न सिर्फ देश बल्कि उसके लोकतंत्र और संविधान के भविष्य के भी मद्देनजर निर्णायक बताये जा रहे इस लोकसभा चुनाव के सिलसिले में यह समझना बेहद कठिन है कि उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी के प्रतिद्वंद्वियों ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को उनके निर्वाचन क्षेत्र में इस तरह ‘अभय’ करने का रास्ता क्यों चुना?
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की मानें तो उन्होंने अपनी पार्टी की महासचिव प्रियंका गांधी को, मोदी से दो-दो हाथ करने की उनकी इच्छा और उसे लेकर कांग्रेस कार्यकर्ताओं में व्याप्त उत्साह के बावजूद, इसलिए मना कर दिया क्योंकि कांग्रेस अपने इतिहास में कभी भी बड़े विपक्षी नेताओं को ‘जबरन’ हराने के चक्कर में नहीं पड़ी. इसके लिए डॉ. राममनोहर लोहिया के प्रति जवाहरलाल नेहरू और अटल बिहारी वाजपेयी के प्रति श्रीमती इंदिरा गांधी के संवेदनशील रवैये का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि ‘पार्टी का मानना रहा है कि बड़े विपक्षी नेताओं से महरूम लोकसभा देश के हित में नहीं होगी, क्योंकि इससे उनके साथ लोकतांत्रिक बहस-मुबाहिसे की राह अवरुद्ध होकर रह जायेगी.’ उन्होंने प्रियंका का यह तर्क भी स्वीकार नहीं किया कि मोदी डॉ. लोहिया या अटल नहीं हैं. यह भी नहीं माना कि आज के वर्चस्ववादी-पूंजीवादी लोकतंत्र में इस मान्यता को लागू करने का सिर्फ एक अर्थ लगाया जायेगा-यह कि कांग्रेस ने मोदी के खिलाफ हथियार डाल दिये हैं.
बहरहाल, चुनावी गहमागहमी के बीच हो सकता है कि राहुल याद न रख पाये हों कि 1984 उनके पिता राजीव गांधी इलाहाबाद में उन दिनों के दिग्गज विपक्षी नेता हेमवती नंदन बहुगुणा को हराने पर इस कदर आमादा थे कि उनकी टक्कर का कोई राजनीतिक महारथी नहीं मिला तो उन्हें अमिताभ बच्चन से विषम युद्ध में भिड़ाकर धूल-धूसरित कर दिया था.
लेकिन ताज्जुब है कि समाजवादी और बहुजन समाज पार्टियों के उस गठबंधन को भी मोदी के खिलाफ कोई ‘राजनारायण’ नहीं ही मिल पाया और उसने भी पहले उनके सामने एक अनाम-सी प्रत्याशी खड़ी करके प्रतीकात्मक चुनौती की राह पकड़ ली, फिर भूल सुधार सा करते हुए हरियाणा के बीएसएफ के बहुचर्चित बर्खास्त जवान तेजबहादुर यादव को टिकट पकड़ा दिया.
यह भी पढ़ें: मादरेवतन गमगीन न हो, दिन अच्छे आने वाले हैं, पाजियों और मक्कारों को हम सबक सिखाने वाले हैं!
जहां तक तेज बहादुर यादव की बात है, वे 2017 में बीएसएफ जवानों को दिये जा रहे भोजन की गुणवत्ता पर सवाल उठाने के ‘कुसूर’ में बर्खास्त किये जाने के बाद से ही मोदी को चुनौती देने का सपना देख रहे थे. पीड़ित जवानों की ओर से अपने प्रतिरोध को सामूहिक बनाने के उद्देश्य से भाजपाविरोधी दलों का समर्थन पाने के लिए उन्होंने कई दरवाजे खटखटाये, लेकिन आम आदमी पार्टी को छोड़कर किसी ने भी उन्हें समय रहते समर्थन नहीं दिया. उस समाजवादी पार्टी ने भी नहीं, जिसने अपने घोषणा पत्र में अहीर रेजीमेंट बनाने का वादा कर रखा है.
अब आखिरी क्षणों में सपा के उनके प्रति उमड़े मोह को हजारों जवानों के भी साथ होने के उनके दावे से जोड़कर देखें तो उसका इतना ही फायदा हो सकता है कि वे थोड़ा ज्यादा चुनावी चकल्लस सृजित करके कांग्रेस के प्रत्याशी अजय राय को तीसरे स्थान पर धकेल कर दूसरे पर खुद काबिज हो जायें, जैसा कि 2014 में अरविन्द केजरीवाल ने किया था. इस रूप में वे ‘2019 के अरविन्द केजरीवाल’ बन जाने से ज्यादा हसरत नहीं पाल सकते.
ज्ञातव्य है कि वाराणसी में कांग्रेस व सपा-बसपा व रालोद के गठबंधन का यह रवैया तब है, जब न सत्ताकांक्षी पार्टियों द्वारा प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करके चुनाव लड़ने की परम्परा नई रह गई है और न प्रधानमंत्रियों को उनके क्षेत्रों में ही घेर लेने की ही. सच कहें तो प्रधानमंत्रियों या प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवारों को उनके निर्वाचन क्षेत्रों में ही घेर लेने की परम्परा, 2014 में इसी वाराणसी में मोदी की राह रोकने के अपने उपक्रम से जिसे आम आदमी पार्टी के नेता अरविन्द केजरीवाल ने भी कुछ हद तक समृद्ध किया, उसकी नींव लोकसभा के पहले आम चुनाव में ही पड़ गई थी. बाद में इस परम्परा में समाजवादी पार्टी के राजनीतिक आराध्य नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने 1951 में प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू उत्तर प्रदेश की इलाहाबाद लोकसभा सीट से चुनाव मैदान में उतरे तो हिन्दूवादी आध्यात्मिक संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने अपने तईं उन्हें ‘कड़ी’ चुनौती पेश करने की कोशिश की थी. यह और बात है कि वह उनके मंसूबे के मुताबिक कड़ी नहीं हो सकी.
दरअसल, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गुरू गोलवलकर और राजेन्द्र सिंह के समीपी प्रभुदत्त हिन्दू कोड बिल और गोहत्या आदि के मसलों पर नेहरू द्वारा अपनाये जा रहे दृष्टिकोण से बहुत नाराज थे और किसी भी कीमत पर उन्हें जीतने नहीं देना चाहते थे. समर्थकों द्वारा उन्हें संस्कृत, हिन्दी और ब्रजभाषा का नेहरू से कहीं ज्यादा प्रकांड विद्वान, अध्यात्म का अप्रतिम पुरोधा, करपा़त्री व कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ का सहपाठी, साधना, समाजसेवा, संस्कृति, साहित्य, स्वाधीनता व शिक्षा को समर्पित मनीषी, गाय, गंगा व हिंदू का अनन्य सेवक और स्वतंत्रता सेनानी आदि बताकर उनके लिए वोट मांगे जा रहे थे. कुम्भ मेले के लिए इलाहाबाद के ही झूंसी में बनाया गया उनका आश्रम उनकी चुनावी गतिविधियों का केन्द्र था और वहां से दावा किया जाता था कि संसदीय क्षेत्र के मतदाताओं का व्यापक समुदाय उनके उठाये मुद्दों से सहमत हैं और उनके पक्ष में मतदान करेगा. लेकिन नेहरू के 2,33,571 के मुकाबले उन्हें मात्र 56,718 वोट मिले और करारी शिकस्त ने उनकी सारी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को मटियामेट कर डाला.
अलबत्ता, अगले चुनाव में नेहरू फूलपुर से लड़े तो प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के नेता चेतराम ने उन्हें प्रभुदत्त से कहीं ज्यादा कड़ी टक्कर दी. इस चुनाव में नेहरू को 1951-52 के मुकाबले 6,123 वोट कम मिले जबकि चेतराम को प्रभुदत्त से 4,604 वोट ज्यादा. 1962 में इसी सीट से दिग्गज समाजवादी नेता डाॅ. राममनोहर लोहिया नेहरू का रास्ता रोककर उनके ‘युग का अंत’ कर देने के दावे के साथ मैदान में आये, तो भी उन्हें 54,360 वोट ही मिल सके. हां, उन्होंने नेहरू के सुरक्षित किले में ऐसी दरार पैदा कर दी कि पिछले चुनावों में उनकी लाखों वोटों से होती आ रही जीत हजारों की जीत में बदल गई और वे केवल 1,18,931 वोटरों का समर्थन ही जुटा पाये.
लालबहादुर शास्त्री के छोटे से कार्यकाल के बाद श्रीमती इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं तो 1971 में समाजवादी नेता राजनारायण ने रायबरेली में उन्हें इतनी जोरदार टक्कर दी कि वे जीतने के लिए ‘अवैध हथकंडे’ तक इस्तेमाल करने को मजबूर हो गईं. राजनारायण ने उनके खिलाफ चुनाव याचिका दायर की तो इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा उनका चुनाव अवैध घोषित कर दिया गया. फिर तो उन्होंने तानाशाह बनकर देशवासियों के सारे मौलिक अधिकार छीन लिये, लोकनायक जयप्रकाश नारायण समेत सारे बड़े विरोधी नेताओं को जेलों में बंद कर दिया और देश पर इमर्जेंसी थोप दी.
यह भी पढ़ें: कई बार सहलाते नहीं बनती एक वोट की चोट
उन्नीस महीनों बाद 1977 में उन्होंने तब आम चुनाव कराया, जब खुफिया रिपोर्टों से उन्हें एतबार हो गया कि अब उनकी जीत में कोई अंदेशा नहीं है. लेकिन रायबरेली के मतदाताओं ने उनके परम्परागत प्रतिद्वंद्वी राजनारायण के ही हाथों, जो इस चुनाव में जनता पार्टी के प्रत्याशी थे, उनकी पराजय का ऐसा शिलालेख लिखा, जो किसी प्रधानमंत्री के पद पर रहते चुनाव हारने की अब तक की एकमात्र नजीर बन गया. तब जनता पार्टी के कार्यकर्ता नारा लगाते थे-पहले हारीं कोर्ट से, फिर वोटर के वोट से!
1980 में सत्ता में वापसी का सपना देखती हुई वे रायबरेली से फिर चुनाव मैदान में उतरीं तो ग्वालियर की राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने उनसे दो-दो हाथ किया. 1977 जैसी हार का डर उस वक्त तक इंदिरा गांधी का पीछा कर रहा था. इसलिए उन्होंने रायबरेली के साथ आंध्र प्रदेश की मेडक सीट से भी चुनाव लड़ा था जो उनके लिए अपेक्षाकृत सुरक्षित थी. अमेठी में राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने के पहले से ही उनको घेरने के लिए मेनका गांधी, शरद यादव, महात्मा गांधी के पोते राजमोहन गांधी और कांशीराम आदि नेताओं द्वारा उन्हें दी गई चुनावी टक्करें लोगों को अभी तक याद हैं.
हां, पीवी नरसिंहराव इस मायने में थोड़े खुशकिस्मत थे कि उन्होंने आंध्र प्रदेश की नान्द्याल सीट से लोकसभा का उपचुनाव लड़ा तो उनके प्रधानमंत्री बनने से बढे़ आंध्र के गौरव से अभिभूत कई दलों ने उनके खिलाफ प्रत्याशी ही नहीं उतारा! अटल बिहारी वाजपेयी का दुर्भाग्य कि ‘प्रधानमंत्रियों के प्रदेश’ की राजधानी लखनऊ में उन्हें कभी भी नरसिंहराव जैसा ट्रीटमेंट नहीं मिला. 1996 में उन्हें समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी फिल्म अभिनेता राजबब्बर ने टक्कर दी तो 1998 में मुजफ्फर अली ने. 1999 में कांगे्रस ने कर्ण सिंह को उतारकर उनकी राजनीतिक डगर को मुश्किल बनाने की कोशिश की.
शायद इस तरह घेरे जाने का ही डर था कि प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने दस साल राज्यसभा में रहकर ही काट दिये, लोकसभा चुनाव में मतदाताओं का सामना करने की हिम्मत ही नहीं की.
यों, प्रधानमंत्री या प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी को हमेशा हराने के लिए ही चुनौती नहीं दी जातीं. कई बार विरोधी पार्टियां अपने कार्यकर्ताओं का मनोबल ऊंचा रखने के लिए भी ऐसा करती हैं. जानते हुए भी कि वे जीतने वाली नहीं हैं. कई बार वे ऐसी चुनौतियों को अपनी नीतियों व सिद्धांतों के व्यापक प्रचार के मौके के रूप में भी इस्तेमाल करती हैं.
यह भी पढ़ें: देखिये तो सही, ‘उजाड़’ के ये किस्से ‘दुनिया के महानतम’ लोकतंत्र की कैसी खबर लेते हैं!
नरेन्द्र मोदी से पहले ऐसी चुनौतियों से सिर्फ वही प्रधानमंत्री बच पाये हैं जो बिना किसी संभावना के अचानक प्रधानमंत्री बने, बहुत थोड़े समय पद पर रहे और विदा हो गये. अलबत्ता, डॉ. मनमोहन सिंह इसके अपवाद हैं, जिन्होंने दस साल प्रधानमंत्री रहने के बावजूद राज्यसभा से चुनकर आने का रास्ता ही पकड़े रखा, लोकसभा का चुनाव या उपचुनाव लड़े ही नहीं.
यों, इस बार वाराणसी में एक अच्छी बात यह है कि सत्ताकांक्षी प्रतिद्वंद्वियों द्वारा नरेन्द्र मोदी को कोई गम्भीर चुनौती न दिये जाने के बावजूद असंतुष्ट तबके उन्हें यों ही छोड़ देने के पक्ष में नहीं दिख रहे. तमिलनाडु और तेलंगाना के सौ से ज्यादा किसान तो उनके खिलाफ ताल ठोंके ही हुए हैं, तीन तेलुगु कार्यकर्ता और स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद की राम राज्य परिषद के के पांच संत भी अपना प्रतिरोध दर्ज करा रहे हैं.
(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं)