नई दिल्ली: ‘ओसामा’, ‘बगदादी’, ‘मुल्ला’, पाकिस्तान जाओ’. ये कुछ ऐसे शब्द हैं जिनका प्रयोग बच्चे स्कूलों में अपने मुस्लिम साथियों पर जाने-अनजाने में काफी धड़ल्ले से करने लगे हैं. उनकी इस बदमाशी पर उनके पैरेंट्स सकते में आ जा रहे हैं.
इस तरह की नफरत का माहौल बनता-बिगड़ता रहता है, लेकिन भारत-पाकिस्तान के बीच बढ़ते तनाव के मद्देनजर, हाल ही में मुस्लिम बच्चे धार्मिक भेदभाव का शिकार होने लगे हैं, जिसने उनकी माताओं को हिला दिया है.
उनमें से अधिकांश ने इसका दोष टेलीविजन चैनलों पर यह कहते हुए मढ़ा है कि उनकी भाषा ‘नफरत फैलाने वाली’ है. जो भेदभाव और उत्पीड़न की तरफ ले जा रहा है.
हमारे अंदर का दुश्मन
‘मदरिंग ए मुस्लिम’ नामक पुस्तक की लेखिका नाजिया एरुम ने एक फेसबुक पोस्ट में इस ट्रेंड का जिक्र किया.
सोशल मीडिया पर एक बहस छेड़ते हुए वो लिखती हैं, ‘विभिन्न शहरों से जानकारी मिल रही है कि बच्चों को बाहर निकालने, घबराने और ‘पाकिस्तान जाने’ के लिए कहा जा रहा है. मेरी नौकरानी, चचेरे भाई, दोस्तों से लेकर ट्विटर के परिचितों तक – हर कोई इस बारे में बातें कर रहा है.’
दिप्रिंट से बात करते हुए, एरुम ने कहा कि पिछले कुछ वर्षों में, स्कूलों में धार्मिक भेदभाव काफी बढ़ गया था, जिसने उन्हें किताब लिखने को मजबूर कर दिया. इरूम ने कहा, ‘लेकिन यहां कुछ ‘राष्ट्रवादी टीवी चैनल’ हैं जिन्होंने नफरत को बढ़ावा दिया है, और जिनसे सबसे ज्यादा प्रभावित बच्चे हैं.’
‘जब ये चैनल ‘अपने अंदर के दुश्मनों’ के बारे में बात करते हैं, तो ये सड़कछाप भाषा और बहुत ही निम्न स्तर के कंटेट का इस्तेमाल करते हैं, जो उन्हें क्रोधित और आहत करता है. बहुत कम व्यंग और कटाक्ष हैं जिन्हें वे पचा सकते हैं.’
‘दुर्भाग्य से, कई लोगों के लिए, वो एक लत बन चुका है. इस तरह के कंटेट से धीरे-धीरे समुदायों के भीतर एक नफरत पैदा होती है. माताओं को न केवल उससे होने वाले मनोवैज्ञानिक प्रभाव से डर लगता है बल्कि इस तरह की बदमाशी आने वाले समय में उन पर गहरा छाप छोड़ सकती है, हो सकता है वे अपने आप को किसी तरह का शारीरिक नुकसान भी पहुंचा लें.’
एक मां ने नाम न बताने के शर्त पर कहा कि यह ‘बहुत हालिया’ ट्रेंड है.
महिला ने कहा, ‘15 साल पहले जब मैं स्कूल में थी, तो मुझे अपने धर्म के कारण किसी भी धार्मिक भेदभाव या धमकी का सामना नहीं करना पड़ा. मैं झारखंड के एक को-एड स्कूल में पढ़ी थी. धर्म, आखिरी चीज है जो हमारे दिमाग में आती है.’
उन्होंने कहा, ‘लेकिन मैं अपने बेटों के लिए ऐसा नहीं कह सकती,’ उन्होंने कहा, उन्हें सामान्य बातचीत में अक्सर अपने धर्म की याद दिलाई जाती है.
‘यहां तक कि अगर एक पांच साल के बच्चे से केवल सामान्य सा सवाल ‘क्या आप मुस्लिम हैं? ही पूछा जाए, तो वह उसके दिमाग पर गहरा असर डालता है. जो कि अपने धार्मिक पहचान को लेकर ज्यादा सचेत नहीं है.’
एक अन्य महिला ने सोशल मीडिया पर कहा कि उसकी बेटी ने उसका नाम बदलने के लिए कहा, क्योंकि वह नहीं चाहती थी कि उसके नाम से उसकी धर्मिक पहचान हो. जो कि उसके उत्पीड़न का कारण बन जाए.
बातचीत की जरूरत है
एरुम ने कहा कि यह चिंताजनक है कि बच्चे स्कूलों में बदमाशी से बचने के लिए अपनी पहचान छुपाना चाहते हैं. उन्होंने यह सुनिश्चित करने के लिए बच्चों के साथ बातचीत की आवश्यकता पर जोर दिया कि वे जल्दी से जल्दी प्रभावित न हों, इस तरह की भावनाओं को भड़काने से बचें क्योंकि वे आगे चल कर बड़ा रूप ले लेती हैं.
‘यह दुर्भाग्यपूर्ण है अगर बच्चों को केवल उनके धर्म के कारण किनारे कर दिया जाता है. सिर्फ मुस्लिम माता-पिता ही नहीं, गैर-मुस्लिम माता-पिता को भी अपने बच्चों से बात करनी चाहिए और उन्हें बताना चाहिए कि यह केवल उनके सहपाठी के बारे में नहीं है.’
एरुम ने कहा कि उनकी पांच साल की बेटी से अगर कोई कहता है कि वो भारत नहीं, बल्कि किसी और देश की है तो उसे वो या तो नजरअंदाज करने के लिए कहती हैं या फिर उसे हंसी-मज़ाक में उड़ा देती हैं.
‘मैं उसे बताती हूं कि अगर कोई उसे नेपाली या श्रीलंका या पाकिस्तानी कहता है, तो उसे केवल पाकिस्तान या उसकी धार्मिक पहचान पर ध्यान देने के लिए हंसना चाहिए.’
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