते हैं तब यह मामला विवादास्पद हो जाता है

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विपक्षी दलों के गठबंधन ‘इंडिया’ ने टीवी समाचार चैनलों के 14 प्रमुख एंकरों पर “पक्षपात करने और नफरत फैलाने” के आरोप लगाकर उनके बायकॉट की जो घोषणा की है उसे क्या एक जोरदार फैसला माना जा सकता है? या यह एक ऐसा गलत कदम है जिसका बचाव नहीं किया जा सकता? या यह गुस्से में चलाया गया तीर है, चाहे इसके लिए कोई सफाई क्यों न दी जा रही हो? इससे विपक्षी खेमे को फायदा होगा या भाजपा को?

इन, तथा ऐसे कई सवालों का पहला जवाब तो यह सवाल ही हो सकता है कि पत्रकार किसे कहेंगे? आज पत्रकार की परिभाषा क्या है? और यह फैसला कौन कर सकता है कि कोई शख्स वास्तव में पत्रकार है या नहीं?

यह सब उपरोक्त टीवी एंकरों पर कोई टिप्पणी करने के लिए नहीं कहा जा रहा है. जहां तक मेरी बात है, मैं उन भारतीय लोगों में ही हूं जिनकी संख्या बढ़ती जा रही है और जो इन दिनों टीवी चैनलों पर प्राइमटाइम में होने वाली ‘डिबेट’ (बहस) को खबर में शुमार नहीं करते. फिर भी कई लोग इसे देखते हैं. कुछ लोग यह देखना पसंद करते हैं कि उनके पसंदीदा एंकर ‘दूसरे’ खेमे के मेहमानों की, जिन्हें वे नापसंद करते हैं, किस तरह फजीहत करते हैं. कुछ लोग इसलिए देखते हैं कि रोज-रोज होने वाली यह तू-तू, मैं-मैं उनके लिए एक नशा बन गया है. लेकिन बाकी ज़्यादातर लोग इसे शुद्ध मनोरंजन के लिए ही देखते हैं.

टीवी डिबेट के इस भारतीय स्वरूप ने पत्रकारिता का जितना नुकसान किया है उतना राजनीतिक दलों और नेताओं ने भी नहीं किया है. आज हम ऐसे मुकाम पर पहुंच गए हैं जब सबसे समृद्ध मीडिया ग्रुप भी खबरों की पड़ताल करने के लिए पत्रकारों को मैदान में नहीं भेजते, समाचार बुलेटिन लापता हो गए हैं, टीवी शो पर कोई संपादक की भूमिका नहीं निभाता क्योंकि ‘स्टार’ एंकर खुद ही अपने संपादक होते हैं. ऐसे में कौन उनसे यह कहने की हिम्मत कर सकता है कि ‘बॉस, यह ठीक नहीं है’ या ‘यह गलत है’. उन्हें यह कहना तो भूल ही जाइए कि अमुक चीज सही है या नहीं. यह काम तो एक पारंपरिक न्यूजरूम में एक संपादक का ही होता है. टीवी न्यूज़ चैनलों में यह व्यवस्था पिछले दो दशकों में लगभग लुप्त हो चुकी है.

किसी भी न्यूज़ रूम में सबसे खतरनाक बात यही हो सकती है कि उसकी सबसे प्रमुख सामग्री तैयार करने वाले खुद ही उसके संपादक बन बैठें. न्यूज़ टीवी चैनलों में आज यही सामान्य बात बन गई है. इसीलिए आज हर एक शो अमुक-अमुक चैनल का शो नहीं बल्कि अमुक-अमुक एंकर का शो बन गया है. शायद इसीलिए ‘इंडिया’ गठबंधन एंकरों का नाम लेकर उनका बायकॉट कर रहा है, उनके चैनल के मालिकों का या चैनलों का नहीं.

यह पत्रकारिता का अति-वैयक्तीकरण है, जिसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार स्टार एंकरों और टीवी चैनलों के मालिकों को ठहराया जा सकता है, जो संपादक विहीन न्यूज़ रूम चला रहे हैं. यह फैसला उन्हीं का है. उन्हें मशहूरियत और ताकत मिलती है, और उन पर व्यक्तिगत हमले भी किए जाते हैं.

ऐसा नहीं है कि ‘इंडिया’ ने बायकॉट की घोषणा करके पहला पत्थर उछाला है. भाजपा हमेशा यह करती रही है, लेकिन अधिक चतुराई और खामोशी से. उसके दिग्गज कई मौकों पर इस या उस चैनल के बायकॉट की घोषणा ट्विटर पर करते रहे हैं. ‘एनडीटीवी’ के मामले में तो इसकी औपचारिक घोषणा ही की गई थी. फर्क सिर्फ इतना था कि भाजपा यह सब बड़ी सफाई के साथ करती रही है. खबरें बनाने वाले सभी लोग निषेध या स्वागत के हथियार का इस्तेमाल करते रहे हैं. और यह केवल राजनीतिक नेता नहीं करते हैं, फिल्मों और खेल जगत के सितारे, कॉर्पोरेट लीडर और कभी-कभी सिविल सोसाइटी के कार्यकर्ता भी इस हथियार का इस्तेमाल करते हैं.


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हम पत्रकार लोग कभी इसका समर्थन नहीं करते. सबसे बेहतर तो वही स्थिति हो सकती है कि खबरें बनाने वाले सभी लोग, चाहे वे सत्ता पक्ष के हों या विपक्ष के, सभी पत्रकारों के लिए अपने दरवाजे खुले रखें. लेकिन यह दुनिया इतनी अच्छी नहीं है, और वह हमारी ख़्वाहिशों के मुताबिक नहीं बदल सकती.

इसलिए हमें यह मान लेना चाहिए कि विपक्षी गठबंधन को पूरा ‘अधिकार’ है कि वह किसका बायकॉट करे. वह अपने नेताओं, सदस्यों और प्रवक्ताओं को कुछ टीवी शो में जाने से मना कर सकता है. लेकिन जब वे इन एंकरों के नाम और उनकी सूची जारी करते हैं तब यह मामला विवादास्पद हो जाता है. ऐसी बातों का नतीजा अच्छा नहीं होता.

यह व्यक्ति को सीधा निशाना बनाने जैसा है. कल को ‘दूसरा’ पक्ष या कई ‘दूसरे’ पक्ष भी ऐसा ही कुछ करने लगें तो उन्हें कौन रोकेगा? और तब क्या होगा जब दूसरा पक्ष अपनी प्रेस विज्ञप्तियों में ऐसी सूची जारी करने से आगे बढ़कर कुछ कर बैठे?

क्या होगा जब वे बेहतर ‘प्रचार’ के लिए अपने-अपने राज्य में उनके होर्डिंग लगाने लगें? क्या होगा जब कोई ‘दूसरा पक्ष’ यह सब करने के साथ यह दावा करने लगे कि वह इन लोगों का इसलिए बहिष्कार कर रहा है क्योंकि ये चोर, ठग, राष्ट्र विरोधी हैं? जब आप मूर्खता करने पर उतारू हो जाते हैं तब उसकी कोई सीमा नहीं होती. इस सिद्धांत को हमेशा याद रखें जिसे हम अक्सर दोहराते हैं, कि जानबूझकर कभी कोई गलत रिवाज़ मत शुरू करो. यह दूसरों की जवाबी कार्रवाई को जायज़ ठहराता है. और यह इस बात की पूरी गारंटी होती है कि दूसरा जो कार्रवाई करेगा वह और भी बुरी होगी.

इसलिए, सवाल यह नहीं है कि ये एंकर अच्छे पत्रकार हैं या बुरे, कि ये नफरत फैलाने वाले हैं या सच्चे राष्ट्रवादी, भाजपा समर्थक हैं या बाजार व्यवस्था के दोस्त. इन सवालों के जवाब इस तरह की सूची जारी करने के विवेक तक ही सीमित हो सकते हैं. क्योंकि यह मान कर चलिए कि आपकी सूची पहली सूची भले हो, आखिरी नहीं रहने वाली है.

पत्रकार किसे कहेंगे, पत्रकारिता क्या है, अच्छा क्या है, बुरा क्या है, ये सब बहस के शाश्वत विषय हैं. अच्छी बात यह है कि आज भी हम इन सवालों पर बड़ी जोश के साथ बहस करते रहते हैं. लेकिन एक बात है जिस पर कोई विवाद नहीं है, वह यह कि ऐसी कोई सरकार नहीं है, चाहे किसी भी दल की हो, जो पत्रकारों के खिलाफ सत्ता का दुरुपयोग नहीं करती.

कुछ सरकारें कम जाहिर तरीके अपनाती हैं, जैसे उनको सरकारी विज्ञापन देने से मना करना जो ‘अनुकूल नहीं’ हैं. इसका क्या मतलब है, यह आप भी जानते हैं और हम भी. इस मामले में सभी दल एक जैसे हैं. इसके साथ ही जुड़ा है किसी के लिए अपने दरवाजे खोलना या किसी के लिए बंद करना. इस मामले में भी सभी दल एक जैसे हैं. तीसरी और सबसे खतरनाक बात कानून, पुलिस और ‘एजेंसियों’ का दुरुपयोग है.

हम भाजपा सरकार की ज़्यादतियों को तो गिनाते रहते हैं लेकिन दूसरे दल भी ज्यादा पाक-साफ होने का दावा नहीं कर सकते. सबसे ताजा उदाहरण ममता बनर्जी की सरकार का है, जिसने ‘एबीपी न्यूज’ के पत्रकार देबमाल्या बागची को गिरफ्तार करवाया. प्रायः हर एक राज्य सरकार के नाम ऐसे उदाहरण दर्ज हैं. देशद्रोह से लेकर कानून-व्यवस्था को खतरा जैसे फर्जी आरोपों में पत्रकारों के खिलाफ पुलिस केस दर्ज करना आज राज्य सरकारों की सामान्य प्रक्रिया (स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीज़र) बन गई है.

सवाल यह है कि ऐसे माहौल में ‘इंडिया’ तटस्थ जनमत को यह कैसे भरोसा दिलाएगा कि वह भाजपा से भिन्न है, जबकि वह भाजपा पर सांप्रदायिकता, मनमानी और फ़ासिज़म तक का सहारा लेने के आरोप लगाता रहा है? वह जिसे भाजपा की संकीर्ण कट्टरता कहता रहा है, उसके विपरीत उदारवाद का प्रस्ताव वह अपनी ब्रांडिंग के रूप में करता है. लेकिन अस्वीकृत एंकरों की जो सूची उसने जारी की है वह उसके इस दावे को मजबूत नहीं करती.

एक बार फिर स्पष्ट कर दूं कि यह सब कहने का अर्थ यह नहीं है कि हम उनकी ‘पत्रकारिता’ का समर्थन करते हैं. यह एक तथ्य है कि नफरत हमारे कई टीवी चैनलों पर हावी है. नफरत बिकाऊ है और यह टीआरपी/बिक्री बढ़ाती है. यह बात मामले को और खराब करती है. लोकतंत्र की मांग है कि नफरत, नफरत फैलाने और उसे लोकप्रिय बनाने की कोशिशों से लड़ा जाए. यह लड़ाई सार्वजनिक तथा राजनीतिक मंचों पर विचारों तथा विचारधाराओं की दुनिया में लड़ी जानी चाहिए, न कि (जिसे मैं फिर दोहराऊंगा) कुछ लोगों को निशाना बनाकर.

भारत जोड़ो यात्रा के बाद से राहुल गांधी अपनी पार्टी (और इसके नेतृत्व में संगठित ‘इंडिया’) को “मोहब्बत की दुकान” के रूप में पेश करने में जुटे हैं. 2014 के चुनाव की तैयारियों के दौरान उन्होंने अर्णब गोस्वामी को दिए विस्तृत इंटरव्यू में कहा था कि वे अपने सबसे बड़े आलोचक की ओर हाथ बढ़ाना और उसके सवालों का सामना करना चाहते हैं. लेकिन आज उनकी पार्टी कह रही है कि वह इसका ठीक उल्टा करेगी.

तब वे सही थे या आज उनकी पार्टी और सहयोगी ज्यादा बुद्धिमान हैं, इस सवाल पर उन्हें अपने बीच बहस करने की जरूरत है. हम तो सिर्फ यही कह सकते हैं कि यह “मोहब्बत की दुकान” वाले उनके प्रस्ताव के साथ मेल नहीं खाता. यह उनके राजनीतिक या नैतिक मकसद को हासिल करने में मदद नहीं कर सकता. उन्हें अपने लोगों को इन चैनलों में जाने से मना करने के लिए सिर्फ आंतरिक निर्देश देने की जरूरत थी. लेकिन उन्होंने इसे सार्वजनिक तमाशा बनाने का फैसला किया. अफसोस की बात यह है कि ऐसा करने से इन 14 की ‘पत्रकारिता’ के स्वरूप और स्तर में कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है.

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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