ऑनलाइन एडुकेशन प्लेटफॉर्म अनएकेडमी से टीचर करन सांगवान को हटाए जाने के मसले ने कई तरह के विवादों को जन्म दिया है. इन विवादों का संबंध शिक्षकों के क्लासरूम में आचरण, उनके पढ़ाए और बोले जाने की सीमाओं, शिक्षा, नेतृत्व, लोकतंत्र के संबंधों और ऐसे मामलों में कंपनी द्वारा कर्मचारी या कॉन्ट्रेक्ट वर्कर को निकालने के अधिकार और निकाले गए व्यक्ति के कानूनी अधिकार से है. ये ऐसे सवाल हैं जो बेशक करन सांगवान-अनएकेडमी विवादों से सामने आए हैं, पर ऐसे विवाद आगे भी होते रहेंगे, इसलिए इसे एक परिघटना के तौर पर देखे जाने की जरूरत है.
चूंकि शिक्षा अब गुरुकुल और मदरसों से आगे निकलकर यूनिवर्सिटी सिस्टम से होते हुए ऑनलाइन शिक्षा तक पहुंच गई है, ऐसे में ज्यादा से ज्यादा छात्रों को लुभाने के लिए टीचर तरह-तरह के कार्य करेंगे. यानी ऐसे विवाद अभी बढ़ने वाले हैं. ऑनलाइन क्लास में ऐसे टीचर के सामने सवाल पूछने वाले या ये कहने कहने वाले स्टूडेंट नहीं होंगे कि आप गलत पढ़ा रहे हैं या आप जो पढ़ा रहे हैं, उसका दूसरा सत्य ये है, तो इन टीचर के बेगलाम होने का खतरा भी ज्यादा है.
दूसरा महत्वपूर्ण पहलू ये है कि ऐसे वीडियो को सिर्फ स्टूडेंट्स नहीं देखते हैं. ये यूट्यूब जैसे सार्वजनिक प्लेटफॉर्म पर होते हैं. इसलिए आम जनता भी इससे प्रभावित होती है और कुछ बयान तो कभी भी वायरल हो सकते हैं.
करन सांगवान अनएकेडमी में लॉ का कोर्स पढ़ाते थे, जिनकी ऑनलाइन क्लास में ज्यादातर वे लोग जुड़े होते थे, जो प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी करते हैं. करन सांगवान का अपना यूट्यूब चैनल भी है, जिसमें एक वीडियो के अंत में वे कहते हैं कि “एक चीज याद रखना, अगली बार जब भी वोट दो, किसी पढ़े लिखे इंसान को अपना वोट देना, ताकि यह सब दोबारा जीवन में न झेलना पड़े, ऐसे इंसान को चुने, जो पढ़ा लिखा हो, जो चीजों को समझ सके, ऐसे इंसान को ना चुने, जिसे सिर्फ बदलना आता हो, नाम बदलना आता हो.”
ऐसे तो ये बेहद सामान्य सा और निर्दोष बयान लगता है, लेकिन एक शिक्षक द्वारा इसे कहे जाने के कारण जो विवाद मचा, उसकी ब्योरेवार पड़ताल जरूरी है. जब इस बयान या कथन को लेकर ऑनलाइन विवाद बढ़ा तो अनएकेडमी ने करन सांगवान को शिक्षक से हटा दिया और उसके सारे वीडियो डिलीट कर दिए. इस कदम का समर्थन करते हुए अनएकेडमी के संस्थापक रोमन सैनी ने ट्वीट करके कहा कि क्लासरूम ऐसी जगह है जहां निष्पक्ष होकर शिक्षा दी जानी चाहिए. सैनी का कहना है कि क्लासरूम निजी राय रखने की जगह नहीं है. खासकर इसलिए क्योंकि टीचर्स की स्टूडेंट्स पर काफी असर होता है.
We are an education platform that is deeply committed to imparting quality education. To do this we have in place a strict Code of Conduct for all our educators with the intention of ensuring that our learners have access to unbiased knowledge.
Our learners are at the centre of…
— Roman Saini (@RomanSaini) August 17, 2023
इस सोच का आधार यह मान्यता है कि शिक्षक का कर्तव्य छात्रों का परिचय तमाम विचारों से कराने का है और उसे चाहिए कि वह फैसला लेने का प्रश्न स्टूडेंट्स के विवेक पर छोड़ दे.
इस लेख में हम तीन पहलुओं के आधार पर इस बात पर विचार करेंगे कि करन सांगवान को निकालने का अनएकेडमी का फैसला सही था या गलत. यहां एक स्पष्टीकरण देना आवश्यक है कि करन सांगवान का वह कथन संविधान की मर्यादाओं के तहत है और विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में आता है, अनुच्छेद 19(2) के निषधों में ये कथन नहीं आता.
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कोड ऑफ कंडक्ट और निष्पक्षता का पालन
अनएकेडमी एक प्राइवेट कंपनी है और वह अपने कोड ऑफ कंडक्ट से चलती है. उसके कोड ऑफ कंडक्ट उस पर और उससे जुड़े लोगों पर तब तक प्रभावी होंगे, जब तक ये कोड कानून और संविधान की मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं करते.
सांगवान अपने बयान या कथन में जिस विचार को आगे बढ़ा रहे थे, वह एक राजनीतिक विचार है और इस विचार पर – यानी कि क्या पढ़े लिखे लोग बेहतर शासन चला सकते हैं- पिछले दो हजार साल से भी ज्यादा समय से बहसें चल रही है. मतदान और चुने जाने के अधिकार और क्या शिक्षित लोग बेहतर नेतृत्व दे सकते हैं, जैसे प्रश्न राजनीति विज्ञान के महत्वपूर्ण प्रश्न हैं. इसलिए करन सांगवान का ये कहना गलत है कि चूंकि इस कथन में उन्होंने किसी नेता का नाम नहीं लिया, इसलिए ये अराजनीतिक बयान है. वैसे भी किसी शब्द या वाक्य का अर्थ उसके संदर्भों में ही समझा जा सकता है. इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता है कि नेताओं की शिक्षा और डिग्री को लेकर इस समय कई राजनीतिक दल सवाल उठा रहे हैं. तब एक शिक्षक का ये कहना अराजनीतिक नहीं माना जाएगा कि – अगली बार पढ़े लिखे नेता को चुनना.
इस बयान को राजनीतिक और विवादास्पद मानकर अनएकेडमी ने करन सांगवान को हटाने का फैसला लिया तो इसमें कंपनी ने किसी कानून या मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया है. बेशक कोई कह सकता है कि ये सजा दोष के हिसाब से ज्यादा सख्त और कड़ी है. पर ये कंपनी पर है कि वह किस तरह से कार्रवाई करती है. सजा हल्की होने की मांग और कामना की जा सकती है, पर इसे कानूनी आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती. ये गौरतलब है कि इस मामले को करन सांगवान भी कोर्ट में नहीं ले जा रहे हैं. वे कानून के शिक्षक हैं और सोच समझकर ही कोर्ट नहीं जा रहे है.
ये भी ध्यान रखना होगा कि कानून की उस क्लास में करन सांगवान मताधिकार और चुने जाने का अधिकार नहीं पढ़ा रहे थे. वे केंद्र सरकार द्वारा अपराधों से संबंधित तीन कानूनों में संशोधन का विषय पढ़ा रहे थे और बिना किसी संदर्भ के उन्होंने एक राजनीतिक बयान दे दिया. उन्होंने लोकतंत्र और चुनाव पर प्लेटो से लेकर यूरोपीय लोकतंत्र में मताधिकार और चुने जाने के अधिकार की बहस, अमेरिका में अश्वेत नागरिकों की चुनाव प्रकिया में हिस्सेदारी, भारत में इस संदर्भ में चली लंबी बहस, संविधान सभा की चर्चा और जन प्रतिनिधित्व कानून का संदर्भ नहीं समझाया. इसलिए माना जाना चाहिए कि वे छात्रों के मन में एक खास राजनीतिक विचार को डालने की कोशिश कर रहे थे, क्योंकि वे सोच उनकी थी.
ये भी महत्वपूर्ण है कि जब वे अपने यूट्यूब चैनल के लिए वीडियो बना रहे थे तो अनएकेडमी की टी-शर्ट पहनना उचित था या नहीं. किसी भी कंपनी के पास अपने ब्रांड की रक्षा करने का अधिकार तो होता ही है.
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शिक्षा, नेतृत्व और लोकतंत्र
अब उस कथन के अर्थ और असर पर विचार करते हैं, जो करन सांगवान ने दिया. ऐसे तो सुनने में अच्छा लगता है कि नेताओं को उच्च शिक्षित होना चाहिए. लेकिन ये विचार लोकतंत्र को बहुत पीछे ले जाता है, जब सिर्फ पढ़े-लिखे, जमीन के मालिक और अमीर लोग ही चुनाव प्रक्रिया में शामिल हो सकते थे. नगर राज्यों के लिए प्लेटो ने दार्शनिक राजा को चुनने की वकालत की थी. लेकिन लोकतंत्र उस सीमित दायरे से बहुत आगे बढ़ चुका है.
आधुनिक लोकतंत्र का लगभग सर्वमान्य सिद्धांत है कि सभी नागरिकों को एक खास उम्र के बाद वोट देने और चुने जाने का अधिकार है. इसमें जो भी मर्यादाएं हैं वह संसद और अदालतों से आती हैं. लेकिन कोशिश यही होती है कि अधिकतम लोग लोकतंत्र का हिस्सा बनें. मिसाल के तौर पर अगर निर्वाचित होने के लिए ग्रेजुएट की शर्त लगा दी जाए तो भारत की 90 प्रतिशत तक जनता चुने जाने के अधिकार से वंचित हो जाएगी और लोकतंत्र और चुनाव में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं रह जाएगी! इससे लोकतंत्र कितना कमजोर हो जाएगा, ये कल्पना की जा सकती है.
ऐसे भी शिक्षा और डिग्री किसी व्यक्ति के अंदर समझ, करुणा, सहानुभूति, लोक कल्याण, राष्ट्रहित जैसे विचारों के होने की गारंटी नहीं है. एक पढ़ा-लिखा आदमी अपने अंदर तमाम तरह की बुराइयां समेटे हो सकता हैं, वहीं एक कम पढ़े-लिखे व्यक्ति में लोकहित की भावना हो सकती है और वह देश और समाज के हित में सही फैसले लेने में समर्थ और सक्षम हो सकता है. भारत में ही हमने कई ऐसे नेता देखे हैं, जिन्होंने कम शिक्षा के बावजूद लोक कल्याण के बड़े काम किए. उन नेताओं में तमिलनाडु के तीन मुख्यमंत्रियों- के कामराज, एम करुणानिधि और जे. जयललिता शामिल हैं. उन्होंने तमिलनाडु पर लंबे समय तक शासन किया और आज तमिलनाडु देश के अग्रणी राज्यों में है.
आजादी से पहले तक भारत में भी सबको वोट देने या चुने जाने का अधिकार नहीं था. गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1835 के लागू होने के बाद से ही राजनीतिक प्रक्रिया में हिस्सा लेने के लिए संपत्ति और शिक्षा की शर्त थी. संविधान सभा ने इस शर्त हो हटा दिया और नए गणराज्य में हर किसी को राजनीतिक और चुनाव प्रक्रिया में हिस्सेदार बना दिया. संविधान सभा में के.टी. शाह ने इस मामले में शिक्षा की शर्त जोड़ने के लिए संशोधन लाया था, पर उसे संविधान सभा ने खारिज कर दिया. ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन डॉ. आंबेडकर ने व्यवस्था दी कि ये मामला आगे चल कर संसद तय करे.
संसद ने संविधान सभा में बनी सहमति को बनाए रखा.
डॉ. आंबेडकर ने लोकतंत्र को अमीर या शिक्षित लोगों तक सीमित रखने का पहले भी विरोध किया था और इस मामले में उनके विचारों में निरंतरता थी. साउथबरो कमेटी के सामने उन्होंने ये सुझाव दिया था कि चुनाव प्रक्रिया में शामिल होने के लिए रखी गई संपत्ति और शिक्षा की शर्तों को ढीला किया जाए ताकि ज्यादा लोग राजनीतिक प्रक्रिया में शामिल हो सकें. इसके बाद साइमन कमीशन में दिए गए अपने मेमोरेंडम में भी उन्होंने यही विचार रखे. यहां उन्होंने विस्तार से लिखा कि कोई जनप्रतिनिधि अनुभवी और ज्ञानी हो सकता है लेकिन अगर उसमें सामाजिक बुराइयों से लड़ने की नीयत न हो, तो ऐसे प्रतिनिधि का कोई फायदा नहीं होगा. उन्होंने लिखा कि ऐसे नेता सामाजिक मामलों में बड़ी बातें कर सकते हैं पर वे स्वार्थी हो सकते हैं. अपने चर्चित आलेख राणाडे, गांधी और जिन्ना में भी उन्होंने महान नेताओं के लिए नैतिकता को बहुत जरूरी बताया.
नेताओं का शिक्षित होना बनाम शिक्षित नेता की छवि
शिक्षित नेता का मामला सिर्फ उनके शिक्षित होने या डिग्री पा लेने का नहीं है. जिन नेताओं को कम शिक्षित और उजड्ड माना जाता है उनमें से कई न सिर्फ ग्रेजुएट, लॉ ग्रेजुएट बल्कि पोस्ट ग्रेजुएट भी हैं. दरअसल छवि कई बार वास्तविकता से उलट होती है. नेताओं की छवि इस बात से भी तय होती है कि समाज का जो प्रभावशाली विचार है या जो प्रभावशाली लोग हैं, उनके प्रति नेता और उसकी राजनीति का नजरिया कैसा है. अगर नेता प्रभावशाली विचार के खिलाफ प्रतिरोधी विचार का है तो उसकी छवि शिक्षित होने के बावजूद अशिक्षित की बना दी जाती है. इसके सबसे बड़े उदाहरण लालू प्रसाद हैं जो बीए, एलएलबी और एमए हैं पर उनकी छवि गंवारू नेता की है.
समस्या ये भी है कि जब वे कुछ गंवारू जैसा करते हैं, तभी मीडिया उनको रिपोर्ट करता है. मीडिया का अटेंशन पाने के लिए नेता भी वही करने लगते हैं, जो मीडिया उनसे चाहता है. मीडिया में बने रहना उनकी मजबूरी होती है और मीडिया प्रभावशाली समुदायों के हाथ में है. ये समस्या केंद्रीय समाज कल्याण राज्य मंत्री रामदास अठावले के साथ भी है, जो उच्च शिक्षित हैं, पर वे एक मजाकिया नेता की छवि ढोते हैं. इसके अलावा उनके पास ऐसा कोई मौका नहीं होता, जब मीडिया उनको रिपोर्ट करे.
वहीं इलीट परिवारों के नेता अपनी उच्च शिक्षित होने की छवि को लगातार मजबूत कर पाते हैं. वे विदेश की यूनिवर्सिटी के किसी एसोसिएशन के समारोह में भाषण देकर ये इमेज बनाते हो कि विदेशी यूनिवर्सिटी उन्हें बुलाती है. परिवार से मिली इंग्लिश बोलने का कला उनको शिक्षित बताने के लिए काफी है.
(दिलीप मंडल इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व मैनेजिंग एडिटर हैं, और उन्होंने मीडिया और समाजशास्त्र पर किताबें लिखी हैं. उनका एक्स हैंडल @Profdilipmandal है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादनः अलमिना खातून)
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