नई दिल्ली: शुरुआत के 13 वर्षों के दौरान केंद्र सरकार की प्रमुख ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में अनुसूचित जाति वर्ग को मिलने वाले रोजगार का अनुपात कम होता रहा, और इस वित्तीय वर्ष में यह आंकड़ा न्यूनतम स्तर पर है.
फरवरी 2006 में शुरू हुई महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) में काम करने के इच्छुक हर ग्रामीण परिवार के लिए साल में कम से कम 100 दिनों के रोजगार का वादा किया गया है. योजना की देखरेख करने वाले ग्रामीण विकास मंत्रालय ने ‘सामाजिक रूप से वंचित तबकों, खास कर महिलाओं, अनुसूचित जातियों (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी), के एक अधिकार-केंद्रित कानून के ज़रिए सशक्तीकरण’ को इसके घोषित ‘लक्ष्यों’ में शामिल कर रखा है.
मनरेगा का उद्देश्य समाज के निर्धनतम और निर्बलतम वर्गों को रोजगार उपलब्ध कराना है, पर मंत्रालय के पास उपलब्ध आंकड़ों के विस्तृत विश्लेषण से पता चलता है कि बीते वर्षों में रुझान वास्तव में इसके विपरीत रहे हैं.
इस योजना के तहत सृजित रोजगार में एससी समुदाय की भागीदारी में 10 अंकों की भारी गिरावट दर्ज़ की गई है – जो 2010-11 के अधिकतम 31 प्रतिशत के मुकाबले आज करीब 21 प्रतिशत रह गई है.
इस योजना में एसटी की भागीदारी में भी शुरू के कुछ वर्षों में गिरावट का रुझान रहा, लेकिन पिछले दशक के दौरान यह एक सीमा के भीतर स्थिर रही है.
हालांकि फिर भी, योजना में एससी और एसटी समुदायों की भागीदारी का स्तर देश की आबादी में इन वर्गों के अनुपात के मुकाबले अधिक है. उल्लेखनीय है कि 2011 की जनगणना के अनुसार देश में एससी और एसटी समुदाय के लोग कुल आबादी के क्रमश: 16.6 और 8.6 प्रतिशत हैं.
मनरेगा अधिनियम में एक तिहाई रोजगार महिलाओं को दिए जाने की व्यवस्था है, और 2012-13 से ही इसका अनुपात 50 प्रतिशत से ऊपर रहा है.
आंकड़े क्या कहते हैं
मंत्रालय के पास उपलब्ध मनरेगा के आंकड़ों के अनुसार इस योजना के तहत पहले वर्ष 2006-07 में कुल सृजित रोजगार में एससी की भागीदारी 25 प्रतिशत रही थी.
आगे के वर्षों में इस अनुपात में बढ़ोत्तरी का रुझान रहा. एससी समुदाय की भागीदारी 2007-08 में बढ़कर 27 प्रतिशत, 2008-09 में 29 प्रतिशत और 2009-10 में 30 प्रतिशत हो गई, जबकि 2010-11 में यह 31 प्रतिशत के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई.
लेकिन उसके बाद से मनरेगा में अनुसूचित जाति के लोगों की भागीदारी कम होती गई है. वर्ष 2011-12 में यह आंकड़ा साल भर पहले के 31 प्रतिशत के स्तर से मुंह के बल गिरता हुआ 22 प्रतिशत पर आ गया.
उसके बाद, 2016-17 में 21 प्रतिशत के स्तर तक नीचे आने से पहले तक यह आंकड़ा 22-23 प्रतिशत के दायरे में रहा. पिछले वर्ष 2017-18 में योजना में एससी समुदाय की भागीदारी लगभग 22 प्रतिशत रही, पर इस साल अभी तक यह 21 प्रतिशत के स्तर तक ही पहुंच पाई है.
जहां तक एसटी समुदाय की बात है, तो योजना के प्रथम वर्ष में उनकी भागीदारी 36 प्रतिशत के उच्चतम स्तर पर रही थी. अगले साल ही यह अनुपात गिरकर 29 प्रतिशत और उसके बाद 2008-09 में 25 प्रतिशत रह गया. आगे के दो वर्षों 2009-10 और 2010-11 के दौरान यह आकंड़ा और नीचे खिसक कर 21 प्रतिशत पर आ गया.
मनरेगा में एसटी समुदाय की सबसे कम 16 प्रतिशत भागीदारी 2013-14 में रही. उसके बाद से हल्की बढ़ोत्तरी के साथ यह आंकड़ा 17 प्रतिशत से थोड़ा ऊपर रहा है.
वित्तीय वर्ष 2009 में मनरेगा के तहत सृजित रोजगार में एससी और एसटी समुदायों की सम्मिलित भागीदारी, योजना शुरू होने के बाद के उच्चतम स्तर पर, करीब 55 प्रतिशत थी.
कारण
ग्रामीण विकास मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों के अनुसार आज भी एससी और एसटी समुदायों की ‘मनरेगा रोजगार में सम्मिलित भागीदारी करीब 40 प्रतिशत है, जो कि आबादी में उनके करीब 22-23 प्रतिशत के अनुपात के मुकाबले बहुत अधिक है.’
अधिकारियों ने भागीदारी के आंकड़ों में गिरावट का एक कारण मांग में कमी को बताया है. उनका कहना है कि टिकाऊ परिसंपत्तियों के सहारे इन समुदायों की आमदनी का बढ़ना, मनरेगा कार्यों के लिए इनकी उपलब्धता कम होने की एक वजह हो सकती है.
अपना नाम नहीं दिए जाने का अनुरोध करते हुए मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, ‘मनरेगा के सहारे इन समुदायों के बहुत से लोगों ने 4-5 वर्षों में टिकाऊ परिसंपत्तियां बना ली, जिनसे इनको आय होने लगी. इस तरह, अनुमानत:, ऐसे परिवारों में रोजगार (मनरेगा) की ज़रूरत कम हो गई. पर जहां भी मांग है, रोजगार सृजित किए जा रहे हैं.’
मंत्रालय के अधिकारी ने कहा, ‘सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना के आंकड़े उपलब्ध होने के बाद से, राज्यों के रोजगार संबंधी बजट निर्धारण और साथ ही वंचितों की पहचान के तरीके बदल गए हैं. वैसे, गत पांच वर्षों में मनरेगा में एससी और एसटी समुदायों की भागीदारी में गिरावट के रुझान जैसी कोई बात नहीं रही है.’
‘यदि आप आंकड़ों को समग्रता में देखें, तो पाएंगे कि सभी श्रेणियों के अपेक्षाकृत अधिक गरीब परिवार ही योजना में शामिल हो रहे हैं.’
पर विशेषज्ञ इन समुदायों की भागीदारी कम होने के पीछे आपूर्ति पक्ष की भूमिका देखते हैं.
सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च की प्रमुख यामिनी अय्यर कहती हैं, ‘यह पूरी तरह से मांग को नियंत्रित किए जाने से जुड़ा मामला है. कुछ वर्षों, शायद 2012-13, से मनरेगा के बजट का स्तर मांग के अनुरूप नहीं रहा है. इस तरह, ‘अब तक के सर्वाधिक’ बजटीय आवंटन के बावजूद मांग के मुकाबले धन की उपलब्धता पर्याप्त नहीं रही है. और इस कारण योजना बुरी तरह प्रभावित हुई है.’
अय्यर आगे कहती हैं, ‘साथ ही, हाल के वर्षों में परिसंपत्तियों के सृजन के लिए मनरेगा को ग्रामीण आवास निर्माण जैसी अन्य योजनाओं से जोड़ दिया गया है, और संभवत: इसका असर इस बात पर पड़ा हो कि किस तरह के लोग योजना में रोजगार पा रहे हैं.’