लखनऊ/सहारनपुर: जब आप यूपी की राजधानी लखनऊ से पश्चिम उत्तर प्रदेश की ओर निकलते हैं तो रास्तेभर गन्ने के खेत दोनों तरफ दिखते हैं. इन खेतों में काम करने वाले किसान इस बेल्ट में चुनाव का मूड बताने में काफी मदद भी करते हैं. पहले, दूसरे व तीसरे चरण के चुनाव जिन सीटों पर हैं उनमें से कई सीटों का हमने दौरा किया और किसानों व नौजवानों से बातचीत के जरिए इस बेल्ट का सियासी मूड समझने की कोशिश की.
सहारनपुर की ट्रायंगुलर फाइट से बीजेपी को उम्मीद
सहारनपुर सीट का जिक्र सबसे पहले. दरअसल पहले चरण में जिन 8 सीटों (मेरठ, बागपत, कैराना, मुजफ्फरनगर, बिजनौर, सहारनपुर, गाजियाबाद, गौतमबुद्ध नगर) पर चुनाव होना है, उनमें सहारनपुर सीट सबसे दिलचस्प है. यहां पर मुकाबला त्रिकोणीय है. बीजेपी के राघव लखनपाल के मुकाबले कांग्रेस के इमरान मसूद और सपा-बसपा-आरएलडी गठबंधन से हाजी फजलुर्रहमान मैदान में हैं. महागठबंधन की पहली रैली भी इस सीट पर हुई. रैली में दलित+मुस्लिम यूनिटी पर जोर रहा. पीएम मोदी ने भी यहां रैली की. उन्होंने इमरान मसूद पर सीधे निशाना साधा. सूत्रों की मानें तो ये बीजेपी की रणनीति का हिस्सा था. मुस्लिम वोटों का बंटवारा होने से मुकाबला बीजेपी के पक्ष में जा सकता है.
चंद्रशेखर के समर्थक जिस तरह से महागठबंधन की रैली में दिखे उससे ये भी संकेत गया कि इमरान मसूद के साथ भीम आर्मी का पूरा समर्थन नहीं है. अधिकतर दलित वोटर गठबंधन के साथ है. वहीं गठबंधन यहां सबसे मजबूत होने का दावा तो कर रहा है लेकिन इमरान की लोकप्रियता सहारनपुर शहरी क्षेत्र व कुछ कस्बों में काफी वोट काट रही है. देवबंद के आफताब अहमद का कहना है कि इमरान के साथ मुसलमानों में युवा वर्ग तो है लेकिन बुजुर्ग वर्ग गठबंधन को ही वोट करेगा. सहारनपुर के गांव ताजपुर में खेत में काम कर रहे उदयभान आवारा पशुओं से परेशान दिखे. वह यहां के सासंद से भी नाखुश दिखे लेकिन इस चुनाव में मोदी को सबसे बड़ा फैक्टर मानते हैं. उनका कहना है कि मोदी देश हित में काम कर रहे हैं. सहारनपुर के हिंदू बाहुल्य इलाकों में भी मोदी फैक्टर बरकरार है.
दिनभर सहारनपुर के अलग-अलग इलाकों में लोगों से बातचीत करके ये अंदाजा हुआ कि अगर इस सीट पर एक ही मुस्लिम उम्मीदवार होने पर कोई भी कह सकता था कि यह सीट गठबंधन की झोली में जाएगी लेकिन अब बीजेपी की उम्मीदें यहां बढ़ गई हैं.
छोटे और बड़े चौधरी साहब की राह भी कठिन
मुजफ्फरनगर का मुकाबला दिलचस्प है. यहां बीजेपी के संजीव बालियान का मुकाबला चौधरी चरण सिंह के पुत्र चौधरी अजित सिंह से मुकाबला करना पड़ रहा है. लोग यहां तक कह रहे हैं कि जो हारा उसका ये आखिरी चुनाव हो सकता है. मुजफ्फरनगर दंगों के बाद से यहां हुई ध्रुवीकरण की राजनीति को रोकने के लिए अजीत सिंह ने अपने भाईचारा मुहिम के जरिए काफी प्रयास किए हैं.
बीजेपी उम्मीदवार संजीव बालियान के पास पिछड़ी जातियों, सवर्णों के साथ-साथ काफी संख्या में जाटों का समर्थन है तो दूसरी ओर चौधरी अजित सिंह के पास गठबंधन की ताकत है. दोनों ही ओर से जाट प्रत्याशी होने के कारण जाट बिरादरी ही दुविधा में है. जाटों की इलाकेवार और खापों की पंचायतें निरन्तर जारी हैं. ये पंचायत यहां पर बेहद महत्वपूर्ण हैं जो कि जीत-हार तय करेंगी. कांग्रेस ने इस सीट पर उम्मीदवार न उतारकर अजीत सिंह की मदद की है, बावजूद उनकी राह आसान नहीं दिखती.
ऐसा ही कुछ छोटे चौधरी यानि जयंत के साथ है. केंद्रीय मंत्री सत्यपाल सिंह के खिलाफ चुनाव लड़ रहे जयंत को अपने पारंपरिक वोटरों से उम्मीद है. बागपत जो जाटों की चौधराहट के नाम से जाना जाता है, उनमें ही बिखराव दिख रहा है. सत्यपाल सिंह की भी जाटों में पकड़ है तो छोटे चौधरी के प्रति यहां के नौजवानों में सम्मान का भाव है. जाट बिरादरी के ही कुछ लोग मोदी को मौका देने के साथ ही सांसद से संतुष्ट दिखाई दे रहे थे. उन्होंने रोजगार मेले और केन्द्रीय विद्यालय की सौगात का श्रेय वर्तमान सांसद को दिया. गठबंधन प्रत्याशी जयंत को भी उनके युवा होने के कारण कुछ लोग मौका देने के पक्ष में थे. यानि मुकाबला बराबरी का है.
कैराना में कुछ भी कह पाना मुश्किल
2018 में हुकुम सिंह के निधन के बाद कैराना की राजनीति में काफी बदलाव आया है. उपचुनाव में बीजेपी ने यहां हुकुम सिंह की पुत्री मृगांका सिंह को मैदान में उतारा लेकिन हार झेलनी पड़ी. अब बीजेपी ने रणनीति बदली और बड़े-बड़े दिग्गजों की भीड़ कैराना लोकसभा क्षेत्र में भेजा. यहां से प्रदीप चौधरी इस बार मैदान में हैं. वहीं दूसरी ओर स्व. मुनव्वर हसन की पत्नी तबस्सुम हसन को गठबंधन ने अपना उम्मीदवार बनाया है. कांग्रेस ने यहां से इलाके के दमदार और लोकप्रिय नेता हरेन्द्र मलिक को अपना उम्मीदवार बनाया है. हरेन्द्र मलिक पार्टी के साथ-साथ निजी प्रभाव भी रखते हैं.
बता दें कि 2018 के उपचुनाव में जीत का अंतर मात्र 44 हजार था. गठबंधन के साथ ही भाजपा खेमा भी हरेन्द्र मलिक की मौजूदगी से परेशान है. बीजेपी की एक और परेशानी है कि इस बार उनका उम्मीदवार कैराना का नहीं, सहारनपुर का का रहने वाला है. वहीं टिकट न मिलने से मृगांका समर्थकों में भी नाराजगी है. हुकुम सिंह की भरपाई के लिए गुर्जर नेता वीरेन्द्र सिंह को अपने साथ भी ले लिया माना जा रहा है, इसके बावजूद कुछ गुर्जर छिटक सकते हैं. यहां जाटों का समर्थन बड़ी तादात में वोट गठबंधन को मिल सकता है. ऐसे में यहां भी हरेन्द्र मलिक को मिलने वाला वोट ही हार-जीत का फैसला करेगा.
पश्चिम यूपी का जातीय समीकरण
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में करीब 21 फीसदी दलित, 20 फीसदी मुस्लिम, 17 फीसदी जाट और 13 फीसदी यादव हैं. ब्राह्मण और ठाकुर वोट करीब 28 फीसदी है. जाटों पर अजीत सिंह की अच्छी पकड़ मानी जाती है. जबकि मायावती दलित-मुस्लिम समीकरण साधने की कोशिश कर रही हैं. हालांकि पिछले लोकसभा चुनाव में जाट समेत अन्य जातियों ने बीजेपी को वोट किया था लेकिन इस बार वोटों का बंटवारा रोकने के लिए महागठबंधन किया गया.
मोदी फैक्टर बनाम दलित+मुस्लिम यूनिटी
2014 में वेस्ट यूपी में बीजेपी की जीत का अहम कारण मोदी फैक्टर था. अब चर्चा यहां गठबंधन की भी काफी है लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता यहां अब भी बरकरार है. गन्ना किसानों की नाराजगी भी अब यहां कम होती दिख रही है. हालांकि 2014 में मोदी के लिए वोट करने वाले नौजवानों में बेरोजगारी के मुद्दे को लेकर रोष भी है. वहीं इस बेल्ट में दलित व मुस्लिम मिलाकर 40 फीसद से ऊपर है जो कि हर सीट पर महत्वपूर्ण है बशर्ते वो बंटे नहीं.