नई दिल्ली: देश भर के उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों को लिखे एक पत्र में, भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने बुधवार को लिखा कि “न्यायपालिका के भीतर आत्म-चिंतन और काउंसिलिंग आवश्यक है”. सीजेआई इलाहाबाद उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार के एक पत्र का संदर्भ दे रहे थे, जिसमें इस महीने की शुरुआत में नई दिल्ली से उत्तर प्रदेश के प्रयागराज तक की ट्रेन यात्रा के दौरान इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश को हुई असुविधा के लिए रेलवे अधिकारियों से स्पष्टीकरण मांगा गया था. दिप्रिंट ने सीजेआई के इस पत्र को देखा है.
इस सप्ताह की शुरुआत में सोशल मीडिया पर उत्तर मध्य रेलवे के महाप्रबंधक को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार (प्रोटोकॉल) आशीष कुमार श्रीवास्तव द्वारा 14 जुलाई को लिखा गया एक पत्र वायरल हुआ, इस कथित पत्र में, न्यायमूर्ति गौतम चौधरी को हुई “असुविधा” पर स्पष्टीकरण मांगा गया था, जब वह 8 जुलाई को नई दिल्ली से प्रयागराज तक पुरूषोत्तम एक्सप्रेस में यात्रा कर रहे थे.
पत्र में दावा किया गया कि ट्रेन के तीन घंटे से अधिक विलंबित या लेट होने के बाद न्यायाधीश को जलपान उपलब्ध नहीं कराया गया, जिससे उन्हें को भारी असुविधा हुई.
सीजेआई के पत्र में कहा गया है कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के पास रेलवे कर्मियों पर अनुशासनात्मक क्षेत्राधिकार नहीं है. इसलिए, यह दावा किया गया, कि “उच्च न्यायालय का कोई भी अधिकारी किसी भी दशा में रेलवे कर्मियों से स्पष्टीकरण नहीं मांग सकता”.
उन्होंने कहा कि इसने “न्यायपालिका के भीतर और बाहर दोनों जगह उचित बेचैनी को जन्म दिया है”.
‘न्यायपालिका की विश्वसनीयता और वैधता’
सीजेआई के पत्र में कहा गया है, “प्रोटोकॉल ‘सुविधाएं’ जो न्यायाधीशों को उपलब्ध कराई जाती हैं, उनका उपयोग समाज से उन्हें दिखाने वाले विशेषाधिकार के दावे अथवा शक्ति या अधिकार की अभिव्यक्ति के रूप में नहीं करना चाहिए. बेंच के अंदर और बाहर न्यायिक प्राधिकार का बुद्धिमत्तापूर्ण प्रयोग, न्यायपालिका की विश्वसनीयता व वैधता और न्यायपालिका में समाज की विश्वसनीयता को बनाए रखता है.
सीजेआई ने कहा कि वह उच्च न्यायालयों के सभी मुख्य न्यायाधीशों को “उच्च न्यायालयों के सभी सहयोगियों के साथ अपनी चिंताओं को साझा करने के गंभीर अनुरोध के साथ” लिख रहे हैं.
पत्र में कहा गया है: “न्यायपालिका के भीतर आत्म-चिंतन और परामर्श आवश्यक है. न्यायाधीशों को उपलब्ध कराई जाने वाली प्रोटोकॉल सुविधाओं का उपयोग इस तरह से नहीं किया जाना चाहिए जिससे दूसरों को असुविधा हो या न्यायपालिका की सार्वजनिक आलोचना हो.
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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