नामवर सिंह के निधन पर हिंदी जगत के लेखकों/कवियों की प्रतिक्रियाओं का तांता सा लग गया है. हिंदी आलोचना के कैलाश रहे नामवर सिंह को श्रद्धांजलि देना मुश्किल भी है और ज़रूरी भी. उन्हें सराहने वालों की कमी नहीं है. वहीं उनकी आलोचना की आलोचना भी सालों तक होती रही. ख़ास बात ये है कि वे हिंदी आलोचकों की छोटी सी दुनिया के बड़े नाम हैं और रहेंगे.
व्यक्तिगत तौर पर मैं नामवर जी को एक आध बार ही मिली थी किसी पुस्तक विमोचन में या किसी लेक्चर में. लेकिन उनकी आलोचनाओं और कविताओं के माध्यम से उनसे अच्छी ख़ासी जान पहचान हो गयी थी. दरअसल मैंने उनके लेखन को सबसे पहले अंग्रेज़ी अनुवाद में पढ़ा और सराहा था लेकिन जब हिंदी में उनका लेख पढ़ा (मार्क्स पर लेख था, मैंने कुछ 8 साल पहले पढ़ा होगा), मुझे लगा कि ऐसी सटीक अभिव्यक्ति करने वाला आलोचक शायद हिंदी में कोई और नहीं.
फिर मेरे अपने ससुराल का भी नामवरजी से कुछ राबता था. मेरे बाबा ससुर भी उदय प्रताप कॉलेज में पढ़ते थे और नामवर जी से दो साल सिनियर थे. वे बिहार प्रशासनिक सेवा में अफ़सर थे और बड़े गर्व से नामवर जी के बारे में बात किया करते थे. उत्तर प्रदेश, बिहार में अक्सर कविता और लेखन को प्रशासनिक अफ़सरी से कुछ कमतर पेशा माना जाता है. या ये कहा जाए की यहां के युवा वर्ग के लिए, प्रोफेसरी करना या कविता लिखना कभी जीविका कमाने के लिए पहली पसंद नहीं होते. तब भी, यू.पी. कॉलेज के सभी साथी नामवर जी के प्रतिभाशाली वक्तव्यों की चर्चा करते थे. एक ही दिशा में दौड़ने वाले कई नौजवानों में वे अकेले ऐसे थे जो शुरू ही से साहित्य की राह पर अग्रसर थे. उनके बारे में कई बार घर में चर्चा भी होती थी.
जे.एन.यू. की पढ़ायी के कुछ वर्ष मेरे जीवन का एक अनमोल हिस्सा हैं. उन दिनों भी नामवर सिंह के लेखन के कई बेहतरीन उदाहरण मेरे सामने आते रहे. उनकी लेखनी ने बीती कम से कम दो पीढ़ियों को हिंदी आलोचना का उत्कृष्ट मसाला दिया!
उनके चले जाने पर एहसास हुआ कि उनकी महानता इस बात में ही है कि वे कहीं गए ही नहीं! उन्होंने कोई ख़ाली जगह नहीं छोड़ी, उन्होंने अपनी जगह बनायी और उसे बख़ूबी भर दिया. कोई और नामवर सिंह नहीं हो सकता. भी नहीं चाहिए! वे स्वयं भी नए क़िस्म की लेखनी को बढ़ावा देने की बात किया करते थे. ऐसे में उनसे प्रेरणा लेना होना एक बात है लेकिन एक और नामवर की तलाश एकदम अवांछनिय.
तब भी व्यक्तिगत क्षति तो हम में से कई लेखक, प्रशंसक महसूस कर रहे हैं. आज सुबह ही हिंदुस्तानी भाषा के हर-दिल-अज़ीज़ शायर गुलज़ार साहब से बात हुई. उन्होंने नामवर जी का सहज ही ज़िक्र कर दिया. ख़बर उन तक पहुंची तो उन्हें अचानक नामवर जी की कमी खली. गुलज़ार साहब ने प्रगतिशील लेखकों को याद किया. उस दौर के जोश और सामाजिक एवं राजनीतिक दख़ल देने वाले साहित्य को याद करते हुए उन्होंने कमलेशवर, मोहन राकेश और कई ऐसे नामों का ज़िक्र किया जो आज हमारे बीच नहीं हैं. कुछ ऐसे रचनाकार जिन्होंने हम जैसे पाठकों को अपनी लेखनी से सम्पन्न किया है.
‘नयी कविता’ के दौर के ऐसे आलोचक जिन्हें गुलज़ार साहब मील का पत्थर मानते थे, आज जीवन-मृत्यु के चक्र से आज़ाद हैं. एक दो बार इन दोनों दिग्गजों की मुलाक़ात भी हुई लेकिन लगातार सम्पर्क में नहीं रहे. बात करते-करते गुलज़ार साहब चुप हो गए और बोले, ‘अचानक उनकी याद आयी. हालांकि इतना नहीं जानता था उन्हें. उनसे कम ही मिला हूं… शायद मैंने भी ज़्यादा पहल नहीं की उनसे मुलाक़ात करने की. साहित्यिक आयोजनों में मिलते थे मगर उनका लिखा बहुत कुछ पढ़ा है. ख़बर आते ही अचानक कमी का एहसास हुआ. अब मिलना नहीं होगा…’
कमी का एहसास हम सभी को हुआ और रहेगा पर नामवर जी की रचनाओं की चमक हमेशा बरक़रार रहेगी.
(डॉ. प्रतिष्ठा सिंह दिल्ली यूनिवर्सिटी में इटालियन साहित्य पढ़ा चुकी हैं. वे लेखिका भी हैं .गुलज़ार की कविताओं का अनुवाद इटालियन भाषा में करती रहीं हैं.)