भारत की राजनीति में विभाजन इतना तीखा हो गया है और कड़वाहट इतनी बढ़ गई है कि अगर कोई विदेशी नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारत की आलोचना करता है तो भी भारत में कई लोग और दल खुश होते हैं और इसका स्वागत करते हैं. अगर कोई विदेशी अखबार भारत की अर्थव्यवस्था या आर्थिक या विदेश या रक्षा नीति को लेकर कोई आलोचनात्मक लेख छापता है तो भारत में उसका स्वागत करने वाले मौजूद हैं. दिलचस्प ये है कि ये लोग देशभक्त भी हैं. अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने हाल में एक इंटरव्यू में जब भारत की अल्पसंख्यक संबंधी नीति की आलोचना की और इसके कारण भारत के टूट जाने की आशंका जताई तो भारत से समवेत स्वर में ओबामा की आलोचना सामने नहीं आई, बल्कि कई लोग तो ओबामा की प्रशंसा करते नजर आए.
विदेश नीति और भारत के दूसरे देशों के साथ संबंधों को आम तौर पर पार्टी-पॉलिटिक्स से ऊपर होना चाहिए. लेकिन भारत की राजनीति फिलहाल जहां पहुंच गई है, वहां साझा राष्ट्रीय हित के सवालों पर भी आम सहमति नजर नहीं आती.
कोई चाहे तो इसके लिए सरकारी पक्ष को तो कोई विपक्ष को जिम्मेदार ठहरा सकता है. लेकिन राष्ट्रीय सहमति बनाना किसी एक दल का काम नहीं है. हालांकि ये सच है कि सत्ताधारी दल होने के नाते बीजेपी और देश का नेता होने के नाते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर जिम्मेदारी सबसे ज्यादा है कि वे राष्ट्रीय हित के सवालों पर आम सहमति बनाएं. इस बात को सबसे ज्यादा नरेंद्र मोदी को समझने की जरूरत है कि जिन लोगों ने बीजेपी को वोट नहीं दिया है, उनके प्रधानमंत्री भी वही हैं. राष्ट्रीय आम सहमति बनाने के प्रसंग में बीजेपी और नरेंद्र मोदी की असफलता स्पष्ट रूप से नजर आती है.
इस लेख में ये जानने की कोशिश की जाएगी कि राष्ट्र इतना बंट कैसे गया और इसे ठीक करने के लिए क्या कुछ किया जा सकता है.
ये बात व्यथित करने वाली है कि राजनीतिक कड़वाहट के परिणामस्वरूप देश में काफी लोग और समूह इस स्थिति में पहुंच गए हैं कि वे देश में बुरा होता देखना चाहते हैं और राष्ट्र के तौर पर भारत के असफल होने तक की कामना करते हैं. ये मोदी विरोध का चरम है. ऐसा इसलिए नहीं है कि वे देश को प्यार नहीं करते हैं या कि वे देशभक्त नहीं हैं. उनकी इस मानसिक स्थिति का कारण ये है कि वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और सत्ताधारी बीजेपी और उसके वैचारिक पितृ संगठन आरएसएस से नफरत करते हैं. एक दल, विचारधारा और व्यक्ति के प्रति उनकी नफरत किस तरह राष्ट्र के प्रति उनकी दुर्भावना में तब्दील हो गई है, इसे लेकर शायद वे सचेत नहीं हैं. इसलिए जब विदेश से भारत की कोई आलोचना आती है तो वे अपनी खुशी छिपा नहीं पाते हैं.
Domestic actions have international repercussions. I hear from friends across the Gulf of their dismay at rising Islamophobia in India &the PM’s unwillingness to condemn it, let alone act decisively against it. “We like India.But don’t make it so hard for us to be your friends”. https://t.co/Bj9es8fbfS
— Shashi Tharoor (@ShashiTharoor) February 18, 2022
राजनीतिक शत्रुता इतनी गहरी है कि जब चीन ने गलवान में अपनी सैन्य हरकत की और उसमें भारतीय सैनिक शहीद हुए तो भी भारत से साझा आवाज नहीं गई और कई लोगों ने उस समय भी बीजेपी और नरेंद्र मोदी की आलोचना की. प्रधानमंत्री की छवि इतनी विभाजनकारी बन गई है कि जब वे एक बार सीढ़ियां चढ़ते हुए लड़खड़ा गए तो उनकी वीडियो के चुटकुले बनाए गए. इस वीडियो पर कमेंट को पढ़कर आप अंदाजा लगा सकते हैं कि कटुता कितनी गहरी है और मामला कितना गंभीर है. अभी अमेरिका में नरेंद्र मोदी अंग्रेजी का एक शब्द गलत बोल गए तो सोशल मीडिया में उनकी जमकर खिल्ली उड़ाई गई.
समाज और देश के लोगों के एक हिस्से में प्रधानमंत्री को लेकर जो गहरी नकारात्मकता भर गई है, वह वैचारिक भिन्नता का भी मामला नहीं है. प्रधानमंत्री को लेकर हल्की बात कहने या उनका मजाक उड़ाने का मौका मानों लोग तलाशते रहते हैं. दरअसल ये कटुता से आगे बढ़कर शत्रुता जैसी बात हो गई है. ये राष्ट्र के साझा जीवन की पूरी परिकल्पना के ही खिलाफ है, जो किसी राष्ट्र का मूल तत्व होता है. बात अब प्रधानमंत्री की आलोचना या उनकी राजनीति की मीमांसा से आगे चली गई है.
प्रधानमंत्री भारत में शासन के प्रमुख हैं और इस नाते देश में होने वाली गड़बड़ियों और समस्याओं के लिए उनकी आलोचना होना स्वाभाविक है. इस तरह की आलोचना करना विपक्ष का दायित्व भी है. लेकिन गंभीर बात ये है कि कई लोग और समूह प्रधानमंत्री के प्रति कटुता को राष्ट्र हित के ऊपर महत्व देने लगे हैं.
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मोदी को भारत बताया जा रहा है, ये बात दिक्कत पैदा करती है
राजनीति में विभाजन और कड़वाहट का राष्ट्र के प्रति कड़वाहट में तब्दील हो जाना शायद इसलिए भी हुआ है क्योंकि नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से लगातार ऐसा संदेश दिया जा रहा है मानो नरेंद्र मोदी ही राष्ट्र हैं या वे राष्ट्र से भी बड़े हैं. मोदी की हर आलोचना को राष्ट्र की आलोचना बताकर बीजेपी नेताओं और समर्थकों द्वारा आलोचकों का मुंह बंद करने की कोशिश होती है. ये लगभग वही स्थिति है, जब कांग्रेस के नेता देवकांत बरुआ ने कहा था कि इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा!
इमरजेंसी के दिनों में जनसंघ (आज की बीजेपी) ने इंदिरा गांधी को राष्ट्र के समकक्ष बताए जाने और उनके हाथ में सत्ता के केंद्रीकरण का विरोध किया था. लेकिन आज बीजेपी खुद वहीं पहुंच गई है. समस्या ये है कि अगर मोदी ही राष्ट्र हैं तो मोदी की आलोचना करने के लिए लोग राष्ट्र की आलोचना तक तो जाएंगे ही. इसका एक असर ये भी होता है कि विपक्ष की भाषा में मोदी विरोधी और राष्ट्र विरोध के बीच की विभाजन रेखा धुंधली हो जाती है क्योंकि मोदी और राष्ट्र के बीच के फर्क को खुद बीजेपी ने मिटा दिया है और ये काम नरेंद्र मोदी की सहमति से हुआ है. कम से कम नरेंद्र मोदी कभी इसका विरोध करते तो नजर नहीं आए.
अब स्थिति ये है कि केंद्र सरकार की नीतियों पर हमला करने के लिए लोग नरेंद्र मोदी को निशाने पर ले लेते हैं. किसी अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत को मिलने वाली हार या आलोचना को मोदी की हार के तौर पर देखकर कई लोग और समूह खुश हो लेते हैं. वैसे भी अगर मोदी ही भारत हैं तो उनके साथ वे लोग खुद को कैसे जोड़कर देखेंगे जो बीजेपी के वोटर नहीं हैं? ये बात साझा राष्ट्रीय चिंतन में बाधक बन जाती है.
भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में प्रधानमंत्री को एक ऐसे मुखिया की भूमिका में होना चाहिए जिसमें सभी समूहों और वर्गों को अपना अभिभावक और रक्षक नजर आए और किसी भी विवाद या समस्या की स्थिति में उनके पास जाने में किसी भी समूह या वर्ग को झिझक न हो. ये एक दुखद स्थिति है कि नरेंद्र मोदी को ये दर्जा नहीं मिल पाया है या बीजेपी की राजनीतिक जरूरतों के कारण वे ऐसे समावेशी नेता की छवि चाहते भी नहीं हैं. आखिर हिंदू-मुस्लिम बंटवारा बीजेपी की राजनीति का प्राण-तत्व है और इस विचार के शिखर पर होने के कारण नरेंद्र मोदी के लिए एक सीमा से ज्यादा समावेशी होने के बीजेपी के लिए राजनीतिक मायने हो सकते हैं. हिंदू-मुस्लिम विभाजन के बिना बीजेपी के लिए हजारों जातियों में बंटे हिंदुओं को एकजुट करना और उन्हें अपने पक्ष में लाना मुश्किल हो सकता है.
प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने अपनी पुरानी विभाजनकारी छवि से उबरने की लगातार कोशिश की है. लेकिन चुनावी जरूरतों के कारण उनको अक्सर, प्रधानमंत्री से बीजेपी नेता बन जाना पड़ता है. बीजेपी की विभाजनकारी छवि को पुष्ट करने में अगर कोई कसर रह जाती है तो उसे यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्व शर्मा जैसे नेता पूरा कर देते हैं. ऐसे में विपक्ष से ही ये उम्मीद कैसे करें कि वह सब कुछ भूलकर समावेशी हो जाए और नरेंद्र मोदी के प्रति कटुता न रखें?
दरअसल इस गतिरोध को तोड़ने का मुख्य दायित्व बीजेपी और पार्टी के शिखर नेता होने के कारण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का है. वे ये काम कैसे करते हैं, ये तो उनको ही तय करना है. इसके राजनीतिक फलित हो ही सकते हैं और बीजेपी की राजनीतिक धार इससे कमजोर पड़ सकती है. संतुलन बनाकर इस काम को करना नरेंद्र मोदी के लिए बड़ी परीक्षा साबित होगी.
(दिलीप मंडल इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व मैनेजिंग एडिटर हैं, और उन्होंने मीडिया और समाजशास्त्र पर किताबें लिखी हैं. उनका ट्विटर हैंडल @Profdilipmandal है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादनः ऋषभ राज)
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