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Friday, 22 November, 2024
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बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद किस तरह से धीरे-धीरे बदलती गई बंबई

कुछ दंगाइयों ने चौराहे पर फंसे लोगों पर तलवारें, लाठियां और रॉड लहराना शुरू कर दिया. दीपनारायण की टैक्सी का ड्राइवर सूझ-बूझ दिखाते हुए फौरन गाड़ी उलटी घुमाकर वहां से निकल भागने में कामयाब हो गया.

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मुझे टोकरी से माला देना जरा. ओहो, गेंदे के फूलों की माला देना.’

समझना मुश्किल था कि इस पूरे हंगामे के बीच कौन-किससे-क्या कह रहा है? सुबह से ही घर में मेहमानों का तांता लगा हुआ था. उत्सव में डूबे हम सब इस बात से बेखबर थे कि अयोध्या में उस दिन क्या हो रहा था? यह मेरे ममेरे भाई महेश के कान छिदवाने की रस्म थी. इस वजह से हमारी खोली दिन भर मेहमानों से भरी रही थी. समोसे और कोल्ड ड्रिंक के बार-बार चले दौर के बीच हम इससे बेखबर थे कि उस दिन यानी 6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या में क्या हो रहा था? रस्म होने के बाद सभी लोग खाना खाकर रात 11 बजे वापस लौटने लगे. रात 12:30 बजे पड़ोसी के टेलीफोन पर एक कॉल आई. यह कॉल दीपनारायण की थी, जो मेरे मामा के दोस्त थे और कुछ वक्त पहले ही हमारी खोली से वालकेश्वर में अपने घर की ओर निकले थे. फोन पर उनसे मामा ने बात की. दीपनारायण ने घबराई आवाज में बताया कि उनकी जान बाल-बाल बची.

शुरू हुई मार-काट

हमारे घर से निकलने के बाद जैसे ही दीपनारायण की टैक्सी मिनारा मसजिद के चौराहे पर पहुंची, उन्होंने महसूस किया कि लगभग 400-500 लोगों की भीड़ ने पूरी सड़क को जाम कर दिया था. जब तक वे कुछ समझ पाते कि आसपास क्या हो रहा है, भीड़ हिंसक हो उठी. कुछ दंगाइयों ने चौराहे पर फंसे लोगों पर तलवारें, लाठियां और रॉड लहराना शुरू कर दिया. दीपनारायण की टैक्सी का ड्राइवर सूझ-बूझ दिखाते हुए फौरन गाड़ी उलटी घुमाकर वहां से निकल भागने में कामयाब हो गया. दूसरे रास्ते से घर पहुंचने के बाद दीपनारायण ने हमें सावधान करने के लिए फोन किया था. “अब तक वे कई लोगों का कत्ल कर चुके होंगे”, दीपनारायण ने घबराई आवाज में कहा.

अब तक टीवी के जरिए हमें भी पता चल गया था कि अयोध्या में विवादित बाबरी ढांचे को कारसेवकों ने ढहा दिया है, लेकिन यह हमें दीपनारायण के फोन कॉल से पता चला कि उसकी हिंसक प्रतिक्रिया मुंबई में शुरू हो गई है. हमारे लिए यह चिंता की बात थी, क्योंकि हमारी वाडी और चॉल के तीन तरफ मुसलिम बस्ती थी. दंगाई हमें आसानी से शिकार बना सकते थे. हम बच्‍चे तो बेपरवाह थे, लेकिन बड़ों की नींद उड़ गई थी. चूंकि मेरे दादा बूढ़े हो गए थे और चाचा पुलिस की नौकरी की वजह से घर से दूर रहते थे, इसलिए मेरे पिता ने गांव जाकर रहने का फैसला किया था, ताकि दादा की देखभाल हो सके. माता-पिता तो कुछ वक्त पहले गांव चले गए थे, लेकिन मुझे और मेरे छोटे भाई देवेंद्र को मुंबई में नाना-नानी के पास छोड़ गए थे, ताकि हम अपनी 10वीं तक की पढ़ाई यहीं पूरी कर लें. नाना-नानी के घर में उनके बेटे रमाकांत और शशिकांत और बहुएँ आशा और सुनीता यानी कि मेरे मामा-मामी थे. बड़े मामा रमाकांत का बेटा महेश उस वक्त 6 साल का था. छोटे मामा की 11 महीने की बेटी पूजा थी, जो उसी साल जनवरी में हुई थी. हम सभी की सुरक्षा अब जोखिम में थी.

आखिर वह हो गया, जिसका डर था. रात एक बजे घर के बाहर जोरदार विस्फोट के साथ तेज रोशनी नजर आई. उसके बाद किसी के दर्द से कराहने की आवाज सुनाई दी. चॉल के सभी लोग घर से बाहर निकल आए. जो उन्होंने देखा, उससे उनके होश उड़ गए. हार्डवेयर की दुकान के बाहर रोज रात को सोनेवाले मजदूर माधव का दाहिना पैर आग की लपटों की गिरफ्त में था. वह दर्द से तड़प रहा था. सटी हुई इमारत से किसी दंगाई ने पेट्रोल बम फेंका था, जो जाकर माधव के पैर पर गिरा था. इससे पहले कि आग उसके पूरे जिस्म को अपनी गिरफ्त में लेती, पानी डालकर आग को बुझाया गया. माधव को फौरन अस्पताल ले जाना जरूरी था, लेकिन सवाल था कि कैसे ले जाया जाए? सड़क पर अब कोई टैक्सी नहीं चल रही थी. इस बीच किसी ने पुलिस को फोन कर दिया. पुलिस की एक वैन वाडी के गेट पर पहुँच गई और उसी में बिठाकर माधव को विक्टोरिया टर्मिनस स्टेशन से सटे सेंट जॉर्ज अस्पताल में पहुँचाया गया. माधव के कुछ साथी उसी के साथ पुलिस वैन में अस्पताल गए. माधव महाराष्ट्र के सातारा का रहनेवाला था. गाँव में उसके बूढ़े माता-पिता, पत्नी और 10 साल का बेटा था. घायल माधव की अस्पताल में देखरेख करनेवाला कोई नहीं था.

अब तक दंगे की आग शहर के तमाम इलाकों में फैल चुकी थी. घर से कुछ दूरी पर हमें रुक-रुककर गोलियां चलने की आवाज सुनाई दे रही थी. रात भर सड़क से पुलिस वैन के सायरन के चीखने की आवाजें आती रहीं. हमने खिड़की से देखा कि हमारी इमारत की बगल की गली से कुछ दंगाई मेन रोड से गुजरने वाले पुलिस के वाहनों पर पत्थर और डंडे फेंक रहे थे और पुलिसकर्मियों को गालियाँ दे रहे थे. एक पुलिस वैन अचानक उनके सामने रुकी. उसमें से दो पुलिसवाले निकले और उन्होंने दंगाइयों की तरफ अपनी राइफलें तान दीं. इसके बाद दंगाई उन्हें गालियाँ देते हुए गली के अंदर भाग गए. ज्यादातर दंगाई बीस-तीस साल की उम्र के बीच के नजर आ रहे थे.

अचरज की बात है कि अगली सुबह अखबार के स्टॉल लगे थे और सभी अखबार भी वक्त पर आ गए थे. रोज घर में एक अखबार आता था, लेकिन उस दिन मामा तीन अखबार लेकर आए. यह जानने की ज्यादा-से-ज्यादा उत्सुकता थी कि अयोध्या में क्या हुआ है? हर अखबार के पहले पन्ने पर बाबरी ढांचे को गिराए जाने की खबर और तसवीर थी. इसी के साथ मुंबई में शुरू हुए हिंसा के दौर की खबरों से अखबार के पन्ने पटे पड़े थे. अखबार के जरिए ही हमें पता चला कि जब हम परिवार के कार्यक्रम में व्यस्त थे, तब शहर में क्या हो रहा था!

6 दिसंबर को सुबह से शहर का माहौल गरम हो रहा था. विश्व हिंदू परिषद् और भारतीय जनता पार्टी की ओर से जगह-जगह कारसेवकों की सभाएं बुलाई गई थीं. दादर के शिव मंदिर के पास एक बड़ी सभा आयोजित की गई. उसमें करीब 400 लोग शामिल हुए. दोपहर 12:30 बजे जब बाबरी ढांचा ढहाए जाने की खबर आई, उसके बाद धारावी जंक्शन से शिवसेना ने एक साइकिल रैली निकाली, जो सांप्रदायिक तौर पर कई संवेदनशील इलाकों से होकर काला किला तक पहुँची. काला किला में एक सभा हुई. उसमें भड़काऊ भाषण दिए गए. कई जगहों पर जश्न मनाया गया.

‘अयोध्या ने कैसे बदल दी मुंबई’ किताब प्रभात प्रकाशन से छपी है. पेपरबैक में यह किताब 500 रुपये में उपलब्ध है.

शाम तक मुसलिम इलाकों में भी हलचल शुरू हो चुकी थी. अयोध्या में जो कुछ हुआ, उससे मुसलिम गुस्से में थे. उनका पहला गुस्सा सरकार पर था, जो बाबरी ढांचे को बचा नहीं पाई. ऊपर से हिंदुत्ववादी संगठनों की ओर से सरेआम जश्न मनाए जाने ने जले पर नमक छिड़कने का काम किया था.


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