नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को 28 साल की सजा काट चुके अपराधी को यह जानने के बाद रिहा करने का आदेश दिया कि क्राइम करते समय वो केवल 12 साल का था, जिस वजह से हत्या के आरोप में उसे फांसी की सजा नहीं दी जा सकती है.
सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को मौत की सजा पाए एक दोषी को यह कहते हुए रिहा करने का निर्देश दिया कि वह अपराध के समय नाबालिग था और 28 साल से अधिक समय जेल में काट चुका है.
आरोपी नारायण चेतनराम चौधरी ने 1994 में राठी परिवार के दो बच्चों और पांच महिलाओं जिसमें से एक
एक गर्भवती थी उनकी हत्या कर दी थी. जस्टिस केएम जोसेफ, अनिरुद्ध बोस और हृषिकेश रॉय की बेंच ने मामले पर फैसला सुनाते हुए कहा कि किसी भी नाबालिक को मृत्युदंड नहीं दिया जा सकता और आरोपी पहले ही 28 साल की सजा काट चुका है.
अदालत ने आगे कहा कि 2015 के अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार, जिस अपराध के लिए उसे दोषी ठहराया गया था उस समय वो नाबालिग था, जिस कारण उसे मृत्युदंड की सजा नहीं दी जा सकती है.
1994 में आरोपी ने अपने दो अन्य साथियों के साथ मिलकर महाराष्ट्र के पुणे में पांच महिलाओं (जिनमें से एक गर्भवती थी) और दो बच्चों की हत्या की थी. जिसके बाद दोषी ‘नारायण’ को 5 सितंबर, 1994 को उसके राजस्थान के गांव से गिरफ्तार किया गया था और वह 28 साल से अधिक समय से जेल में है.
23 फरवरी, 1998 को एडिशनल सेशन जज, पुणे द्वारा नारायण को मौत की सजा सुनाई गई थी जिसके बाद बॉम्बे हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट दोनों ने उसकी सजा को कायम रखा था. सुप्रीम कोर्ट ने 24 नवंबर, 2000 को आरोपी नारायण की समीक्षा याचिका को खारिज कर दिया.
लगातार कोर्ट में अपील दर्ज करने के बावजूद भी नारायण ने कभी भी अपने नाबालिग होने की अपील नहीं की थी. लेकिन 14 अगस्त, 2005 में जब पुणे यरवदा केंद्रीय जेल के इंस्पेक्टर उससे मिलने पहुंचे तब नारायण ने पहली बार अपनी उम्र जानने के लिए एक मेडिकल टेस्ट करवाने का अनुरोध किया.
टेस्ट के अनुरोध के बाद नारायण को फोरेंसिक साइंस विभाग, बीजे मेडिकल कॉलेज और ससून जनरल अस्पताल, पुणे ले जाया गया. फॉरेंसिक मेडिसिन विभाग द्वारा आयु निर्धारण रिपोर्ट में पाया गया कि कुछ माइनर एरर के साथ 24 अगस्त 2005 को उसकी उम्र 22 वर्ष से अधिक लेकिन 40 वर्ष से कम थी.
‘नारायण’ या ‘निरानाराम’
2006 की शुरुआत में कुछ मानवाधिकार समूहों ने भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति को एक पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने माइनर होने के कारण आरोपी को डेथ पेनेल्टी न देने का अनुरोध किया था.
राष्ट्रपति को भेजे गए पत्र की जांच के दौरान पाया गया कि आरोपी एक सरकारी स्कूल में आरोपी का नाम निरानाराम था. इस पत्र के जांच के बाद पहली बार पता चला था कि ‘नारायण’ का नाम ‘निरानाराम’ भी है.
सभी प्रासंगिक दस्तावेजों के जांच के बाद न्यायालय ने कहा कि आरोपी का मूल नाम ‘निरानाराम’ था और उसने इस बात को साबित करने के लिए विभिन्न दस्तावेज भी कोर्ट में पेश किए है. कोर्ट के अनुसार याचिकाकर्ता की याचिका को इस आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता कि यह दावा देर से किया गया है.
बेंच ने नारायण की रिहाई का फैसला सुनाते हुए यह भी कहा कि क्या एक 12 साल का बच्चा ऐसा अपराध कर सकता है. लेकिन सिर्फ इस सोच से उसके अपराध पर पर्दा भी नहीं डाला जा सकता है.
जांच के दौरान नारायण के साथी राजू सरकारी गवाह बन गए थे और मुकदमे की सुनवाई के दौरान उन्हें माफ कर दिया गया था.
बाद में नारायण और तीसरे दोषी जीतेंद्र नैनसिंह गहलोत ने राष्ट्रपति के पास दया याचिका दायर की थी, जिसके बाद 2016 में गहलोत की मौत की सजा को उम्रकैद में बदल दिया गया था लेकिन 2000 में शीर्ष अदालत ने इसे खारिज कर दिया गया था.
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