scorecardresearch
Friday, 22 November, 2024
होमदेशक्या भारत का प्रोजेक्ट टाइगर विफल हो रहा है? कॉर्बेट से लेकर पेंच और कान्हा तक बाघों की मौत

क्या भारत का प्रोजेक्ट टाइगर विफल हो रहा है? कॉर्बेट से लेकर पेंच और कान्हा तक बाघों की मौत

पिछले एआईटीई के अनुसार, मध्य प्रदेश में 526 बाघ हैं और उसके बाद कर्नाटक में 524 बाघ हैं. 2011 और 2022 के बीच मृत्यु दर में मध्य प्रदेश (270) की तुलना में कर्नाटक में सिर्फ 150 बाघों की मौतें दर्ज की गईं.

Text Size:

एक बाघिन का अभी-अभी पोस्टमार्टम हुआ है और कॉर्बेट टाइगर रिजर्व उत्तराखंड के वरिष्ठ वन अधिकारियों के लिए  वैटरिनेरियन ने बुरी खबर दी है.

वैटरिनेरियन ने फोन पर कहा, ‘बाघिन के लीवर को बुरी तरह से नुकसान पहुंचाया गया है. मैंने अपने पूरी जीवन में ऐसा मामला नहीं देखा है. यह सामान्य नहीं है.’ बाघिन को उसी जगह पर मृत पाया गया था जहां उसने फरवरी में अल्मोड़ा में एक महिला को अपना शिकार बनाया था.

दरअसल, फरवरी महीने में एक बाघिन अल्मोड़ा के रिहाइशी इलाके में एक महिला पर हमला कर दिया था जिसमें उसकी मौत हो गई थी. घटना के तीन दिन बाद अल्मोड़ा में बाघिन मृत पाई गई थी.

वन विभाग के अधिकारी, जो अभी-अभी जंगल का दौरा करके लौटे थे, एक शब्द नहीं बोले, लेकिन कमरे में तनाव महसूस किया जा सकता था. वन अधिकारियों को शक है कि लोगों ने ही उस बाघिन को मारा होगा.

वेटेरिनेरियन कहते हैं, ‘सर, हमें टाइगर्स को बचाना होगा. जंगल दिन-ब-दिन झाड़ बनते जा रहे हैं. मानव और टाइगर्स के बीच के संघर्ष को कम करना होगा.’

2023 में टाइगर्स प्रोजेक्ट को 50 साल पूरे हो रहे हैं. वन अधिकारियों ने बताया कि अप्रैल महीने में इस अवसर पर पीएम नरेंद्र मोदी कुछ घोषणाएं कर सकते हैं. साथ ही अगले महीने सीजेआई डी वाई चंद्रचूड़ की भी कॉर्बेट टाइगर रिजर्व के दौरा करने की संभावना है. साथ ही, जी20 का प्रतिनिधिमंडल 25 से 28 मार्च तक दौरा करेगा, एक अधिकारी ने इसकी पुष्टि की है.

प्रोजेक्ट टाइगर को एक शानदार सफलता के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है – जंगल में इन बड़ी बिल्लियों की संख्या 2006 में 1,411 से लगभग दोगुनी होकर 2018 की जनगणना के अनुसार 2,967 हो गई. भारत दुनिया के लगभग दो-तिहाई बाघों का घर होने के साथ, यह उपलब्धि और अधिक प्रभावशाली हो जाती है. 2022 ऑल इंडिया टाइगर एस्टीमेशन इस साल जारी होने की उम्मीद है.

लेकिन पिछले पांच सालों से रीपॉपुलेटिंग की कहानी अधूरी नजर आती है. टाइगर्स मर रहे हैं. 2023 में बमुश्किल दो महीने 37 बाघों के मरने की सूचना दी जा चुकी है. 26 फरवरी को, महाराष्ट्र, केरल और उत्तराखंड में तीन बाघों की मौत को राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) ने दर्ज किया था. इस साल, सिर्फ मध्य प्रदेश में नौ बाघों की मौत हुई, जबकि महाराष्ट्र इस मामले में दूसरे नंबर पर (8) और उत्तराखंड, छह बाघों की मौतों के साथ तीसरे नंबर पर रहा.

वो जल्द ही पोस्ट मार्टम रिपोर्ट को बरेली के आईवीआरआई डीम्ड यूनिवर्सिटी और देहरादून के वाइल्ड लाइफ इंडिया इंस्टीट्यूट को अपनी रिपोर्ट सौंपेगे.

लेकिन एनटीसीए के एक वरिष्ठ अधिकारी ने दिप्रिंट से बात की तो उन्होंने कहा कि घबराने की कोई बात नहीं है. ‘यह एक प्राकृतिक चक्र है.’

पिछले साल, 121 बाघों के मरने की सूचना मिली थी और 2021 में यह संख्या 127 से भी अधिक थी. वन अधिकारियों के साथ-साथ सरकार द्वारा संचालित अनुसंधान संस्थानों के शोधकर्ताओं और वैज्ञानिकों ने दिप्रिंट से बात की थी, ने बताया कि बाघों की बढ़ती आबादी के साथ-साथ मौतों में प्राकृतिक और एनिमल कॉन्फ्लिक्ट के कारण भी वृद्धि हुई है. रेडियो-कॉलर एक और कारण है जिसका विशेषज्ञ हवाला देते हैं.

फिर भी, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने इतनी अधिक मौतों के कारण की जांच तेज कर दी है.उसने आदेश दिया कि हर एक बाघ की मौत की गहन जांच की जानी चाहिए.

निवास स्थान (हैबिटेट) का नुकसान, जेनेटिक आइसोलेशन, बीमारी, क्षेत्रीय झगड़े, रेल दुर्घटनाएं, अवैध शिकार, सभी ने पहले से ही लुप्त होती प्रजातियों के विनाश को तेज करने में भूमिका निभाई है.

पार्कों के अधिकारी, अक्सर प्राकृतिक मौतों और टाइगर रिजर्व से बाहर भटकने वाले टाइगर्स का हवाला देते हैं, वे खोए हुए हैं, मरे नहीं हैं, वे ऐसा प्रतीत करते हैं, लेकिन उत्तराखंड में मारी गई बाघिन के हश्र से कुछ छिपा नहीं है.

अल्मोड़ा बाघिन की मौत की पोस्टमार्टम रिपोर्ट जल्द ही बरेली की आईवीआरआई डीम्ड यूनिवर्सिटी और देहरादून के वाइल्डलाइफ इंडिया इंस्टीट्यूट द्वारा सौंपी जाएगी. रिपोर्ट अभी भी आईवीआरआई के पास है. उनके पास देश भर से पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट आती हैं जिसके कारण उन्हें जारी होने में 15 से 20 दिन का समय लग जाता है.

सरकार ढिलाई नहीं बरत सकती. बाघ को बचाने के लिए भारी धनराशि खर्च की गई है- यह राष्ट्रीय गौरव और दिखावे की बात है. अपने 50वें वर्ष में अकेले प्रोजेक्ट टाइगर को 331 करोड़ रुपए दिए गए हैं जबकि पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने अपने आवंटन में पिछले वर्ष की तुलना में 24 प्रतिशत की वृद्धि देखी है.

राजाजी नेशनल पार्क के पूर्व ऑनरेरी वाइल्ड लाइफ वार्डन राजीव मेहता कहता हैं, ‘पिछले 50 सालों में टाइगर रिजर्व के बजट को देखें तो वो कई हजार करोड़ों का रहा है. इस लिहाज से इस देश में हर एक टाइगर की कीमत करोड़ों की है. इससे टाइगर की अब तक संख्या 7 से 8 हजार होनी चाहिए थी लेकिन अभी तक हमारे पास सिर्फ 3 हजार बाघ ही हैं.’


यह भी पढ़ें: ‘चाचा’ ने किया बलात्कार, कैसे 13 वर्षीय मां स्टिग्मा से लड़ रही है – ‘अगर हम बच्चा रखेंगे तो इससे कौन शादी करेगा?’


मौत के डेटा में हेराफेरी

मेहता की घर की दीवारें बाघों के प्रति उनके आकर्षण को दर्शाती हैं. उनके हरिद्वार वाले घर में दीवारों पर बाघों की तस्वीरों से लगी हुई हैं; वह जिस कुर्सी पर बैठा है उसमें टाइगर प्रिंट अपहोल्स्ट्री है; साइड में रखी एक दराज़ पर बड़ी बिल्ली की एक छोटी मूर्ति है और टाइगर्स पर लिखी किताबें मेज पर बिखरे पड़ी हैं.

मेहता ने आरोप लगाया, ‘वन विभाग अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए अवैध शिकार और जहर से मारे गए बाघों की मौत को छिपाने के लिए पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट में हेरफेर करते हैं.’ पहले भी, उन्होंने कॉर्बेट टाइगर रिजर्व में आला वन अधिकारियों पर अवैध शिकार से होने वाली मौतों को छिपाने का भी आरोप लगाया था.

उनका आरोप है, ‘कई बार वन विभाग के लोग भी पोस्टमार्टम टीम का हिस्सा होते हैं, जिससे पारदर्शिता नहीं आ पाती है.’ पोस्टमार्टम टीम में आमतौर पर वन अधिकारी, पशु चिकित्सक, एनजीओ के सदस्य, पत्रकार शामिल होते हैं.

2016 में, मेहता ने यह उजागर किया था कि कैसे कॉर्बेट के अधिकारी 2016 में एक अवैध शिकार की घटना पर नकेल कसने में विफल रहे थे. पांच बाघ की खाल और 130 किलोग्राम बाघ की हड्डियां – माना जाता है कि वो बाघों की थी – एक शिकारियों के गिरोह से बरामद की गईं थीं.

बाद की पूछताछ में, मेहता ने दावा किया कि उन्होंने और उनकी टीम ने शिकारियों द्वारा इस्तेमाल किए गए हथियारों को ढूंढ लिया था और उन्हें कॉर्बेट टाइगर रिजर्व के तत्कालीन निदेशक और वरिष्ठ वन अधिकारियों को सौंप दिया था. जांचकर्ताओं को दिए अपने बयान में, उन्होंने संदेह साझा किया कि उन्होंने जो सबूत सौंपे थे, उन्हें या तो नष्ट कर दिया गया था या छिपा दिया गया था.

मेहता ने दिप्रिंट को बताया, ‘शिकारी कभी-कभी भैंसों पर जहर लगा देते हैं,और जब बाघ उनका शिकार करता है, तो वह जहर से मर जाता हैं. जवाबदेही से बचने के लिए, वन विभाग के अधिकारी कभी-कभी पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट में ऐसे मामलों को प्राकृतिक मौत दिखा देते हैं. वो मौत को एनिमल कॉन्फ्लिक्ट के रूप में दिखा कर इससे बचने की कोशिश करते हैं.’

एनसीटीए, जो अपनी वेबसाइट पर बड़ी बिल्लियों से संबंधित सभी डेटा का दस्तावेजीकरण करता है, ने कहा कि ये आरोप निराधार बताए हैं.

एनटीसीए के वैज्ञानिक कौशिक बनर्जी ने कहा, ‘हमारे पास पोस्टमार्टम टीम के लिए दिशा-निर्देश हैं, सभी को उस प्रोटोकॉल का पालन करना होता है. पोस्टमॉर्टम टीम में एनजीओ जैसे विभिन्न संगठनों के लोग शामिल हैं.’

वन अधिकारियों द्वारा टाइगर्स की मौत का सबसे आम कारण एनिमल कॉन्फ्लिक्ट (दो जानवरों के बीच क्षेत्र को लेकर आपसी संघर्ष) है. 2011-2022 के बीच हुई 1,062 मौतों में से आधे से अधिक, 53.2 प्रतिशत टाइगर रिजर्व के भीतर हुईं, और 35.22 प्रतिशत या 374 टाइगर रिजर्व के बाहर हुई.

पेंच टाइगर रिजर्व के फॉरेस्ट डिप्टी डायरेक्टर रजनीश कुमार ने कहा, ‘जैसे-जैसे बाघों की संख्या बढ़ेगी, उनके बीच संघर्ष भी बढ़ेगा और यह पूरी तरह से प्राकृतिक प्रक्रिया है.’


यह भी पढ़ें: ‘हम सब बेरोजगार हो जाएंगे,’ फ्लैग कोड में बदलाव का कर्नाटक खादी ग्रामोद्योग संयुक्ता संघ करता रहेगा विरोध


भारत का टाइगर स्टेट

‘प्राकृतिक’ शब्द बाघों की मौतों के लिए आधिकारिक स्पष्टीकरण में अक्सर पॉप अप होता है, खासकर मध्य प्रदेश में, जिसे ‘टाइगर स्टेट’ का ख़िताब मिला हुआ है लेकिन इसने भारत में सबसे ज्यादा मौतों की सूचना भी दी है, 2022 में 34 बाघों की मौत और पिछले साल यहां 41 बाघों की मौत हुई है.

डब्लूआईआई के पूर्व डीन डॉ. वाईवी झाला ने दिप्रिंट को बताया, ‘मध्य प्रदेश में देश में बाघों की सबसे अधिक आबादी है. इससे उनकी मौत का आंकड़ा भी स्वाभाविक रूप से बढ़ जाता है. बाघों के बीच क्षेत्रीय लड़ाई से बचा नहीं जा सकता क्योंकि यह उनके लिए एक प्राकृतिक प्रक्रिया है.’

बांधवगढ़ से पेंच से कान्हा तक, भारत में सबसे बड़े, सबसे पुराने और सबसे लोकप्रिय टाइगर रिजर्व में से एक हैं. इस राजसी जानवर की धारीदार महिमा की एक झलक पाने के लिए दुनिया भर से लोग यहां यात्रा करते हैं.

वाइल्डलाइव कंजर्वेशन सोसायटी के भारत कार्यक्रम के पूर्व निदेशक, के. उल्लास कारंत ने तर्क दिया कि मौतों की बढ़ती हुई दर ‘प्राकृतिक’ है.

उन्होंने कहा, ‘जब बाघ ज्यादा होंगे और उसके बच्चे अधिक किशोर अवस्था तक जीवित रहेंगे तो इनकी तादाद में इज़ाफ़ा होगा और इनकी अधिक मौतों की सूचना दी जाएगी. छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, उत्तर पूर्वी पहाड़ी राज्यों में बहुत कम मौतें हुई हैं क्योंकि बहुत कम बाघ बचे हैं और बहुत कम प्रजनन हुआ है.’

लेकिन तर्क कर्नाटक के लिए लागू नहीं होता है.

पिछले ऑल इंडिया टाइगर एस्टीमेशन के अनुसार, मध्य प्रदेश में 526 बाघ थे और उसके बाद कर्नाटक में 524 बाघ थे. फिर भी, जब 2011 और 2022 के बीच मृत्यु दर की बात आती है, तो मध्य प्रदेश (270) की तुलना में कर्नाटक में सिर्फ 150 बाघों की मृत्यु दर्ज की गई.

नर बाघों को 60-150 वर्ग किलोमीटर की घरेलू सीमा की जरूरत होती है और मादाओं को 20-60 वर्ग किमी के बीच की. लेकिन जगह सीमित है. रिजर्व तेजी से अलग-थलग होते जा रहे हैं, बाघों के घूमने के गलियारे सिकुड़ते जा रहे हैं, जो बदले में इनकी जेनेटिक डायवर्सिटी को प्रभावित करते हैं. नैचर मैग्जीन में एक रिपोर्ट में, वाइल्ड कंसर्वेशन ट्रस्ट में कंसर्वेशन रिसर्च के प्रमुख आदित्य जोशी ने चेतावनी दी, अगर बाघ नहीं घूम सकते हैं, तो रिजर्व में छोटी आबादी लंबे समय तक जनसांख्यिकीय रूप से व्यवहार्य नहीं होगी.

डॉ. प्रयाग मधुकर धकाते, चीफ कंजर्वेटर ऑफ फॉरेस्ट (पश्चिमी सर्कल) और शाह एम. बेलाल (वैज्ञानिक), उत्तराखंड फॉरेस्ट डिपार्टमेंट द्वारा किए गए एक स्टडी में पाया गया कि 1990 से 2015 तक कॉर्बेट टाइगर रिजर्व के बफर में वन कवर 55 से 43 प्रतिशत गिर गया. इसी समय, मानव बस्तियां चार से नौ प्रतिशत तक बढ़ गईं और कृषि क्षेत्र लगभग 26 से बढ़कर 31 प्रतिशत हो गया.

कॉर्बेट टाइगर रिजर्व, रामनगर में वन विभाग के अधिकारी सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ के दौरे की तैयारियों में जुटे हुए हैं. ढिकाला डिवीजन के एक परेशान वन विभाग के अधिकारी ने अपनी पहचान नहीं छापने की शर्त पर दिप्रिंट को बताया, ‘हमारी 24 घंटे की ड्यूटी है. हमें एक ही समय में सफारी की सुरक्षा, जानवरों की सुरक्षा और स्थानीय लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करनी होती है.’

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने बाघ रिजर्व, नेशनल पार्क और वाइल्ड लाइफ सेंक्चुरी के मुख्य क्षेत्र में किसी भी प्रकार के निर्माण पर रोक लगा दी है.

भोपाल स्थित वन्यजीव कार्यकर्ता और एनटीसीए द्वारा प्रस्तावित सिफारिशों को लागू करने के लिए दिशा-निर्देश मांगने वाले एक मामले में याचिकाकर्ता अजय दुबे ने दिप्रिंट से कहा , ‘जब टाइगर रेंज में जमीन का अतिक्रमण किया जाएगा, सड़कें, सफारी और रिसॉर्ट बनाए जाएंगे, तो बाघों के लिए जमीन कम होगी. इससे बाघों के बीच संघर्ष अपने आप बढ़ जाएगा. इसे कम करने के लिए, सरकार को बाघों को अन्य रिजर्व में ट्रांसफर करना चाहिए.’


यह भी पढ़ें: खत्म होने के बावजूद आज भी कैसे शाहीन बाग की महिलाओं ने जिंदा रखा है आंदोलन


हत्यारा कॉलर?

‘प्राकृतिक’ कारणों और संघर्ष के बाद, बाघों की मौत के कारण के रूप में खराब और निष्क्रिय रेडियो कॉलरेस को जिम्मेदार माना जाता है. पिछले कुछ वर्षों में पश्चिम बंगाल में सुंदरवन से लेकर महाराष्ट्र में ताडोबा रिजर्व तक के बाघों ने ‘रेडियो-कॉलर इंफेक्शन’ के कारण दम तोड़ दिया. संक्रमण के अलावा, विशेषज्ञों का यह भी मानना ​​है कि कॉलर टाइगर्स के मूवमेंट में भी बाधा डालते हैं और शिकारियों द्वारा बाघों का पता लगाने के लिए हैक किए जा सकते हैं.

कॉर्बेट में वन अधिकारियों की भी अपनी एक थ्यौरी है.

कॉर्बेट रिजर्व के ढिकाला डिवीजन के एक वन विभाग के अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, ‘रेडियो कॉलर से निकलने वाली रेज़ से बाघों को बहुत नुकसान होता है. वे इसके वजन के कारण संभोग करने में असमर्थ होते हैं. इसके अलावा, वे इसके साथ प्रजनन में समस्याओं का सामना करते हैं.’

लेकिन वैज्ञानिकों का तर्क है कि संरक्षण के प्रयासों में रेडियो कॉलर सफल रहे हैं. वाइल्डलाइफ इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया के वैज्ञानिक के. रमेश इसे ‘उम्मीद की किरण’ कहते हैं जो बाघ के घूमने के पैटर्न और स्थिति के बारे में सटीक जानकारी देता है. उन्होंने कहा, ‘इसने इंसानों और बाघों के बारे में हमारी समझ के बीच की खाई को पाट दिया है.’

दुबे ने सरकार जिन उपकरणों पर निवेश कर रही है उनकी क्वालिटी पर सवाल उठाया है. उन्होंने एक उदाहरण का हवाला दिया, जहां वन अधिकारियों ने एक बाघ की मौत को एक महीने बाद दर्ज किया, जबकि उस पर रेडियो कॉलर लगा हुआ था. ‘वे उपकरणों पर करोड़ों रुपये खर्च करते हैं लेकिन वे ठीक से काम नहीं कर रहे हैं. ऐसी तकनीक का क्या इस्तेमाल है?’

लेकिन शिकारियों के हमले में जाने वालों जानों की तुलना में तथाकथित कॉलर की मौत एक छोटी संख्या है.


यह भी पढ़ें: ‘कानूनी तौर पर फैसला गलत है’- ‘लव जिहाद’ के तहत भारत की पहली सजा में फंसे हैं कई दांव-पेंच


गार्ड्स की कमी 

मेहता और दुबे ने वन अधिकारियों को ‘टूरिस्ट मैनेजर’ बताते हुए शिकारियों से निपटने में असमर्थ बताया. शिकारियों से निपटने के लिए वन रक्षकों की संख्या कम है और उनके पास हथियार भी पूरे नहीं हैं जो अक्सर सशस्त्र होते हैं और अच्छी तरह से संगठित सिंडिकेट का हिस्सा होते हैं.

कॉर्बेट के एक वन अधिकारी ने दिप्रिंट को बताया, ‘हमारे पास स्टाफ की कमी है. फॉरेस्ट गार्ड्स को समय पर वेतन नहीं मिलता है. अगर इसे ठीक कर दिया जाए, तो हम बाघ संरक्षण ठीक से कर पाएंगे.’ फॉरेस्ट गार्ड्स को एनटीसीए की अनुमति के बिना शिकारियों पर गोली चलाने का अधिकार नहीं है. वो ऐसा सिर्फ सेल्फ डिफेंस की स्थिति में कर सकते हैं.

हालांकि फॉरेस्ट गार्ड्स को हथियार देना इसका जवाब नहीं हो सकता है, सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर विचार किया है. 2021 में, एक एससी पीठ ने सुझाव दिया था कि वाइल्डलाइफ के खिलाफ अपराधों से निपटने के लिए प्रवर्तन निदेशालय को भी शामिल किया जाना चाहिए. पीठ ने कहा, ‘इसमें एक अलग वन्यजीव शाखा होनी चाहिए.’

2023 में अब तक, मध्य प्रदेश में नौ बाघों की मौत हो चुकी है और कम से कम दो शिकारियों के हाथों, एक पेंच में और दूसरा पन्ना टाइगर रिजर्व में. दोनों ही मामलों में वे जानलेवा बिजली के तार की चपेट में आ गए.

लेकिन सभी सीमाओं और असफलताओं के लिए, झाला ने एमपी के वन अधिकारियों और गार्डों की सराहना की.

डॉ झाला ने कहा, ‘उन्होंने अवैध शिकार को रोकने का एक बड़ा काम किया है और यह अधिकतम संसाधनों और गश्त के माध्यम से ही संभव हो पाया है. हालांकि, तस्करी की चिंता अभी भी बनी हुई है क्योंकि चीन में बाघों के शरीर के अंगों का एक बड़ा बाजार है. शिकारी वहां बाघ के शरीर के अंगों को 2 से 2.5 लाख रुपये में बेचते हैं.’

बाघ के अंगों की मांग अवैध शिकार को और भी बढ़ावा देती हैं. ऐतिहासिक रूप से, चीन में अवैध व्यापार फलता-फूलता है, जहां पारंपरिक मेडिकल में हड्डियों, पंजे आदि का उपयोग किया जाता है लेकिन 2022 के एक अध्ययन में पाया गया कि अमेरिका भी उतना ही दोषी है. अमेरिका में अवैध रूप से तस्करी किए गए बाघ के अंगों का हाल के दिनों में इस अवैध व्यापार का लगभग आधा हो सकता है.

2009-2010 में एनटीसीए ने उच्च बाघ आबादी वाले राज्यों को बाघों की सुरक्षा के लिए जंगलों में गश्त करने के लिए विशेष पुलिस कर्मियों की भर्ती और प्रशिक्षण देने की सलाह दी. इसके बाद कर्नाटक, महाराष्ट्र, राजस्थान, ओडिशा और असम में स्पेशल टाइगर प्रोटेक्शन फोर्स का गठन किया गया, लेकिन मध्य प्रदेश में नहीं बनी.

दुबे ने कहा, ‘अगर स्थानीय लोगों को एसटीपीएफ में शामिल किया जाता है, तो अवैध शिकार को रोकना आसान हो जाएगा, लेकिन वन विभाग शायद ही कभी स्थानीय लोगों की मदद लेता है.’

लेकिन करनी और कथनी में फर्क होता है. कई बार नहीं, ग्रामीणों में नाराजगी है, खासतौर से जो भारत में संरक्षित क्षेत्रों में रहते हैं. रामनगर में खासकर महिला की मौत के बाद से वन रक्षकों और स्थानीय निवासियों के बीच रिश्तों में खटास आ गई है.

रामनगर के एक निवासी ने कहा, जो अपना नाम नहीं बताना चाहता था, ‘हमें कॉर्बेट टाइगर रिजर्व में प्रवेश करने की इजाज़त नहीं है. यह केवल सफारी उद्देश्यों के लिए डिज़ाइन किया गया है.’ वह और अन्य लोग मांग कर रहे हैं कि उन्हें संरक्षण योजना में शामिल किया जाए.

बाघ क्यों मर रहे हैं, इसके लिए डॉ. झाला एक अलग ही सफाई पेश करते हैं. वह उत्तराखंड में एक रिजर्व का सर्वे करके लौटे थे और फोन पर बातचीत के दौरान कहा, ‘टाइगर्स अमृत ​​पी कर पैदा नहीं होते हैं, जिसने जन्म लिया है उसे एक दिन मरना ही होता है.’

(इस फ़ीचर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: ‘मारना ही है तो मुझे, बच्चों और खालिद को एक ही बार में मार दो’- ‘राजनीतिक कैदियों’ के परिवारों को क्या झेलना पड़ता है


share & View comments