एक कत्ल दो कातिल, दोनों पर है शक तो असली कातिल कौन? इस किस्म की कहानियां फिल्मी पर्दे के लिए नई नहीं हैं. लेकिन इस फिल्म की कहानी में अनोखापन यह है कि मर्डर के बाद तफ्तीश के दौरान पुलिस को कातिल की एक तस्वीर मिलती है और उसे पकड़ भी लिया जाता है कि तभी पुलिस को एक और युवक मिलता है जिसकी शक्ल, कद-काठी हूबहू उस कातिल जैसी है. पुलिस को यकीन है कि खून इन दोनों में से ही किसी ने किया है. हालांकि ये दोनों ही खुद को बेकसूर बता रहे हैं. डी.एन.ए. की जांच भी केस को सुलझाने की बजाय और अधिक उलझा देती है. आखिर सच क्या है? और क्या सचमुच ऐसा हो सकता है?
मार्च, 2019 में रिलीज हुई तमिल फिल्म ‘थड़म’ के इस हिन्दी रीमेक को असीम अरोड़ा ने लिखा है. वैसे इसे लिखने की बजाय अनुवाद करना कहें तो ज्यादा सही होगा क्योंकि कहानी तो वही है जो मूल तमिल फिल्म की थी. बस, उसे दिल्ली-गुरुग्राम की पृष्ठभूमि में लाकर संवादों को हिन्दी में लिख दिया गया है. वैसे भी ऐसी हर रीमेक फिल्म इस बात को और पुख्ता ही करती है कि हिन्दी वालों के पास सोचने-लिखने को कुछ ओरिजनल या तो है नहीं या फिर यहां ओरिजनल की कद्र नहीं रह गई है.
यह फिल्म एक ऐसी क्राइम-थ्रिलर है जिसमें हमशक्ल का तड़का लगने से सस्पैंस की खुराक भी काफी बढ़ गई है. लेकिन इसे उस तरह से कसा नहीं गया है कि देखने वाले बंधे हुए से बस यही इंतजार करते रहें कि अब आगे क्या होगा. कसूर पहली बार निर्देशक बने वर्धन केतकर का भी है जिन्होंने इंटरवल तक कहानी खींचने के नाम पर उसमें बेवजह गाने भर-भर कर इसे खोखला बना दिया. जब दर्शक कुछ दमदार होने की उम्मीद लिए बैठा होता है ठीक उसी समय फिल्म उसे रोमांस और गाने परोसने लगती है. परोसने वालों को समझना चाहिए कि सस्पैंस और थ्रिल के साथ इन चीजों का मेल बदहजमी करने लगता है.
ऐसी फिल्मों में आप न तो तर्कां से खिलवाड़ कर सकते हैं और न ही संयोगों पर भरोसा. मगर इस फिल्म में ऐसा ही हुआ है. पटकथा में कहीं-कहीं तर्क बुरी तरह से छूटते दिखाई दिए हैं. किरदारों का चरित्र-चित्रण भी कई जगह उलझा हुआ है. हीरो की प्रेमिका एक सीन में अपनी मां से साल में सिर्फ दो बार रस्मी तौर पर बात होने की बात बताती है और अगले ही सीन में वह उसी मां से मिलने को तड़पने लगती है. दोनों हमशक्ल नायकों के किरदारों में भी सहज प्रवाह नहीं दिखता. पुलिस को मात्र संयोग से कातिल की तस्वीर के तौर पर जो लीड मिलती है वह अगर न मिली होती तो?
आदित्य रॉय कपूर अपनी रेंज में रह कर अच्छा काम करना जानते हैं. मृणाल ठाकुर की एंट्री से लगता है कि इस फिल्म में वह नायिका बन कर उभरेंगी. लेकिन बहुत जल्द उनके किरदार को विस्तार मिलना बंद हो गया और रही-सही कसर उनके चेहरे पर चिपके इकलौते एक्सप्रैशन ने पूरी कर दी. रोनित रॉय खुद को दोहराते रहे. दीपक कालरा, मनोज बक्शी आदि ठीक-ठाक रहे. कुछ और बड़े नाम वाले कलाकारों की कमी भी खलती रही. गाने ठीक-ठाक ही रहे, हालांकि इनकी जरूरत नहीं थी.
बस टाइम पास बन कर रह गई इस फिल्म को थोड़ा और कस कर बनाया जाता तो यह एक उम्दा मर्डर-मिस्ट्री बन कर लंबे समय तक याद रह सकती थी. अफसोस, ऐसा नहीं हो सका है.
(दीपक दुआ 1993 से फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं. विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं.)
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