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Wednesday, 18 December, 2024
होममत-विमत'लालच बुरी बला' संस्कृति वाले देश में कैसे लोभ-लालच व भ्रष्टाचार ‘जीवन का तरीका’ बना?

‘लालच बुरी बला’ संस्कृति वाले देश में कैसे लोभ-लालच व भ्रष्टाचार ‘जीवन का तरीका’ बना?

देश की राजनीतिक सत्ता पर किसी भी तरह अर्जित धन-सम्पत्ति अथवा पूंजी का इतना प्रभाव पहले कभी नहीं रहा, जितना इन कम्पनियों की ‘बिग मनी’ के दौर में है.

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पिछले दिनों छत्तीसगढ़ के भूतपूर्व प्रिंसिपल सेक्रेटरी अमन सिंह के विरुद्ध आय से अधिक संपत्ति अर्जन के मामले में दर्ज एफआईआर रद्द करने के हाई कोर्ट के आदेश को पलटते हुए सुप्रीम कोर्ट ने देश में फैले लोभ-लालच को लेकर बेहद कड़ी टिप्पणी की. मामले की सुनाई कर रही न्यायालय की न्यायमूर्ति एस रवीन्द्र भट व न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता की दो सदस्यीय बेंच ने यह तक कहने से संकोच नहीं किया कि लोभ-लालच की जाई अतृप्ति ने न सिर्फ भ्रष्टाचार को समाज का कैंसर बल्कि संविधान की प्रस्तावना में लिये गये धन के समान वितरण व सामाजिक न्याय के संकल्प को दूर का सपना बना डाला है.

बेंच ने इसको लेकर अफसोस भी जताया कि अब तो जिम्मेदार नागरिक भी कहते हैं कि लोभ-लालच व भ्रष्टाचार ‘जीवन का तरीका’ बन गये है. जबकि यह शर्म की बात होनी चाहिए कि इस तरीके के जीवन के कारण संवैधानिक आदर्शों के अनुपालन में तो लगातार गिरावट आ ही रही है, समाज में नैतिक मूल्यों का ह्र्रास भी तेज होता जा रहा है.

कई हलकों को उम्मीद थी कि बेंच की इन तल्ख टिप्पणियों के बाद देश में लोभ-लालच (जिन्हें प्रायः सारे धर्मो में अज्ञानता जैसा ही दुःख का कारण बताया गया है) को लेकर व्यापक बहस छिड़ेगी, साथ ही उससे निजात के उपायों पर भी विचार विमर्श आरंभ होगा. लेकिन अफसोस कि अब तक ऐसा कुछ भी होता नहीं दिखाई दे रहा और बात इस कदर आई गई हुई मान ली गई है कि इस पर भी विचार नहीं किया जा रहा कि ‘लालच बुरी बला है’ और ‘ज्यादा का नहीं लालच हमको, थोडे़ में गुजारा होता है’ की हमारी परम्परागत पहचान के बरक्स हमारे देश में इतना लोभ-लालच भला आया कहां से?

भूले-भटके इसकी चर्चा चल भी जाती है तो कई महानुभावों को यह तक स्वीकारने में असुविधा होती है कि न सिर्फ सत्ता, राजनीति, उद्योग व व्यापार, बल्कि खेलों के मैदानों तक में अनैतिकता, मूल्यहीनता व भ्रष्टाचार की ऊपर से अलग-अलग दिखने वाली जिन दुर्घटनाओं से हम प्रायः दो चार होते रहते हैं, वे वास्तव में लोभ-लालच के विकराल हो जाने से घट रही एक ही महा-दुर्घटना की अलग-अलग परिणतियां हैं.


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आज नहीं तो कल हालात बदल जायेंगे

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने इस महा-दुर्घटना को आजादी की पहली वर्षगांठ के अवसर पर ही पहचान लिया था. तभी उन्होंने देसी सत्ताधीशों के नये उभरते वर्ग की पतनशील प्रवृत्तियों को सुरसा की तरह मुंह फैलाते देखकर लिखा था-टोपी कहती है मैं थैली बन सकती हूं, कुर्ता कहता है मुझे बोरिया ही कर लो. ईमान बचाकर कहता है, आंखें सबकी बिकने को हूं तैयार खुशी हो जो दे दो.

तब से अब तक का इतिहास गवाह है कि ‘आज नहीं तो कल हालात बदल जायेंगे’ की उम्मीद पालते आ रहे देशवासियों को निराश करते हुए बीती शताब्दी के आखिरी दशक तक देश की नदियों में बहा पानी इस वर्ग की ‘सबकी आंखें बचाकर बिकने की मजबूरी’ को भी बहा ले गया! तब दुनिया मुट्ठी में करने को आतुर उसकी हसरतों ने पुरानी बाड़-बंदियों से निजात पाकर ‘ग्लोबल विलेेज’ के ताल से ताल मिलाया तो वे खरीद-बिक्री के मणिकांचन संयोग के ऐसे इस्तेमाल की ओर बढ़ चलीं कि देखने वालों की आंखें फटी की फटी रह जायें!

याद कीजिए, 1991 में पीवी नरसिंहराव की सरकार ने भूमंडलीकरण की नई आर्थिक नीतियों को तेजी से आगे बढ़ाना शुरू किया तो देश में ऐसा मानने वाले भी थे ही कि उसका उद्देश्य सत्तावर्ग द्वारा आजादी की लड़ाई के दौरान, अर्जित मूल्यों की बिक्री से देश-विदेश में जमा किये गये काले धन को खुलकर कलाबाजियां दिखाने का अवसर प्रदान करना है. पर तब सारे विरोधों की अनसुनी करके, साफ कहें तो सत्ताकांक्षी नेताओं की वर्गीय एकता के बूते उन नीतियों को थोप दिया गया जो अब देश के रंध्र-रंध्र से उसके मान व ईमान दोनों का लहू टपकाने पर आमादा है! मनुष्य को मनुष्य, राजनीति को राजनीति, खेलों को खेल और मनोरंजन को मनोरंजन के रूप में जिंदा नहीं रहने दे रहीं.

सर्वे गुणाः कांचनमाश्रयंते की तो उन्होंने ऐसी पुनप्र्रतिष्ठा कर दी है कि ‘पैसा गुरू और सब चेला!’ जैसी पुरानी कहावत पूंजी ब्रह्म और मुनाफा मोक्ष को युगसत्य बनाकर मोद मना रही है. बड़ी पूंजी व राज्य के गठजोड़ के बीच न किसी को समता पर आधारित समाजवादी समाज के निर्माण का संवैधानिक संकल्प याद है, न राष्ट्रपिता की बात कि यह धरती जरूरतें तो सबकी पूरी कर सकती है पर किसी एक व्यक्ति की भी हवस के लिए कम है. नेताओं की हवस तो कोई सीमा नहीं ही मान रही, डाॅक्टरों, फिल्मस्टारों, सेलीब्रिटियों व क्रिकेटरों जैसे दूसरे भगवान व जंटिलमैन भी उसे काबू नहीं कर पा रहे.

‘बिग मनी’

इस सिलसिले में एक और तथ्य गौरतलब है. यह कि देश में भूमंडलीकरण के पिछले तीन दशकों में जितने भी बड़े घपले, घोटाले या भ्रष्टाचार हुए हैं, उनका दूसरा पक्ष नेता, पत्रकार, क्रिकेटर, सेलीब्रिटी या सेनाधिकारी कोई भी हो, पहला पक्ष बड़ी देशी या बहुराष्ट्रीय कम्पनियां ही हैं. ऐसा नहीं है कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के वर्चस्व से पहले देश में भ्रष्टाचार होता ही नहीं था, लेकिन देश की राजनीतिक सत्ता पर किसी भी तरह अर्जित धन-सम्पत्ति अथवा पूंजी का इतना प्रभाव पहले कभी नहीं रहा, जितना इन कम्पनियों की ‘बिग मनी’ के दौर में है.

कहने वाले तो यहां तक कहते हैं कि उक्त कम्पनियों में से अनेक में हमारे लोकतंत्र पर सवारी गांठ रहे सत्ताधीशों या उनके अपनों का कालाधन लगा हुआ है. इतना ही नहीं, कई के कर्ताधर्ता, सीइओ व वकील सब उसी वर्ग से आते है जो अपने लोभ को तो जानते ही हैं, हमारे लोभ-लालच से भी वाकिफ हैं ओर इसीलिए ‘सफल’ हो रहे हैं!

सच पूछिए तो वे एक ही काम करते हैं-हमारी कुंठाओं व लोभों को प्रायोजित करने का. आकांक्षा व प्रतीक्षा के द्वंद्व की वह फांस तो इसमें लगातार उनकी मदद करती ही है, जिससे एक विज्ञापन के शब्द उधार लेकर कहें तो कोई बच नहीं पायेगा. अमीरों के लिए उनका संदेश होता है कि वे अभी और अमीर हो सकते हैं जबकि गरीबों के लिए यह कि उन्हें अपने जिल्लत या बदहाली के दिन खत्म करने हैं तो फौरन से पेश्तर लूटो-खाओ की ग्लोबल आंधी का हिस्सा बन जाना और ऐश्वर्य का कोई न कोई कोना अपने नाम आरक्षित करा लेना चाहिए. जिनसे और कुछ करते न बने, उन्हें अपने लोभ की तुष्टि के लिए ‘कौन बनेगा करोड़पति’ जैसे खेल खेलने और अपने दिन बहुरा लेना चाहिए.

चूंकि समतल पर रहकर देश व समाज के बारे में सोचते और नीति व नैतिकताओं का पालन करते हुए बूंद-बूंद भरने व खुश रहने का वक्त पीछे छूट गया है, इसलिए उनकी सारी प्रतिभाओं को बिना कुछ सोचे बिचारे, मनुष्य को संसाधन के तौर पर गढ़ने व संवेदनहीन बनाकर छोड़ देने वाले संस्थानों की शरण गहनी और मात्र ऐसे बड़े-बड़े पैकेजों में अपनी सार्थकता तलाशनी चाहिए जो लुटेरी कम्पनियों के सिवाय कोई और उपलब्ध ही नहीं करा सकता. क्या आश्चर्य कि ये कम्पनियां बड़े-बड़े पैकेज देकर हमारी युवाशक्ति के एक हिस्से को हमारी ही लूट के अभियान में इस्तेमाल कर रही हैं.

उन्होंने हमारे समूचे सत्तातंत्र को ऐसी रतौंधी के हवाले कर दिया है कि वह उनके अंतर्विरोधों को भी आशा की निगाह से देखता और गरीबी की रेखा के नीचे जीवन यापन करने वालों व कुपोषितों की संख्या तक को विवादास्पद बनाकर उनकी ओर से निगाहें फेर लेता और आगे बढ़कर नये इंडिया के जन्म का सोहर गाता है. उसे इससे कोई मतलब नहीं होता कि ये कम्पनियां भारतमाता से बड़ी माता हो गई हें और राजनीति से नियंत्रित होने के बजाय राजनीति को नियंत्रित करने लगी हैं.

दुर्भाग्य से फिर भी हम उन्हें इंगित करने को उत्सुक नहीं हैं, जो लगातार हमारे लोभों व लालचों को बेकाबू करने में लगे हैं ताकि एक दिन हमारा भविष्य फिक्स कर सकें! हालात यहां तक आ पहुंचे हैं कि 2014 में सब-कुछ बदल डालने के वायदे पर सिंहासन पर बैठे हमारे नये सत्ताधीश भी 24 जुलाई, 1991 को नरसिंहराव सरकार द्वारा प्रवर्तित आर्थिक नीतियों की सड़कों पर ही फर्राटा मारते बढे़ जा रहे. उन्हें हाइवे में बदल रहे हैं-भले ही उन नीतियों के प्रवर्तक अमेरिका तक का मन अब उन नीतियों से खट्टा हो चुका है और वह उन पर आंशिक ही सही, पुनर्विचार करता हुआ ‘अमेरिका फर्स्ट’ तक लौट चुका है.

(कृष्ण प्रताप सिंह अयोध्या स्थित जनमोर्चा अखबार के पूर्व संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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