2014 के चुनावी घोषणा पत्र में बीजेपी ने श्रम आधारित विनिर्माण और पर्यटन को बढ़ावा देने का वादा किया था. साथ ही यह भी कि वह रोजगार कार्यालयों को कैरियर सेंटर में तब्दील करेगी. इसके अलावा चुनावी जनसभा में 1 करोड़ बेरोजगारों को रोजगार देने का वादा प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित हो चुके नरेंद्र मोदी ने किया था.
सरकार को काम करते 5 साल पूरे होने वाले हैं. प्रधानमंत्री मोदी से रोजगार का आंकड़ा मांगा जा रहा है. नौकरियां मांगने पर वह कभी पकौड़ा बनाने को रोजगार करार देते हैं, तो कभी असंगठित क्षेत्र के रोजगार का अनुमान थमा देते हैं. साथ ही वे कर्मचारी भविष्य निधि संगठन के आंकड़ों को रोजगार के आंकड़े के रूप में पेश करते हैं. देश में चौतरफा असंतोष सरकारी नौकरियों के लिए मारामारी को लेकर है. रोजगार तलाश रहे लोग आरक्षण मांग रहे हैं और उन्हें उम्मीद है कि आरक्षण से उन्हें फायदा मिल जाएगा.
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संसद में प्रधानमंत्री के रूप में अपने अंतिम भाषण में प्रधानमंत्री ने रोजगार के आंकड़ों का जिक्र नहीं किया. लंबे चौड़े व्यंग्य, विपक्ष के नेताओं का मजाक उड़ाने और उसके बाद क्रेडाई के एक कार्यक्रम में पहले की सरकारों को चोर और खुद को ईमानदार व कर्मठ बताने की कोशिश करते रहे. प्रधानमंत्री ईपीएफओ, आयकर रिटर्न आदि के आंकड़े देते रहे.
आइए सबसे पहले कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (ईपीएफओ) के आंकड़ों की हालत देखते हैं, जिसे प्रधानमंत्री ने रोजगार का आंकड़ा बताने की कवायद की है. सरकार 4 बार ईपीएफओ के पेरोल के आंकड़े जारी किए हैं और हर बार उसने पिछले अनुमान को संशोधित किया. दो अवसरों को छोड़कर हर बार संशोधन के बाद ये आंकड़े कम हुए हैं. सितंबर 2017 में जब पहली बार आंकड़े जारी किए गए तो संख्या थी 5,96,483. उसके बाद उसे संशोधित करके 5,29,432 कर दिया गया है. ईपीएफओ में पंजीकरण के आधार पर पेरोल का अनुमान लगाया है, जिससे सितंबर 2017 और फरवरी 2018 के बीच विरोधाभासी परिणाम सामने आते हैं. फरवरी 2018 में मासिक आधार पर जनवरी 2018 की तुलना में नौकरियों में 22 प्रतिशत की कमी आई और नौकरियों का सृजन 4 महीने के निम्न स्तर 4,72,075 व्यक्तियों पर रहा. इस तरह से ईपीएफओ के आंकड़े रोजगार के हिसाब से भरोसेमंद नहीं हैं.
रोजगार के आधिकारिक आंकड़े देने वाले सरकारी संगठन नैशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) के हाल के नौकरियों के सर्वे के मुताबिक भारत में बेरोजगारी पिछले 45 साल में उच्चतम स्तर पर है. भारत में काम करने वाली उम्र की आधे से ज्यादा आबादी के पास काम नहीं है. 15 साल और उससे ज्यादा उम्र की आधी से ज्यादा आबादी किसी आर्थिक गतिविधि में कोई भूमिका नहीं निभा रही है, यह अब तक का सर्वोच्च स्तर है. आबादी में लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट (एलएफपीआर), जो या तो काम कर रही हो, या काम के लिए उपलब्ध हो, 2011-12 में 55.9 प्रतिशत था, जो 2017-18 में तेजी से घटकर 49.5 प्रतिशत पर आ गई. एक दशक से ज्यादा समय पहले 2004-05 में श्रम बल में आबादी का 63.7 प्रतिशत हिस्सा था.
राष्ट्रपति के अभिभाषण के धन्यवाद प्रस्ताव में मोदी ने संसद में कहा, ‘बीते 4 साल में 36 लाख कॉमर्शियल गाड़ियां, 1.5 करोड़ पैसेंजर गाड़ियां और 27 लाख नए ऑटो बेचे गए. जिन लोगों ने इन गाड़ियों को खरीदा है, वे सिर्फ खड़ी करने के लिए तो नहीं हैं? आंकड़ों के मुताबिक करीब 1.5 करोड़ लोगों ने ट्रांसपोर्ट क्षेत्र में नए अवसरों का लाभ उठाया है. 50 फीसदी से ज्यादा नए होटलों को हरी झंडी दी गई है, जहां 1.5 करोड़ नए लोगों को नौकरी मिली है.’
यह सामान्य समझ की बात है कि जो गाड़ियां बिकी हैं वह खड़ी नहीं होंगी. लेकिन जब व्यक्ति बेरोजगार होता है तो कर्ज लेकर वाहन खरीद लेता है, भले ही उसका वाहन न चले और वाहन का ब्याज भुगतान करने में ही उसे आत्महत्या कर लेनी पड़े. सरकार अनौपचारिक रोजगार के आंकड़े गिनाने में लगी है, जिसके न तो आंकड़े होते हैं, न उसे सम्मानजनक माना जाता है. ठेले पर पकौड़ा, जलेबी बेचकर, बाजार में सब्जियां बेचकर, ऑटो चलाकर लोगों को रोजगार तो मिलता है, लेकिन उनके रोजगार में स्थिरता नहीं रहती. जिस दिन यह तबका काम नहीं करता, उसे उस दिन का वेतन नहीं मिलता. कामगार अगर बीमार पड़ जाए तो उसके उपचार के लिए कोई व्यवस्था नहीं है. सेवानिवृत्ति या छुट्टियों का कोई प्रावधान नहीं है.
ऐसे में पकौड़ा रोजगार को कभी रोजगार के रूप में नहीं देखा जाता है और यह काम करने वालों से अगर पूछा जाए कि आप नौकरी करते हैं, तो उनका जवाब यही होता है कि वो बेरोजगार हैं, उनके पास ढंग का कोई कोई रोजगार नहीं है. ठेले पर पकौड़ा, चाट, समोसा, फुलकी बेचने का काम पहले भी होता रहा है और संभवतः देश के किसी हिस्से में ठेलों की संख्या पहले कम नहीं थी, जो मोदी सरकार के आने के बाद बढ़ गई हो और उससे अतिरिक्त रोजगार का सृजन हो गया हो.
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अनौपचारिक क्षेत्र के रोजगार को समृद्धि की राह में काला धब्बा और सरकारों की विफलता ही माना जा सकता है. 5 फरवरी 2019 को मुंबई में टेक्नोलॉजी स्टार्टअप और सूचना तकनीक के क्षेत्र प्रतिनिधियों को संबोधित करते निजी क्षेत्र में रोजगार देने वाले सबसे बड़े समूह टाटा संस के चेयरमैन एन चंद्रशेखरन ने अनौपचारिक रोजगार को लेकर चिंता जताई और कहा कि देश में रोजगार की कमी का कोई मसला नहीं है. चंद्रशेखरन ने कहा कि बेहतर भुगतान की नौकरियां देना सबसे बड़ी चुनौती है.
सरकार के ही आंकड़े कहते हैं कि पिछले 5 साल के दौरान औपचारिक रोजगार कम हुआ है. सरकार रोजगार और बेहतर जिंदगी देने के दावे में विफल साबित हुई है.
(लेखिका राजनीतिक विश्लेषक हैं.)