यदि आप वाकई यह जानना चाहते हैं भारत के लिए आंतरिक या बाहरी स्तर पर सबसे बड़ा तात्कालिक सुरक्षा खतरा क्या है तो कृपया अधिकांश टीवी न्यूज चैनलों को सहारा न लें. क्योंकि इससे आप भ्रमित हो सकते हैं और आपको ऐसा लग सकता है कि यह पश्चिम बंगाल पंचायत चुनावों में हिंसा है. थोड़ा आगे बढ़कर पूर्व की ओर देखें, नक्शे पर मणिपुर तलाशें. बशर्ते, आपको लगता हो कि एक सच्चे देशभक्त के तौर पर आपके लिए यह कुछ मायने रखता है.
राज्य एक ऐसी अराजक स्थिति में घिरा है जो दशकों से भारत के किसी भी अन्य हिस्से में नजर नहीं आई है. यहां तक, इस लेखक की तरह चार दशकों से नागरिक अशांति, उग्रवाद और आतंकवाद का दौर देखने के अभ्यस्त लोगों की नजरों में भी मणिपुर की ये स्थिति अभूतपूर्व है.
इस तरह की चुनौतियां 50 के दशक (नगालैंड), 60 के दशक (मिजोरम) या 80 के दशक की शुरुआत (पंजाब और असम) में भी सामने आ चुकी हैं. लेकिन अब 2023 में, केंद्र और राज्य में भाजपा के पास अलग तरह की शक्ति, और संचार, रसद, सैन्य-अर्धसैनिक बलों की ऐसी उपलब्धता के बावजूद यह सब?
खासकर, जब राज्य की शक्तियों को मजबूती देने की बात आती है तो वर्तमान के लिए अतीत का सहारा नहीं लिया जा सकता. 80 के दशक की शुरुआत में—जब तीन सक्रिय विद्रोह (नगा, मिजो, मणिपुरी) काफी उग्र बने हुए थे और असम भी अराजकता की चपेट में था—संचार व्यवस्था इस कदर लचर थी कि एक रिपोर्टर के तौर पर मुझे अपनी कम से कम दो स्टोरी नगालैंड में मोकोकचुंग स्थित टेलीग्राफ दफ्तर की मॉर्श मशीन से फाइल करनी पड़ती थीं. कमजोर या लगभग नहीं के बराबर संचार के साधनों ने उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों में शासन का काम बेहद कठिन बना रखा था, और एक रिपोर्टर के तौर पर काम करना तो लगभग असंभव ही था. लेकिन अब ऐसी दलीलें नहीं दी जा सकतीं.
आइये, सबसे पहले जानते हैं कि मणिपुर की स्थिति अतीत के संकटों से कितनी अलग है, वो अंतर क्या हैं जो इसकी चुनौती को एकदम अलग, मुख्तलिफ बनाते हैं.
अतीत में, पूर्वोत्तर और अन्य जगहों पर भी एक समुदाय की तरफ से दूसरे को निशाना बनाया जाता रहा है. असम में, बांग्लाभाषी, और फिर खासकर मुस्लिम बांग्लाभाषी अक्सर हिंसा का शिकार बने. लेकिन राज्य ने तुरंत कार्रवाई की, और कड़े कदमों की बदौलत इन पर काबू पाने में सफल भी रहा. यह किसी से छिपा नहीं है कि हमलावर कौन थे और पीड़ित कौन थे. भले, हमेशा पूरी तरह प्रभावी साबित न हुआ हो लेकिन राज्य पीड़ितों की रक्षा के लिए खड़ा हुआ.
त्रिपुरा में, हमने तादात में कम रहे आदिवासी अल्पसंख्यकों (आबादी 25 फीसदी से कम) को बहुसंख्यक बंगालियों की लक्षित हत्याओं को अंजाम देते देखा है. इनमें पहला और सबसे कुख्यात हमला 8 जून, 1980 को अगरतला के पास हुआ मंडई नरसंहार था, जिसमें 400 से 600 निर्दोष ग्रामीणों ने जान गंवाई. हालांकि, इस पर भी तत्परता से काबू पा लिया गया.
और अब, हम पश्चिम की ओर रुख करके जम्मू-कश्मीर और पंजाब की पड़ताल करते हैं. जम्मू-कश्मीर में तो 1990 में उस समय महीनों तक केंद्र और राज्य का हालात पर कतई नियंत्रण नहीं रहा, जब वी.पी. सिंह प्रधानमंत्री थे. राज्य की हरसंभव कोशिशों के बावजूद मणिपुर की तरह ही स्थिति काबू में आने का नाम नहीं ले रही थी. फिर कड़क मिजाज जगमोहन को राज्यपाल बनाकर भेजा गया. वहां, पुलिस शस्त्रागारों से हजारों हथियार बिना किसी तरह के प्रतिरोध के नहीं लूटे जा रहे थे. मणिपुर में, लुटेरे इतने निर्लज्ज हैं कि अपने आधार कार्ड तक छोड़ जाते हैं ताकि अगर कोई जांच हो, तो ड्यूटी पर मौजूद पुलिस वाले ‘मदद’ कर सकें.
पूर्वोत्तर में सबसे खराब दौर संभवत: उस समय आया था जब इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाले महज कुछ हफ्ते ही बीते थे. तब उन्हें कोई खास ताकतवर भी नहीं समझा जाता था. भारत ने महज 19 महीनों के भीतर ही दो प्रधानमंत्रियों (नेहरू और शास्त्री) की मृत्यु देखी थी. पूरा माहौल आशंकाओं और असुरक्षा से भरा था.
मिजो विद्रोहियों ने उस क्षेत्र को ‘संप्रभु मिजोरम’ घोषित कर दिया था जो उस समय तक असम का महज एक जिला (लुशाई हिल्स) था, और वे उपायुक्त कार्यालय और स्थानीय असम राइफल्स बटालियन मुख्यालय कब्जाने के करीब भी पहुंच चुके थे. जवाब में इंदिरा गांधी ने भारतीय सेना को हवाई हमलों और बमबारी का आदेश दे डाला. हालांकि, आज भी इस कदम को जरूरत से ज्यादा सख्ती भरा और विवादास्पद माना जाता है. लेकिन इसने विद्रोह को इतना दबा दिया कि सेना का पहला दस्ता (पांचवीं पैरा का) करीब 200 किमी दूर मैदानी इलाकों से आराम से वहां तक पहुंच सके.
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अब, बात 80 के दशक की शुरुआत में पंजाब से जुड़े घटनाक्रम की. और इसे हमने उदाहरणों की सूची में सबसे आखिर में इसलिए रखा क्योंकि यह आगे का रास्ता अपनाने में निर्णायक साबित हो सकता है. वर्ष 1981-83 के बीच भिंडरांवाले की सक्रियता के साथ आतंकी हत्याओं का पहला दौर शुरू हो चुका था. केंद्र और राज्य की सत्ता में कांग्रेस पार्टी की वापसी हुई थी. दरबारा सिंह इसके मुख्यमंत्री थे.
हिंदुओं के नाम पर जब प्रमुख अखबार के मालिक-संपादक (लाला जगत नारायण, पंजाब केसरी) और एक पुलिस डीआईजी (ए.एस. अटवाल) की हत्या ने देश को हिलाकर रख दिया, तब श्रीमती गांधी ने क्या किया? उन्होंने अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल कर अपनी ही पार्टी की सरकार और मुख्यमंत्री को बर्खास्त कर दिया और राष्ट्रपति शासन लगा दिया. हालांकि, इससे पंजाब की चुनौतियां खत्म नहीं हुईं. लेकिन इसने खतरा और शासन की नाकामी स्वीकारने की इच्छाशक्ति का संकेत जरूर दिया.
आज अगर हर नए संकट, किसी गलत कदम या किसी भी तरह के झटके का जवाब यही है कि ऐसा पहले भी हुआ है, खासकर कांग्रेस शासन के दौरान, तो अतीत में मिसाल बने कदमों पर मंथन करना भी उपयोगी साबित हो सकता है. यह नई दिल्ली में बैठी कोई कमजोर सरकार नहीं थी जो राजधानी से महज 220 किमी दूर अपेक्षाकृत एक बड़े राज्य में अपनी ही पूर्ण बहुमत वाली सरकार को बर्खास्त करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 356 का सहारा लेने में नहीं हिचकिचाई.
यह आपातकाल के बाद अपनी शक्तियों के चरम पर पहुंची इंदिरा गांधी थीं, जिन्हें आज भाजपा की तुलना में ज्यादा बड़ा बहुमत हासिल था.
हम समझ सकते हैं कि यह सरकार श्रीमती गांधी के नक्शेकदम पर चलने से क्यों कतरा रही है. लेकिन, आप किसी भी नजरिये से स्थिति को पूरी ईमानदारी से देखें तो पाएंगे कि मौजूदा समय में राज्य सरकार समस्या की वजह है, समाधान नहीं.
बीरेन सिंह सरकार को किसी भी पक्ष का भरोसा हासिल नहीं है, इसके शीर्ष पदाधिकारी पूरे परिदृश्य से नदारत हैं, और इसकी सबसे महत्वपूर्ण जिम्मेदारी—कानून और व्यवस्था बनाए रखने—को ‘सलाहकार’ और बाहर से भेजे गए अधिकारी निभा रहे है. यही नहीं, इसका सत्ता में बने रहना दोनों ही पक्षों की भावनाएं भड़का रहा है. कुकी इसे बहुसंख्यकवादी एजेंडा बढ़ाने वाली पक्षपाती सरकार के रूप में देखते हैं, जबकि मैतेई समुदाय इसे व्यापक स्तर पर उनका चुनावी समर्थन हासिल करने के बावजूद उनकी रक्षा करने में अक्षम मानता है.
हालांकि, ऐसी कई बातें हैं जो मणिपुर के मौजूदा संकट को अभूतपूर्व बनाती हैं. लेकिन हम यहां इनमें से सिर्फ तीन का जिक्र करते हैं:-
*धर्म, जातीयता या भाषा के आधार पर एक समुदाय की तरफ से दूसरे को निशाना बनाए जाने के असंख्य उदाहरण हमारे सामने हैं. हमने दो समुदायों के बीच लड़ाई को चरम पर पहुंचते भी देखा है. लेकिन हमारे इतिहास में ऐसा पहली बार हो रहा है कि हमारे दो समुदाय एक-दूसरे के खिलाफ बड़ी संख्या में स्वचालित हथियार इस्तेमाल कर रहे हैं. इसमें लंबी दूरी की स्नाइपर राइफलें भी शामिल हैं जो हमारे अधिकांश वर्दीधारी सुरक्षा बलों तक को हासिल नहीं हैं. इसे एक तरह से गृहयुद्ध कहा जा सकता है.
**यह पहली बार है जब लगातार छह सप्ताह से अराजकता का आलम है, और सरकार कोई निर्णायक राजनीतिक कदम उठाने में नाकाम रही है. इस क्षेत्र में अधिक बल भेजना जारी रखना, वार्ताकारों की नियुक्ति और शांति समिति की स्थापना करना, मौजूदा हालात को सुधारने के लिहाज से पुख्ता कदम साबित नहीं हो सकते. समस्या उससे कहीं ज्यादा गहरी है.
***किसी एक पीड़ित समुदाय के पलायन के अनगिनत मामले सामने आए हैं. मिसाल के तौर पर कश्मीरी पंडितों को ही ले लीजिए. मणिपुर में संघर्षरत दोनों ही समुदाय पलायन कर रहे हैं. यानी मूलत: जो कोई भी मणिपुर छोड़ सकता है, उसे छोड़कर जा रहा है. यह एक नई बात है.
संविधान के अनुच्छेद 355 के तहत केंद्र को यह शक्ति और जिम्मेदारी दोनों प्रदत्त की गई हैं कि प्रत्येक राज्य को बाहरी और आंतरिक खतरों से बचाए. जाहिर है, अगर केंद्र की हरसंभव मदद के बावजूद कोई राज्य सरकार नाकाम रहती है, तो उसे हटाया जाना चाहिए. इसमें शर्म जैसी कोई बात नहीं है. याद रखिए, इंदिरा गांधी ने ऐसा किया भी था.
इससे एक बिखरे राज्य के हालात तत्काल तो नहीं सुधरेंगे. इसमें कुछ ज्यादा समय लग सकता है. लेकिन एक शुरुआत हो सकती है और दोनों ही पक्ष इसे इसी रूप में देखेंगे. निश्चित तौर पर, इससे दोनों पक्षों की इस साझा भावना में भी बदलाव आएगा, कि हमारा मणिपुर जल रहा है, और किसी को इसकी परवाह तक नहीं है.
(संपादन: ऋषभ राज)
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