नई दिल्ली: भारतीय राजनीति में युवा चेहरे और उनसे की जाने वाली उम्मीद कोई आज की बात नहीं है. युवा नेताओं का जादू ऐसा होता है कि पीएम नरेंद्र मोदी से लेकर राहुल गांधी तक ने ख़ुद को युवा बताकर पेश किया है. भारतीय राजनीति में हाल के समय में यूनिवर्सिटी से लेकर राज्यों और केंद्र तक में कई युवा चेहरे सामने आए जिनसे नेतृत्व की उम्मीद रही है.
इनमें जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) की तिकड़ी से लेकर गुजरात की तिकड़ी और यूपी-बिहार के परिवारवाद की तिकड़ी तक शामिल हैं. वहीं, इसमें एक नया नाम चंद्रशेखर आज़ाद का शामिल हुआ है जो शान से दलित जाति से आने वालों की राजनीतिक करते हैं.
अखिलेश यादव
इस लिस्ट में संभवत: ये सबसे बड़ा नाम है. अखिलेश यादव को भी अपनी राजनीति विरासत में मिली है. उनके पिता मुलायम सिंह समाजवादी पार्टी के प्रमुख थे. मुलयाम ने लंबे समय तक देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में लंबे समय तक शासन किया है. 2012 के विधानसभा चुनाव में किसी ने ये नहीं सोचा था कि मुलायम ख़ुद पीछे हटकर राज्य की सत्ता बेटे अखिलेश के हाथों में दे देंगे. अखिलेश को जब उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया तो ये भारतीय राजनीति के आमो ख़ास के लिए ये किसी आश्चर्य से कम नहीं था.
सीएम बनने के बाद अखिलेश ने दो बड़ी चीज़ें कीं. पहले पहल तो उन्होंने अपनी पार्टी के गुंडा एलिमेंट पर लगाम लगाई और फिर उन्होंने राज्य में विकास कार्यों को आगे बढ़ाया. पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी को उम्मीद से कहीं ज़्यादा सीटें मिली. इसे कोई भी समझ नहीं पा रहा था. ऊपर से जब आप उत्तर प्रदेश के वोटरों से बात करेंगे तो वो एकमत में आपको बताएंगे कि अखिलेश यादव ने राज्य के विकास कार्यों में ख़ूब ज़ोर लगाया है.
हालांकि, उनके शासन के समय भी राज्य की कानून व्यवस्था खस्तहाल रही. लेकिन अखिलेश की राजनीति अपने पिता से बिल्कुल अलग है. 2017 में उन्होंने पार्टी की कमान अपने हाथों में ले ली और बड़ी बेबाकी से कांग्रेस के साथ गठबंधन किया. वहीं, आम चुनाव से पहले मायावती की बहुजन समाज पार्टी से गठबंधन करने के लिए उन्होंने कोई करस बाकी नहीं छोड़ी.
भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान को मानक मानते हुए उन्होंने धर्मनिरपेक्षता पर ज़ोर दिया है. वहीं, उन्होंने जातिवादी राजनीति भी बेहद सालीनता भरे लिहाज़ में की है. मीडिया के साथ भी अखिलेश बेहद सहज रहते हैं और विपक्षी पार्टी के नेताओं के बीच भी उनकी छवि एक ऐसे नेता की है जो स्वीकार्य है. 2019 के आम चुनाव में उत्तर प्रदेश से संभवत: सबसे बड़ा चेहरा अखिलेश का है. उन्हें यूपी के महागठबंधन का अगुआ कहना ग़लत नहीं होगा. वर्तमान भारतीय युना नेताओं में अखिलेश वो चेहरा हैं जो भविष्य में देश का नेतृत्व करता नज़र आ सकता है.
तेजस्वी यादव
इस लिस्ट में तेजस्वी दूसरे नंबर का सबसे बड़ा चेहरा हैं. हालांकि, चिराग की तरह तेजस्वी को भी राजनीति विरासत में मिली है और उनके पिता लालू यादव उनके समकक्ष रामविलास पासवान से कहीं बड़े नेता हैं. भारतीय राजीनित पर लालू की सोशल इंजीनियरिंग ने अमिट छाप छोड़ी है. लेकिन लालू के दामन पर लगे चारा घोटाले के दाग ने उनकी राजनीति की कमर तोड़ दी.
चारा घोटाले के मामलों में सज़ायाफ्ता लालू की पार्टी ने 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में सबसे ज़्यादा सीटें जीती थीं. हालांकि, जनप्रतिनिधि कानून पर आए सुप्रीम कोर्ट के 2013 फैसले की वजह से लालू चुनाव लड़ने के योग्य नहीं थे. ऐसे में पार्टी की कमान भले ही लालू के हाथ में थी लेकिन विधानसभा में इसका प्रतिनिधित्व तेजस्वी के हाथों में चला गया. महागठबंधन की नीतीश कुमार वाली सरकार में तजस्वीर डिप्टी सीएम के पद पर तैनात हुए. यहां से तेजस्वी ने अपनी राजनीति को चमकाने का काम शुरू किया.
चाहे बिहार में महागठबंधन तोड़कर बीजेपी में शामिल होने वाली जेडीयू प्रमुख नीतीश कुमार हों या केंद्र की मोदी सरकार, अपने ऊपर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद तेजस्वी ने इन पर हमला करने का मौका नहीं छोड़ा. कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि बिहार के वर्तमान नेताओं में से तेजस्वी सोशल मीडिया स्टार हैं और उनके ज़्यादातर ट्वीट्स सुर्खियों में तब्दील हो जाते हैं. जाति आधारित मामलों में 13 प्लाइंट रोस्टर से लेकर सवर्णों को मिले आरक्षण पर तेजस्वी ने सामाजिक न्याय की वही लाइन अपनाई है जो उनके पिता की लाइन रही है.
2019 के चुनाव से पहले लालू राजनीतिक और कानूनी कारणों से हाशिए पर हैं. ऐसे में पिता की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल की कमान बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता तेजस्वी के हाथों में है. 2015 से अभी तक तेजस्वी ने जैसी राजनीति की है उसे देखते हुए ये कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि इस आम चुनाव में वो देश की राजनीति तय करने वाले राज्य बिहार के गेमचेंजर साबित हो सकते हैं.
चिराग पासवान
चिराग पासवान को राजनीति विरासत में मिली है. उनके पिता राम विलास पासवान बिहार से लेकर केंद्र तक में दिग्गज नेता रहे हैं. पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी भविष्य में चिराग के ही हाथों में होगी. शुरुआत में सिने जगत में अपना हाथ आजमाने वाले चिराग को जब उस क्षेत्र में सफलता नहीं मिली तो वो राजनीति में चले आए. पासवान बिहार की एक दलित जाति है जिसकी बिहार की राजनीति में निर्णायक भूमिका है.
वैसे पासवान ने अपने आप को कभी युवा नेता के तौर पर पेश नहीं किया. वहीं, उनके हिस्से अभी तक कोई राजनीतिक या सामाजिक सफलता भी नहीं लगी है. हालांकि, हाल ही में उनके पिता की पार्टी के एनडीए के साथ हुए गठबंधन में उनकी अहम भूमिका बताई जा रही है. वहीं, वो अपनी पार्टी से 2019 का चुनाव लड़ने वाले हैं. ऐसे में देखने वाली बात होगी कि देश की राजनीति पर इस युवा चेहरे का कैसा असर रहेता है.
जिग्नेश मेवानी
जिग्नेश मेवानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृह राज्य गुजरात से आते हैं. गुजरात के पिछले विधानसभा चुनाव में ऐसी अटकलें थी की मेवानी कांग्रेस के टिकट से चुनाव लड़ेंगे. लेकिन उन्होंने स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ने का फैसला किया और राज्य के वडगाम सीट से जीत हासिल की. हालांकि, मेवानी के ख़िलाफ़ अपना उम्मीदवार खड़ा नहीं करके कांग्रेस ने उन्हें अपना अप्रत्यक्ष समर्थन दिया था. गुजरात के अहमदाबाद में जन्मे मेवानी राज्य में दलितों के ख़िलाफ़ उना हुई हिंसा के बाद धीरे-धीरे सुर्खियों में आने लगे थे.
मेवानी को लेकर अभी तक देशद्रोह या ऐसा कोई और विवाद नहीं हुआ है और उनकी छवि एक पढ़े लिखे दलित युवा नेता की है. उनके पास जेएनयू जैसी ब्रांडिग या दिल्ली की राजनीति द्वारा किया गया हमला भी नहीं रहा. अंग्रेज़ी सहित्य की पढ़ाई करने वाले मेवानी ने पत्रकारिता की पढ़ाई करने के अलावा लॉ की भी पढ़ाई की है. वहीं, विधायक होने के अलावा उनकी पहचान एक वकील की भी है. ख़ुद दलित समुदाय से आने वाले मेवानी ने एक नेता के तौर पर कई सामाजिक आंदोलनों में भाग लिया है. अभी तक आए नामों में वो भारतीय राजनीति में सबसे सक्रिय युवा चेहरा हैं. हालांकि, वो 2019 का आम चुनाव लड़ेंगे या नहीं ये साफ नहीं है.
अल्पेश ठाकोर
अल्पेश ठाकोर भी मेवानी की तरह गुजरात से आते हैं. वो बिहार में कांग्रेस के प्रभारी हैं. ठाकोर से भी युवाओं के एक तबके ने नेतृत्व की उम्मीद लगा रखी थी. लेकिन पिछले साल वो महाराष्ट्र के राजे ठाकरे सरीखी राजनीति करने लगे. दरअसल, गुजरात में हुए एक रेप में आरोपी बिहार का था और इसे मुद्दा बनाकर ठाकोर बिहारियों को घेरने लगे जिसकी वजह से गुजरात में काम कर रहे बिहार के लोगों को भारी संख्या में पलायन करना पड़ा.
देखते ही देखते मामले ने तूल पकड़ा लिया जिसके बाद ठाकोर को अपने कदम पीछे खींच ये राजनीति बंद करनी पड़ी. उनकी इस हरकत की वजह से गुजरात से लेकर बिहार तक कांग्रेस को ख़ासी किरकिरी का सामना करना पड़ा था. इससे ठाकोर के युवा नेता होने और वैकल्पिक राजनीति देने वाली छवि को भी धक्का लगा था.
फिलहाल उन्हें लेकर ये अटकलें लगाई जा रही हैं कि वो कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हो सकते हैं. लेकिन ठाकोर ने इन अटकलों पर विराम लगा दिया है. गुजरात में क्षत्रीय-ठाकोर सेना का गठन करने वाले ठाकोर राधनपुर विधानसभा क्षेत्र से विधायक हैं. 2015 में गुजरात में हुए पटीदार आंदोलन के बाद ठाकोर ने एससी, एसटी और ओबीसी समुदाय वालों के लिए आरक्षण को लेकर एक आंदोलन भी किया था. मेवानी की तरह वो भी राज्य की राजनीति तक ही सिमटे हैं और अभी तक के मौजूदा तथ्यों के हिसाब से तो उनके राष्ट्रीय राजनीति में आने के कोई आसार नहीं है.
हार्दिक पटेल
अभी तक लिए गए नामों में हार्दिक सबसे बड़ा चेहरा हैं. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि पटीदार आंदोलन के इस अगुआ ने पीएम नरेंद्र मोदी के गढ़ में उनको तब चुनौती दी जब मोदी अपनी सबसे मज़बूत स्थिति में थे. हालांकि, ये चुनौती राजनीतिक होने के बजाए सामाजिक थी. 2015 में शुरू हुए पाटीदार आंदोलन के केंद्र पाटीदार समाज के लिए आरक्षण की मांग है. इससे जुड़े प्रदर्शन इतने ज़ोरदार रहे कि हार्दिक के ख़िलाफ़ देशद्रोह जैसे काले कानून तक का इस्तेमाल करना पड़ा.
2015 में हार्दिक ने पटेल अनमत आंदोलन समिति का गठन किया जिसकी मांग ये थी कि गुजरात में समृद्ध स्थिति में होने के बावजूद पटेलों को ओबीसी समुदाय में शामिल किया जाए. उनका मानना है कि बाकी समुदायों को मिलने वाले आरक्षण की वजह से पटेल समाज के लोग सरकारी नौकरियों में भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है. हिंसक-अहिंसक दोनों ही तरह से इस आंदोलन को चला चुके पटले अपने समुदाय के लोगों को आरक्षण तो नहीं दिलवा सके. अचरज की बात ये है कि हार्दिक ने ये सब महज़ 25 साल की उम्र में कर दिखाया.
पिछले गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान उनकी उम्र 25 साल से कम थी. इसी वजह से वो ये चुनाव नहीं लड़ पाए थे. कहना ग़लत नहीं होगा कि 182 सीटों वाले राज्य में जैसे तैसे 99 सीटें जीतने वाली बीजेपी को तब भारी नुकसान होता जब हार्दिक चुनाव लड़ रहे होते. उनके चुनाव नहीं लड़ने की वजह से पटेलों का वोट कांग्रेस की ओर नहीं मुड़ा जिससे बीजेपी फायदे की स्थिति में रही.
ताज़ा जानकारी ये है कि वो गुजरात के इकलौते युवा होंगे जो 2019 का आम चुनाव लड़ रहा होगा. ताज़ा जानकारी के मुताबिक पटेल ये चुनाव कांग्रेस की टिकट पर लड़ने वाले हैं. अब देखने वाली बात होगी कि राज्य की राजनीति से केंद्र की राजनीति की ओर आ रहे पटेल अपने मुद्दों को फिर से कैसे बैलेंस करते हैं.
कन्हैया कुमार
जेएनयू में हुए कथित देशद्रोह के बाद छात्र राजनीति से राष्ट्रीय स्तर की लाइमलाइट में आए कन्हैया से देश के एक तबके को बड़ी उम्मीदें रही हैं. कन्हैया को लेकर जब विवाद शुरू हुआ था और उनसे जब राजनीति में आने से जुड़ा सवाल पूछा गया था तो उन्होंने कहा था कि वो अपनी पीएचडी में व्यस्त है और राजनीति में नहीं आने वाले. लेकिन ताज़ा हाल ये है कि वो कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआई) की टिकट पर बिहार के अपने गृहनगर बेगुसराय से चुनाव लड़ने वाले हैं.
जेएनयू में कन्हैया ऑल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन (एआईएसएफ) के बैनर तले राजनीति करते थे. एआईएसएफ सीपीआई का छात्र संघ है. सीपीआई लेफ्ट पार्टियों का एक धड़ा है और वर्तमान भारतीय राजनीति में लेफ्ट पार्टियां हाशिए पर खड़ी हैं. ऐसे में देखने वाली बात होगी की अगर कन्हैया जीत भी जाते हैं तो पिछले चुनाव में दहाई का भी आंकड़ा नहीं पार कर सकने वाली लेफ्ट पार्टी के सांसद बनकर वो देश में क्या बदलाव ला पाते हैं. लेफ्ट का हाल ये है जिन तीन राज्यों में ये पार्टी बेहद मज़बूत थी उनमें पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और केरल शामिल हैं और इनमें से ये पार्टी सिर्फ केरल में बची है.
हालांकि, 2004 में अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार जाने के बाद बीजेपी भी 10 सालों तक केंद्र की सत्ता में आने को तरस कर रह गई थी. लेकिन राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ (आरएसएस) की संगठन के स्तर की मज़बूती, ज़मीनी काम के अलावा प्रचार आधारित नरेंद्र मोदी के करिश्मे ने पार्टी को केंद्र ही नहीं बल्कि एक समय भारत के 22 राज्यों में काबिज कर दिया. संघ की स्तर की संगठन वाली मज़बूती कुछ हद तक लेफ्ट पार्टियों के पास भी है. ऐसे में देखने वाली बात होगी कि क्या कन्हैया लेफ्ट के नरेंद्र मोदी साबित होते हैं या नहीं.
शेहला राशिद
जेएनयू में हुए कथित देशद्रोह में दूसरा सबसे चर्चित नाम कश्मीर से आने वाली छात्र नेता शेहला राशिद का था. श्रीनगर में जन्मी शेहला भारतीय राजनीति में इसलिए बेहद अलग हैं क्योंकि पहले तो वो कश्मीर से हैं फिर वो एक मुस्लिम हैं और एक महिला भी हैं. इन तीन पहचानों के साथ दिल्ली की राजनीति में धमक देना अपने आप में करिश्मा है. बहुत लोगों को ये भ्रम है कि कन्हैया, शेहला और उमर एक ही पार्टी के छात्र संघ के लिए राजनीति करते थे. ये तथ्य ग़लत है.
कन्हैया के उल्ट शेहला ऑल इंडिया स्टूडेंट एसोसिएशन (आइसा) से आती हैं. ये लेफ्ट पार्टियों के एक और धड़े कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्कसिस्ट-लेनिनिस्ट) लिबरेशन का छात्र संघ है. जेएनयू आइसा की राजनीति एआईएसएफ विरोधी रहती है. हालांकि, कई बार ये बीजेपी के छात्रसंघ अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को हराने के लिए हाथ मिला लेते हैं.
शेहला को लेकर शुरुआती आटकलें ये थीं कि वो कांग्रेस के पाले में जा सकती हैं. लेकिन 2019 आते-आते कांग्रेस चुनावों में कई बड़ी जीत हासिल करके पटरी पर लौटती दिख रही है जिससे शेहला का इस पार्टी में जाना मुश्किल लग रहा है. वहीं, बीते समय में सोशल मीडिया पर अपने बयानों और सामाजिक मुद्दों पर अपने स्टैंड से शेहला ने साफ किया है कि उनकी राजनीति का केंद्र जम्मू-कश्मीर और मुसलमान होंगे. अपने सबसे ताज़ा बयान में उन्होंने संसद हमले के दोषी रहे अफज़ल गुरू के बेटे के लिए भारत सरकार से पासपोर्ट की मांग की है. वहीं, शेहला ने मुस्लिम समाज में बुरके जैसी कुरीतियों का भी बचाव किया है.
हालिया समय में उन्होंने अपनी राजनीति को कश्मीर केंद्रीत बनाया है जिसकी वजह से ऐसी अटकलें लगाई जा रही हैं वो जम्मु-कश्मीर की मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों में शामिल नेशनल कॉन्फ्रेंस या पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी से चुनाव लड़ सकती हैं. घाटी ने पहले ही महबूबा मुफ्ती के तौर पर देश को एक सशक्त मुस्लिम महिला नेता दिया है. लेकिन महबूबा की राजनीति उनके पिता की विरासत है. ऐसे में देखने वाली बात होगी कि जब देश के सबसे विवादित राज्य से एक मुस्लिम महिला नेता अगर संसद पहुंचती हैं तो देश की राजनीति पर इसका क्या असर पड़ता है.
उमर ख़ालिद
जेएनयू में हुए कथित देशद्रोह में तीसरा सबसे चर्चित नाम उमर ख़ालिद का रहा. ख़ालिद जब जेएनयू में थे तब वो डेमोक्रेटिक स्टूडेंट फेडरेशन (डीएसएफ) की राजनीति करते थे. जेएनयू विवाद की तिकड़ी में से ख़ालिद इकलौते हैं जिनकी मुख्यधारा की राजनीति साफ नहीं है. उनकी तो किसी पार्टी से जुड़ने को लेकर किसी तरह की अटकलें भी नहीं रहीं. ख़ालिद की पहचान राजनीति में शामिल रहने से ज़्यादा एक कार्यकर्ता की रही है और अपने इसी तरह के काम की वजह से फिलहाल वो भगत सिंह अंबेडकर स्टूडेंट ऑर्गेनाइज़ेशन और यूनाइटेड अगेंस्ट हेट से जुड़े हुए हैं. इन दोनों ही संस्थानों की राजनीति सेंटर से लेफ्ट की है.
अगर आप ख़ालिद के ट्विट्स देखेंगे तो भी एक चीज़ साफ पाएंगे कि वो आम लोगों की तरह सरकार की आलोचना और सामाजिक मुद्दों पर बातचीत से जुड़े हैं और उनमें किसी राजनीति पार्टी के समर्थन की कोई बातचीत नहीं. जैसे जैसे जेएनयू विवाद शांत हुआ है वैसे वैसे ख़ालिद मीडिया की निगाहों से दूर होते चले गए हैं. देखने वाली बात होगी कि अगर वो राजनीति में नहीं आते हैं तो एक कार्यकर्ता के तौर पर वो भारतीय समाज और राजनीति में क्या योगदान दे पाते हैं.
इस लिस्ट में उद्धव ठाकरे के बेटे आदित्य ठाकरे से लेकर कांग्रेस के सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया और बीजेपी के अनुराग ठाकुर जैसे नेताओं का भी नाम शामिल किया जा सकता है. आप इन सबकी राजनीति से सहमत असहमत हो सकते हैं. लेकिन इस बात की भारी संभावना है कि भारत के भविष्य की राजनीति में अगर कोई करिश्मा नहीं होता तो देश की कमान इन नेताओं के हाथों में ही होगी.
Kanhaiya kumar is th best yuva political leader best talent all department in india ,my favourite leader kanhiya kumar