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Sunday, 24 November, 2024
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क्षेत्रीय मुक्त व्यापार समझौतों, PLI की नाकामी पर भारत के रुख से मोदी के आलोचक न डरें

दोनों की आलोचना के लिए मसाला तो है लेकिन माल-असबाब का निर्यात अब भारत की व्यापार में वृद्धि करने वाला ड्राइवर नहीं रह गया है, और पीएलआइ के मद में पांच साल में जीडीपी के 1 फीसदी के 10वें हिस्से के बराबर ही जाएगा.

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बाजार के लिए फिक्रमंद टीकाकारों की प्रायः दो शिकायतें रहती हैं. एक तो यह की नरेंद्र मोदी की सरकार ने मुक्त व्यापार की क्षेत्रीय व्यवस्थाओं से अलग रहकर भारी गलती की है; दूसरी यह कि उसने शुल्कों की आड़ का संरक्षण देकर घरेलू मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा देने की उसकी जो उत्पादन-केंद्रित प्रोत्साहन (पीएलआई) योजना है वह मूलतः गलत सोच पर आधारित है.

इन दोनों आलोचनाओं में दम है. भारत अगर व्यापार को आसान बनाने वाली व्यवस्थाओं में शामिल नहीं होता तो वह उत्पादन व आपूर्ति के क्षेत्रीय चेन्स से अलग हो सकता है; और सब्सिडी एवं शुल्क केंद्रित मैन्युफैक्चरिंग नीति के कारण फिर से गैर-प्रतिस्पर्द्धी मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर खड़ा हो सकता है.

इसके अलावा, मैक्रोइकोनॉमिक नतीजे गंभीर हो सकते हैं क्योंकि कोई भी अर्थव्यवस्था मजबूत और बढ़ते निर्यात सेक्टर के बिना आर्थिक वृद्धि में तेजी कायम नहीं रख सकती. औद्योगिक गतिविधि की स्वस्थ और दीर्घकालिक वृद्धि के लिए किसी ने भी संरक्षण में चलने वाले मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की मांग नहीं की है, जो सब्सिडी की मदद से चलती हो.

संदेश साफ है : भारत उन क्षेत्रीय व्यापार संगठनों में शामिल हो जाए, और ऐसे बदलाव लाए जो अंतरराष्ट्रीय सप्लाइ चेन्स से लाभ उठाने के लिए जरूरी हैं.

ये आलोचनाएं जायज हैं लेकिन ये बदलती स्थितियों के बारे में इस बात को पकड़ने में चूक रही हैं कि माल का निर्यात (जो कि एशिया के क्षेत्रीय व्यापार समझौतों का मुख्य विषय रहा है) अब भारत के निर्यातों का मुख्य ड्राइवर नहीं रह गया है. यह भूमिका सेवाओं के निर्यात ने संभाल ली है, जिसमें तेजी से वृद्धि हुई है. पिछले साल निर्यातों से हुई कुल आय में सेवाओं से हुई निर्यात का हिस्सा 42 फीसदी था.

अगर यही चलन जारी रहा तो यह आंकड़ा चंद वर्षों में ही 50 फीसदी पर पहुंच सकता है और माल निर्यात को पीछे छोड़ सकता है. निर्यातों में सफलता का जायजा लेते हुए आलोचक लोग गलत निशाने को चुन लेते हैं.


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वे पूर्वी एशिया की निर्यात-केंद्रित आर्थिक वृद्धि की उम्मीद लगाकर इस गलती को और गंभीर बना लेते हैं. इस तरह की आर्थिक वृद्धि गारमेंट्स सरीखी कम मूल्य, कम मार्जिन वाली, श्रम-केंद्रित चीजों के निर्यातों पर ही ध्यान देते हैं. यह एक खामखयाली है क्योंकि भारत में कामकाज की स्थितियां पूर्वी एशिया की इन स्थितियों से भिन्न हैं और इनका बदलना मुश्किल है.

आज भी ऐसे कुछ देश हैं जहां श्रम सस्ता है और/या ज्यादा उत्पादक है. भारत में श्रम-केंद्रित निर्यातों को अगर सफल होना है, जो संभव है, तो यह ऐसे उत्पादों के मामले में हो सकता है जिनमें श्रम की लागत उत्पाद की कीमत का छोटा हिस्सा है, और/या जिन्हें घरेलू बाजार स्थानीय बनाने का प्रोत्साहन देता है, जैसा कि मोबाइल फोनों या दूसरे इलेक्ट्रॉनिक सामान के मामले में कुछ हद तक हुआ है.

मैन्युफैक्चरिंग वाले बाकी सामान का निर्यात मुख्यतः पूंजी या ज्ञान केंद्रित उत्पादों का होगा, जैसे रिफाइंड पेट्रोलियम उत्पाद, दवाएं और रसायन.

भारत विकास के जिस चरण में है वैसे चरण वाले देश में सेवाओं का निर्यात अग्रणी भूमिका निभाए यह असामान्य बात है. लेकिन अब यह स्थापित हो चुका है कि देश को सबसे बड़ी तुलनात्मक बढ़त शिक्षित, सस्ते, व्हाइट कॉलर वाले श्रमिकों की बदौलत है, न कि ब्लू कॉलर वाले श्रमिकों की भावी फौज की बदौलत.

वास्तव में, सेवा सेक्टर जितना ज्यादा व्यापार सरप्लस पैदा करेगा, रुपया उतना ही मजबूत होगा और पूर्वी एशियाई शैली की कम मार्जिन वाली, श्रम-केंद्रित माल के निर्यातों वाली सफलता हासिल करना मुश्किल होगा. यह कोई नयी खोज नहीं है. अर्थशास्त्रियों को वर्षों से यह मालूम है, लेकिन वे इसे व्यापार व उद्योग नीति को लेकर अपने सुझावों में शामिल करने से चूक जाते हैं.

दूसरी बात ‘पीएलआई’ से जुड़ी है. एक बार फिर, आलोचनाएं जायज हैं लेकिन इस बात को भुला दिया जाता है कि अगर ‘पीएलआई’ विफल हो जाता है तो बहुत नुकसान नहीं होता. प्रस्तावित प्रोत्साहन मैक्रो अर्थव्यवस्था के लिहाज से काफी कम है.

कुल ‘पीएलआई’ पांच वर्षों में 2 ट्रिलियन रुपये से कम ही रहना चाहिए, इस अवधि में अपेक्षित जीडीपी के 1 प्रतिशत के 10वें हिस्से के बराबर. यह पूरी तरह मुमकिन है, अगर यह मान लिया जाए कि ‘पीएलआई’ स्थायी फिजूलखर्ची नहीं बनती.

‘पीएलआई’ सफल हो गया तब क्या होगा? सरकार का दावा है कि इससे करीब 3 ट्रिलियन रुपये मूल्य के निवेश होंगे. 5 साल का वह कुल योग चालू वर्ष की जीडीपी का बस 1 प्रतिशत है. यह कुछ भी नहीं है अगर इसकी तुलना फिक्स्ड एसेट्स में जीडीपी के करीब 30 फीसदी के बराबर सालाना निवेश से की जाए. लेकिन माना जाता है कि इससे कुल ‘कैपेक्स’ में मैन्युफैक्चरिंग के हिस्से में वृद्धि होगी, आयात के विकल्प पर्याप्त अनुपात में हासिल होंगे, निर्यातों को बढ़ावा मिलेगा, और 60 लाख रोजगार (मैन्युफैक्चरिंग में मौजूदा कुल रोजगार के 10वें हिस्से के बराबर) पैदा होंगे.

ऐसे दावों पर संदेह किया जाना चाहिए, लेकिन अगर मुमकिन वित्तीय प्रोत्साहन से यह सब हासिल हो जाता है तो ‘पीएलआई’ को जरूर और मजबूत बनाया जाए. तब यह चित में जीत आपकी, और पट में आपको थोड़ा नुकसान जैसा होगा.

(संपादन: इन्द्रजीत)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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