scorecardresearch
Thursday, 21 November, 2024
होममत-विमतजब तक बराबरी की चाहत है, तब तक याद किए जाएंगे मार्टिन लूथर किंग

जब तक बराबरी की चाहत है, तब तक याद किए जाएंगे मार्टिन लूथर किंग

किंग ने ऐसी दुनिया का सपना देखा था जहां रंग या नस्ल या किसी भी और आधार पर इंसानों के बीच भेदभाव न हो. वह सपना आज भी तमाम आंदोलनों की प्रेरणा है.

Text Size:

दुनियाभर में आज यानी 4 अप्रैल को महान नेता मार्टिन लूथर किंग को उनकी शहादत दिवस पर याद किया जा रहा है. साठ के दशक में अमेरिका में अश्वेतों के लिए सफल सिविल राइट आंदोलन चलाने वाले मार्टिन लूथर किंग जूनियर की आज ही के दिन 1968 में महज़ 39 साल की उम्र में तब हत्या हो गयी थी, जब वो अपने ख़ास दोस्तों के साथ आंदोलन की रूपरेखा बनाने के लिए मेमफ़ेसिस शहर के एक होटल में रुके थे.

मार्टिन लूथर होटल में अपने कमरे की बालकनी में खड़े थे, उसी दौरान अचानक आई एक गोली ने उनकी जान ले ली. मार्टिन लूथर किंग को मारी गयी गोली किसने चलाई, इस षड्यंत्र के पीछे कौन लोग थे, यह आज भी एक पहेली है. उनके शहादत दिवस पर इस लेख के माध्यम से उनके आंदोलन, विचार और योगदान की संक्षिप्त पड़ताल करने की कोशिश की गयी है.


यह भी पढ़ेंः यूनिवर्सल बेसिक इनकम का आखिर क्या है मतलब


रंगभेद के ख़िलाफ़ लड़ाई

अमेरिका में अश्वेत लोगों को अफ़्रीका से पकड़ कर तीन-चार सौ साल पहले लाया गया था. ऐसे अश्वेत लोगों को ग़ुलाम कहा जाता था, जिनको बाज़ार में जानवरों की तरह ख़रीदा-बेचा जाता था. इस प्रथा को ग़ुलामी कहा जाता था, जिसको कि लम्बे गृह युद्ध के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने समाप्त कर दिया था.

भले ही ग़ुलामी प्रथा समाप्त हो गयी हो, लेकिन अश्वेतों के ख़िलाफ़ तरह तरह के भेदभाव जारी रहे. दुनिया की उस पर नज़र 1954 के बाद एक बार फिर पड़नी शुरू हुई, जब मार्टिन लूथर किंग ने इसको लेकर सिविल राइट्स आंदोलन शुरू किया.

मार्टिन लूथर किंग ने ये आंदोलन 1954 में मोंटगोमरी बस बायकाट से शुरू किया, जिसके लिए उन्होंने गांधी की अहिंसा और असहयोग की तकनीक अपनाया. दरअसल उन दिनों अमेरिका में बसों में श्वेत लोगों के लिए आगे की सीटें आरक्षित रहती थीं, जिस पर अश्वेत लोग बैठ नहीं सकते थे, भले ही वो ख़ाली हों. इसके अलावा उन्हें जगह-जगह बस स्टॉप पर बस से उतरना पड़ता था, ताकि श्वेत लोग बैठ सकें. श्वेत लोगों के बस में बैठ जाने के बाद ही अश्वेत बस में घुस सकते थे.

रोज़ा पार्क नामक अश्वेत महिला ने सीट छोड़ने से मना करके इस व्यवस्था को चैलेंज किया. जिसके लिए उसे जुर्माना देना पड़ा. मार्टिन लूथर ने इसी घटना से अपने आंदोलन की शुरुआत की. इस आंदोलन में अश्वेत लोगों ने बसों में बैठना बंद कर दिया. वे अपने साथ तख्ती लेकर चलने लगे कि ‘हम भी आदमी हैं.’

मार्टिन लूथर के इस आंदोलन पर हिंसक प्रतिक्रिया हुई. लेकिन उन्होंने अपने समर्थकों से अहिंसा का रास्ता अपनाने के लिए कहा. उन्होंने व्यवस्था से घृणा करने की वकालत की न कि व्यवस्था चलाने वाले लोगों से. जिसका मतलब था, श्वेत लोगों की व्यवस्था से घृणा करो न कि श्वेत लोगों से.

अपने आंदोलन में वो बार-बार कहते कि अगर अमेरिका को फ़र्स्ट क्लास राष्ट्र बनना है, तो उसे अपने कुछ लोगों को सेकेंड क्लास सिटिज़न मानना छोड़ना होगा. उन्होंने रंगभेद के आधार पर बनी नीतियों को नैतिक आधार पर ग़लत बताया. उनके आंदोलन की वजह से सुप्रीम कोर्ट ने बसों में रंगभेद वाले क़ानून को ख़ारिज कर दिया. इस दौरान वे छोटे-बड़े रंगभेद विरोधी आंदोलन आयोजित करते रहे, और गिरफ़्तार किए जाते रहे.

वाशिंगट मार्च

किंग और उनके सहयोगियों ने अमेरिका में रंगभेदी नीतियों के लिए कुख्यात बर्मिंघम-अलबामा शहर में 12 अप्रैल 1963 को एक प्रदर्शन किया, जिसको वहां की पुलिस ने बेरहमी से कुचलने की कोशिश की. प्रदर्शन को एक बार कुचल दिए जाने की वजह से अश्वेत लोगों ने अपने प्रदर्शन की संख्या बढ़ा दी और उसमें बच्चे भी शामिल हो गए. उस प्रोटेस्ट के राष्ट्रीय मीडिया पर प्रचारित होने की वजह से पूरे अमेरिका को अश्वेत लोगों के साथ हो रहे अन्याय के बारे में पता चला.

तत्कालीन राष्ट्रपति जान एफ कैनेडी ने यह घोषणा की कि वो रंगभेद की नीति को समाप्त करने के लिए कांग्रेस में क़ानून लाएंगे. इसके समर्थन में मार्टिन लूथर किंग ने वाशिंगटन मार्च किया, जिसमें बड़ी संख्या में श्वेत और अश्वेत लोग शामिल हुए. इसी मार्च में किंग ने अपना सबसे प्रसिद्ध भाषण ‘आई हैव ए ड्रीम’ दिया जो कि दुनिया के सबसे बेहतरीन भाषणों में गिना जाता है.

किंग के वाशिंगटन मार्च सम्पन्न होने के कुछ समय बाद ही अमेरिका के इतिहास में एक और दर्दनाक घटना घटी, जब वहां के सबसे युवा राष्ट्रपति जान एफ केनेडी की खुली जीप में जनता के सामने हत्या हो गयी और किसी को पता भी नहीं चल पाया कि हत्या किसने की. अमेरिका में आज भी यह माना जाता है कि राष्ट्रपति केनेडी की हत्या उनका सिविल राइट आंदोलन को समर्थन देने की वजह से हुई थी. केनेडी की हत्या के बाद वहां लिंडन बी जॉनसन राष्ट्रपति हुए, जिन्होंने सिविल राइट क़ानून पास करके अश्वेतों को वोट देने का अधिकार दिलाया.

पुरस्कार और सम्मान

सिविल राइट आंदोलन का नेतृत्व करने की वजह से डॉक्टर किंग को जनवरी 1964 में टाइम्स मैगजीन ने 1963 का मैन ऑफ़ द ईयर का सम्मान दिया. इसके बाद 1964 में डॉक्टर किंग को शांति के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार भी मिला. अपने नोबेल पुरस्कार की स्पीच में उन्होंने रंगभेद के बारे में बात रखी. इसके अलावा उन्हें मरणोपरांत 1977 में प्रेसीडेंटियल मेडल ऑफ़ फ़्रीडम और 2004 में कांग्रेस गोल्ड मेडल भी मिला.

हाई प्रोफ़ाइल हत्याएं और उससे जुदा विवाद

मार्टिन लूथर किंग ने अपने आंदोलन में ग़रीबी और बेरोज़गारी जैसे मुद्दों को भी शामिल किया था. इसके साथ ही, उन्होंने वियतनाम युद्ध पर अपनी सरकार की आलोचना भी की, जिसकी वजह से उनके कई साथी उन्हें छोड़कर चले गए थे. इसी बीच संदेहास्पद तरीक़े से उनकी हत्या कर दी गयी. उनकी हत्या के कुछ दिनों बाद सीनेटर रॉबर्ट एफ केनेडी, जो कि पूर्व राष्ट्रपति जान एफ केनेडी के छोटे भाई थे, की भी राष्ट्रपति चुनाव में प्रचार के दौरान हत्या कर दी गयी. रॉबर्ट एफ केनेडी सिविल राइट्स आंदोलन के बड़े समर्थक थे और अपने भाई की सरकार में अटार्नी जनरल थे. उन्होंने किंग की कानूनी लड़ाइयों में मदद की थी.


यह भी पढ़ेंः अम्बेडकरवाद को नई बुलंदियों पर ले गए मान्यवर कांशीराम


किंग के आंदोलन का व्यापक प्रभाव

डॉक्टर मार्टिन लूथर किंग जूनियर के आंदोलन ने अमेरिकी समाज को नैतिक स्तर पर झकझोरा. किंग का कहना था कि रंग के आधार पर भेदभाव नैतिक रूप से ग़लत है, क्योंकि सभी इंसान भगवान की नज़र में बराबर हैं. इसके साथ ही उन्होंने कहा कि नैतिकता भले ही क़ानून से न बांधी जा सके लेकिन लोगों का व्यवहार तो बांधा जा सकता है. उन्होंने अश्वेत लोगों के अलगाववाद का समर्थन नहीं किया, क्योंकि उनका कहना था कि काले लोगों का खुद को सुपीरियर यानी श्रेष्ठ कहना उतना ही ग़लत है, जितना गोरे लोग का कहना कि वे श्रेष्ठ हैं.

सिविल राइट आंदोलन ने समाज और सरकार से नैतिक सवाल पूछे, जिसकी वजह से सामाजिक विज्ञान में एक बार फिर से नैतिकता की बहस वापस आयी. इस बहस को हम जान रॉल्ज़ द्वारा लिखी ‘थ्योरी ऑफ़ जस्टिस’ और उस पर चली बहस से समझ सकते हैं.

(पीएचडी स्कॉलर, रॉयल हालवे, यूनिवर्सिटी ऑफ़ लंदन)

share & View comments