1984 की भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों के लिए अतिरिक्त मुआवजे की मांग वाली केंद्र सरकार की क्यूरेटिव पेटीशन (उपचारात्मक याचिका) को खारिज करके सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने आंदोलन से जुड़ी सबसे पुरानी बहस को एक बार फिर चर्चा में ला दिया है. वह यह कि मुआवजे का भुगतान किसे करना चाहिए – भारत सरकार या यूनियन कार्बाइड कॉर्पोरेशन/डाउ केमिकल कंपनी?
वास्तव में, यह सवाल आपदाओ के कारण शुरू होने वाले पर्यावरण से जुड़े अधिकांश आंदोलनों का केंद्र बिंदु रहा है. इसका जवाब वही पुराना सिद्धांत है कि ‘प्रदूषण पैदा करने वाला’ भरपाई करता है.
सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने कहा, “सेटलमेंट के तीन दशक बाद मुआवजे का सवाल नहीं उठाया जा सकता.” 2010 में, केंद्र सरकार ने अनुरोध किया था कि मामले को फिर से खोला जाए और डाउ पीड़ितों और घातक गैस त्रासदी के बचे लोगों को लगभग 7,800 करोड़ रुपये का भुगतान करे. दलील इस तर्क पर आधारित थी कि 1989 के समझौते के दौरान मौतों और बीमारियों का सही आकलन नहीं किया गया था.
सूचना के अधिकार-प्राप्त दस्तावेजों से पता चलता है कि उस वक्त भारत सरकार को उपलब्ध कराई गई कैटेगरीज़ और पहुंची चोटों के आधार पर यूनियन कार्बाइड द्वारा 470 मिलियन डॉलर का भुगतान किया गया था.
यदि पुराना मामला फिर से खोला जाता है, तो “यह कई गड़े मुर्दे उखाड़ सकता है और दावेदारों के लिए नुकसानदाय साबित होगा.”
इतना ही नहीं, अदालत ने ज्यादा मुआवजा देने के लिए सरकार को खुद की जेब टटोलने की भी बात कही है.
ये ठीक बात नहीं है. कई लोग इस मामले में यह तर्क दे सकते हैं कि भविष्य में शायद डॉउ इस मामले में सामने आए (लेकिन इसकी संभावना न के बराबर है), इस मामले में भारत सरकार को आगे आना चाहिए और अपने नागरिकों को सहायता प्रदान करनी चाहिए. आखिरकार, पीड़ितों की देखभाल करना सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी है. क्योंकि इस कांड से पीड़ित लोग लंबे समय से काफी कुछ सहते आ रहे हैं. इसलिए सरकार को बस पैसे देने चाहिए और इस मामले को हमेशा के लिए बंद कर देना चाहिए.
लेकिन इसका मतलब सिर्फ इतना होगा कि इसका बोझ उन निर्दोष करदाताओं पर पड़ेगा जिनकी गैस त्रासदी में कोई भूमिका नहीं थी. तो एक अमेरिकी कंपनी के पापों के लिए भारतीय लोगों को दंडित क्यों करें?
इसका अर्थ यह भी होगा कि भारत अपने खुद के बनाए ‘प्रदूषण फैलाने वाले को भुगतान करना होगा’ जैसे कानून के सामने झुक जाए और अंतर्राष्ट्रीय रूप से पालन किए जाने वाले सिद्धांतों को छोड़ दे. भारत का प्रदूषण कानून इस त्रासदी की वजह से सीधे तौर पर उपजा था. भोपाल कांड की वजह से 8,000 लोगों की तुरंत (और लगभग 25,000 लोगों की कुछ सालों में) मृत्यु हो गई थी और लगभग 1,50,000 लोग स्थायी रूप से घायल हो गए थे.
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‘प्रदूषण फैलाने वाला भुगतान करता है’ बनाम चैरिटी
1997 के कलकत्ता टेनरीज़ के प्रदूषण मामले से लेकर 2016 में मैक्सिको की खाड़ी में शेल ऑफशोर तेल रिसाव तक के ज्यादातर मामलों में यह देखा गया है कि ‘प्रदूषण करने वाला भुगतान करता है.’
डाउ ने बार-बार कहा है कि 2001 में जब उसने यूनियन कार्बाइड का अधिग्रहण किया, तब तक पीड़ितों के लिए अदालत के बाहर पूर्ण और अंतिम समझौता (1989 में) हो चुका था और सरकार ने भी इसे स्वीकार कर लिया था. लेकिन इसका बचाव नहीं किया जा सकता और पीड़ितों ने जैसा कि अक्सर कहा है यह भारतीय अदालतों में लंबित दीवानी और आपराधिक मामलों की उपेक्षा करती है. उन्होंने यह भी कहा है कि जब डाउ ने कंपनी को खरीदा था, तो उसके साथ ही भोपाल में फैक्ट्री साइट की सफाई की पर्यावरणीय देनदारियां भी उसी की हो गई थीं.
जब 2007 में आरटीआई दस्तावेज़ सामने आए, जिसमें खुलासा हुआ कि रतन टाटा ने कथित तौर पर योजना आयोग के प्रमुख मोंटेक सिंह अहलूवालिया से कहा था कि वह कारखाने की जगह को साफ करने की पेशकश करना चाहते हैं, तो पीड़ितों के समूह ने इसे अस्वीकार कर दिया था.
यहां भी ‘प्रदूषण करने वाला भुगतान करता है’ सिद्धांत लागू हुआ. जिसका अमेरिका और भारत दोनों में पालन किया गया था. वे चाहते थे कि डाउ साइट की सफाई करे. हालांकि, इसे चैरिटी के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि दोष के सुधार के मुद्दे के रूप में देखा जाना चाहिए.
भोपाल में बचे लोगों के संगठनों ने मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ द्वारा याचिका को खारिज किए जाने की आलोचना की और इसे उनके संवैधानिक और कानूनी अधिकारों पर न्यायिक हमला बताया. उन्होंने यह भी शिकायत की कि अदालत ने उनकी दलीलें केवल 45 मिनट के लिए सुनीं, जबकि यूनियन कार्बाइड के वकील को पर्याप्त समय दिया गया. उन्होंने मजाक में इसे ‘फ्यूजिटिव इनटाइटलमेंट डॉक्टराइन’ कहा.
(रमा लक्ष्मी दिप्रिंट में ओपिनियन संपादक हैं. वे रिमेम्बर भोपाल म्यूजियम की क्यूरेटर भी हैं. धन की कमी के कारण संग्रहालय को अस्थायी रूप से बंद कर दिया गया है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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