‘हम यह मामला संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा समिति के सामने प्रस्तुत करेंगे. उसके बाद सुरक्षा समिति शायद अपना एक कमीशन भारत भेजेगी. अलबत्ता, इस बीच हम आज की तरह (कश्मीर में) अपनी सैन्य कार्रवाई को जारी ही रखेंगे. बेशक इन कार्रवाइयों को हम अधिक जोरों से चलाने की आशा रखते हैं. हमारा भावी कदम दूसरी घटनाओं पर निर्भर करेगा, इस अवसर पर इस बात को पूरी तरह गुप्त रखना होगा.’
जवाहरलाल नेहरू, 23 दिसंबर 1947
कश्मीर के भारत में आधिकारिक विलय के बाद भारत की सेनाएं कश्मीर में पहुंच गईं और वहां से कबायलियों को भगाने की मुहिम शुरू हो गई. यह काम उम्मीद से कहीं लंबा चलने वाला था और इसके साथ ही इस बात का भी इंतजाम करना था कि कैसे दोनों देशों के बीच संभावित युद्ध को टाला जाए. इसके लिए जरूरी था कि भारत और पाकिस्तान के बीच संवाद हो और दोनों देश कश्मीर को लेकर किसी स्थायी और शांतिपूर्ण समाधान पर पहुंचें.
पहले ही बताया जा चुका है कि कश्मीर के मामले को सुलझाने में पंडित नेहरू और सरदार पटेल दोनों ही लगे हुए थे और इस काम में वे भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन से भी यथासंभव मदद लेते थे. जैसे मई 1947 लॉर्ड माउंटबेटन कश्मीर के राजा से बातचीत करने गए थे. और साथ में सरदार पटेल की मंजूरी भी ले गए थे कि अगर कश्मीर पाकिस्तान में जाना चाहेगा तो उसमें भारत को कोई ऐतराज नहीं होगा. माउंटबेटन ने राजा के सामने भारत या पाकिस्तान में विलय का प्रस्ताव रखा था. इसी तरह कबायली हमले के बाद नवंबर 1947 में माउंटबेटन कराची गए और पाकिस्तान के गवर्नर जनरल मोहम्मद अली जिन्ना से मिले.
माउंटबेटन और जिन्ना के बीच क्या बातचीत हुई, इसके बारे में माउंटबेटन ने 2 नवंबर 1947 को नेहरू जी को एक लंबा पत्र लिखा. जिन्ना ने माउंटबेटन से कहा भी था कि वह मुलाकात की बातें नेहरू को बता दें. जिन्ना से अपनी मुलाकात के बारे में लॉर्ड माउंटबेटन लिखते हैं:
‘मैंने मिस्टर जिन्ना से पूछा कि आप कश्मीर में जनमत संग्रह का इतना विरोध क्यों करते हैं. उन्होंने उत्तर दिया: कारण यह है कि कश्मीर पर भारतीय उपनिवेश का अधिकार होते हुए और शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में नेशनल कांफ्रेंस के वहां सत्तारूढ़ होते हुए, वहां के मुसलमानों पर प्रचार और दबाव का ऐसा जोर डाला जाएगा कि औसत मुसलमान कभी पाकिस्तान के लिए वोट देने की हिम्मत नहीं करेगा.’
जिन लोगों को लगता है कि नेहरू ने जनमत संग्रह की बात कह कर गलती की थी, उन्हें जिन्ना के इस बयान को बहुत गौर से सुनना चाहिए. अगर कायदे आजम, जिन्ना को यह खिताब गांधीजी ने दिया था, तक इस बात के प्रति आश्वस्त थे कि उन हालात में कश्मीर के मुसलमान भारत के पक्ष में वोट देंगे, तो ऐसे में नेहरू जनमत संग्रह से नहीं डरकर कोई गजब नहीं कर रहे थे.
जिन्ना से मुलाकात के बारे में माउंटबेटन आगे लिखते हैं:
‘मैंने सुझाया कि जनमत संग्रह का कार्य हाथ में लेने के लिए हम संयुक्त राष्ट्र संघ को निमंत्रित कर सकते हैं और मुक्त तथा निष्पक्ष जनमत संग्रह के लिए आवश्यक वातावरण उत्पन्न करने के लिए हम राष्ट्र संघ से ऐसी विनती कर सकते हैं कि वह पहले से अपने निरीक्षकों और संगठनों को कश्मीर भेज दे. मैंने दोहराया कि मेरी सरकार यह कभी नहीं चाहेगी कि कपटपूर्ण जनमत संग्रह द्वारा कोई झूठा परिणाम प्राप्त किया जाए.’
इससे यह पता चलता है कि भारत के गवर्नर जनरल की हैसियत से लॉर्ड माउंटबेटन ने सबसे पहले संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में जनमत संग्रह कराने की पेशकश जिन्ना से की.
इसी चर्चा में ‘मिस्टर जिन्ना ने कड़े शब्दों में इस बात पर एतराज जताया कि सरदार पटेल उनसे मिलने क्यों नहीं आ सकते थे. जिन्ना ने कहा कि इस समस्या पर साथ मिलकर बातचीत करना बहुत जरूरी था. फिर उन्होंने पूछा कि पंडित नेहरू कितनी जल्दी लाहौर आ सकते हैं.’ दरअसल इस समय पंडित नेहरू को बुखार था और वह चलने फिरने की स्थिति में नहीं थे.
‘मुलाकात के अंत में मिस्टर जिन्ना बोले मैं इसे अच्छी तरह समझता हूं. परंतु आशा करता हूं कि जिन विभिन्न स्थितियों के विषय में हमने बातचीत की उन पर आप पंडित नेहरू से चर्चा कर सकेंगे और मुझे निश्चित तौर पर जवाब भेजेंगे. मैंने उनका यह संदेश पंडित नेहरू तक पहुंचाने की जिम्मेदारी ली.’
इसके बाद पंडित नेहरू ने 1 दिसंबर 1947 को जम्मू कश्मीर के महाराज को एक पत्र लिखा. इस पत्र में नेहरू ने महाराज को समझाया कि भारत युद्ध से नहीं डरता, लेकिन भारत की सबसे बड़ी चिंता यह है कि कश्मीर की जनता को कम से कम तकलीफ पहुंचे. जैसा कि वे शुरू से कह रहे थे कि मौसम की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होगी. दिसंबर में कश्मीर घाटी का संपर्क शेष भारत से कट चुका था और सेना के लिए कार्रवाई कठिन थी. ऐसे में कबायलियों के पास उत्पात मचाने का मौका था. नेहरू ने एक-एक कर सब बात महाराज को समझाई. यह सारी बातें आज भी कबायली हमले के बाद कश्मीर की जमीनी हकीकत और उसके राजनैतिक परिणामों को समझने के लिए सहायक सिद्ध हो सकती हैं:
मुझे लगता है कि कश्मीर के बारे में समझौता करने के लिए भी यह उचित समय है. घटनाओं का दबाव ऐसे समझौते के पक्ष में है और मुझे निश्चित रूप से यह लगता है कि इसे सिद्ध करने के लिए हमें यथाशक्ति प्रयत्न करना चाहिए. इसका विकल्प है किसी प्रकार का समझौता नहीं करना और छोटी सी लड़ाई को जारी रखना. साथ ही सारे भारत में तनाव और संघर्ष बनाए रखना. उसके परिणाम स्वरूप असंख्य लोगों को दुखी बनाना. स्वयं कश्मीर राज्य में भी आक्रमणकारियों के खिलाफ की जा रही सैनिक कार्यवाहियों का अर्थ होगा, जैसा कि उनका फल आया है, राज्य की प्रजा के लिए गंभीर कठिनाइयां और अपार कष्ट. श्री हॉरेस एलेग्जेंडर (प्रसिद्ध ब्रिटिश शांतिवादी हैं, जिन्होंने भारत के मामले में खासी दिलचस्पी दिखाई) अभी-अभी जम्मू से आए हैं.
मुझे बताया है कि हमलावर अनेक गांवों को जला रहे हैं और बेशक लोगों की हत्या भी कर रहे हैं. कश्मीर का भूभाग ऐसा है कि बड़ी संख्या में सेनाएं वहां संतोषप्रद रूप में काम नहीं कर सकतीं. राज्य की जमीन आक्रमणकारियों की व्यूह रचना के अनुकूल है. शीत ऋतु के नजदीक आने से हमारी कठिनाइयां बढ़ रही हैं रही हैं. हमारी एकमात्र नीति कश्मीर घाटी तथा झेलम घाटी के मार्ग की रक्षा की और दूसरी ओर जम्मू तथा उसके आसपास के इलाकों की रक्षा करने की अपना सकते हैं. और पुंछ के क्षेत्र में आक्रमणकारियों को रोक सकते हैं. इस शीतकाल में संपूर्ण क्षेत्र में आक्रमणकारियों को मार भगाना हमारी सेनाओं के लिए कठिन है. मौके से उन पर प्रहार करके उन्हें पीछे हटाया जा सकता है, सर्दियों में विमान आक्रमण भी कठिन होगा.
इन सब कठिनाइयों का कारण सैनिक टुकड़ियों की कमी नहीं, परंतु कश्मीर का भूभाग और आबोहवा है. शरद ऋतु होती तो हम पूरे क्षेत्र में भी आक्रमणकारियों को मारकर हटा सकते थे, लेकिन उसका अर्थ है दूसरे 4महीने और. इस बीच आक्रमणकारियों का और पुंछ के विद्रोहियों का उस क्षेत्र पर अधिकार बना रहेगा और दोनों ही राज्य की प्रजा को सताते रहेंगे. पाकिस्तान की सेनाएं सियालकोट में तथा दूसरी सीमाओं पर तैनात की जाएंगी और इस प्रकार राज्य के लोगों के लिए परेशानी बन जाएंगी. यह सारी स्थिति का सैनिक मूल्यांकन हुआ. वैसे शुद्ध सैनिक दृष्टि से देखा जाए तो हम इस स्थिति में भी भयभीत नहीं हैं, परंतु जैसा मैंने ऊपर बताया, हम शीतकाल में संपूर्ण क्षेत्र में सफलता पूर्वक सैनिक कार्रवाई नहीं कर सकेंगे. इस बीच लड़ाई का बोझ और भयंकर तनाव तो राज्य पर पड़ेगा ही. राज्य की आर्थिक स्थिति पहले ही खराब है और भी तेजी से बिगड़ती जाएगी. यह महत्वपूर्ण है कि हम इस आर्थिक भूमिका को याद रखें, क्योंकि राज्य में सेना का स्थिरता से टिके रहना भी बहुत हद तक आर्थिक परिस्थितियों पर और प्रजा के मनोबल पर निर्भर करता है.
समझौता अच्छी चीज है और इसके लिए अवश्य ही प्रयत्न करना चाहिए, परंतु स्पष्ट है कि हम कश्मीर अथवा भारत को नुकसान पहुंचाकर, ऐसा नहीं कर सकते. इस प्रकार हमें अनेक बातों का संतुलन स्थापित करना होगा. अगर समझौता हो जाए तो भी पाकिस्तान की तरफ से अच्छे व्यवहार का विश्वास नहीं रखा जा सकता, कबायलियों की तरफ से तो और भी कम. इसलिए हमें सदा सावधान और जागृत रहना होगा.
आपने उन प्रस्तावों का मसविदा तो देखा होगा, जिनकी चर्चा हमने मिस्टर लियाकत अली खान के साथ की थी. उस में संयुक्त राष्ट्र संघ के मातहत जनमत संग्रह की बात भी सम्मिलित है. मैं जानता हूं कि आप जनमत संग्रह के विचार को पसंद नहीं करते, परंतु हम सारे विश्व में अपने ध्येय को हानि पहुंचाए बिना, उससे छुटकारा नहीं पा सकते. हम उस प्रस्ताव से बंधे हुए हैं, बशर्ते समझौता हो जाए.
अगर जनमत संग्रह होने वाला हो तो, स्पष्टतया हमें ऐसे ढंग से काम करना होगा कि हम राज्य की आबादी के बहुसंख्यक लोगों की सद्भावना प्राप्त कर सकें. जिसका अर्थ है मुख्यतः मुसलमानों की सद्भावना. जम्मू में हाल में जो नीति अपनाई गई है, उससे मुसलमानों को राज्य से बहुत ज्यादा दूर हटा दिया है और देश के प्रमुख भागों में भारी मात्रा में दुर्भावना उत्पन्न कर दी है. राज्य में एकमात्र व्यक्ति जो सफल तरीके से इस स्थिति का सामना कर सकता है, शेख अब्दुल्ला हैं. मैं यह नहीं मानता कि वह कट्टर मुस्लिम भाइयों और ऐसे दूसरे लोगों का हृदय परिवर्तन कर सकते हैं, परंतु हमेशा बड़ी संख्या में ऐसा लोकमत भी होता है जो दुर्घटनाओं से और अनुभव से प्रभावित होता है.
हमारे अपने दृष्टिकोण अर्थात् भारत के दृष्टिकोण से यह अत्यंत महत्व की बात है कि कश्मीर भारतीय संघ में बना रहे. इसके कारणों में जाना मेरे लिए यहां आवश्यक नहीं है क्योंकि वह बिल्कुल स्पष्ट हैं. इस मामले में हम व्यक्तिगत इच्छाओं और अभिलाषाओं को एक ओर रख दें, यद्यपि वे बहुत मजबूत है. परंतु हम इसे कितना भी क्यों न चाहें, राज्य की आबादी के बहुसंख्यक लोगों की सद्भावना के अभाव में ऐसा अंतिम रूप से नहीं किया जा सकता. अगर सैनिक बल से कुछ समय के लिए कश्मीर को अधिकार में रखा जा सके तो भी आगे चलकर इसका परिणाम इस स्थिति के खिलाफ जोरदार प्रतिक्रिया के रूप में आ सकता है. इसलिए यह समस्या आवश्यक रूप में विशाल जन समुदाय के पास मनोवैज्ञानिक दृष्टि से पहुंचने और उन्हें यह महसूस कराने की है कि भारतीय संघ में ही रहने से लाभ होगा. यदि औसत मुसलमान को ऐसा लगे कि भारतीय संघ में उसके लिए कोई सलामत या सुरक्षित स्थान नहीं है, तो स्पष्ट है कि वह अन्यत्र दृष्टि डालेगा. हमारी बुनियादी नीति को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए, अन्यथा हम सफल नहीं होंगे. हमें सारी स्थिति पर एक दृष्टि से सोचना चाहिए और क्षणिक परिणाम या व्यक्तिगत विचारों के प्रवाह में नहीं बह जाना चाहिए.
वर्तमान स्थिति यह है की मूल कश्मीर में मुस्लिम और हिंदू आबादी निश्चित रूप से भारतीय संघ के पक्ष में हैं. जम्मू क्षेत्र में सारे गैर मुसलमान और कुछ मुसलमान संभवतया भारतीय संघ के पक्ष में हैं, परंतु इसमें कोई संदेह नहीं है कि पुंच क्षेत्र में आबादी का बहुत बड़ा भाग संभवतया भारतीय संघ के खिलाफ है. संतुलित अनुमान लगाया जाए तो संभवत: व्यापक बहुमत भारतीय संघ के पक्ष में होगा, परंतु यह बात पूरी तरह उस नीति पर निर्भर करती है, जिसका हम आगामी कुछ महीनों में अनुसरण करेंगे. यह बात मैं इसलिए दोहरा रहा हूं कि इसका सर्वोपरि महत्व है और हमें तथ्यों को उनके यथार्थ रूप में सामना करना चाहिए.
सैनिक स्थिति बहुत अच्छी तो नहीं है, फिर भी मुझे कोई शंका नहीं है कि हम उसे नियंत्रण में रख सकते हैं, लेकिन हम सर्दियों में बहुत अधिक करने की आशा नहीं रख सकते. इस बीच सारे भारत और पाकिस्तान में अनेक तरह की घटनाएं घटने की संभावना है और इनका प्रभाव कश्मीर की परिस्थितियों पर पड़ सकता है. यह घटनाएं जैसी और जो भी हों, हमें उनके लिए तैयार रहना होगा और साथ ही राज्य की स्थिति पर यथार्थवादी दृष्टि से विचार करना होगा.
पाकिस्तान के साथ संभव समझौते की चर्चा करने में इन प्रस्तावों पर विचार विमर्श किया जा चुका है और श्री महाजन उन्हें अपने साथ ले गए हैं. कुछ लोगों ने सुझाया है कि कश्मीर और जम्मू प्रांतों के टुकड़े कर दिए जाएं और एक हिस्सा पाकिस्तान में जाए और दूसरा भारत में जाए. मैं अनेक कारणों से इस बात को बिल्कुल पसंद नहीं करता, उनमें से एक वजह यह है कि कश्मीर का भारत के लिए बहुत बड़ा महत्व है. दूसरा सुझाव यह है कि पुंच क्षेत्र को काटकर पाकिस्तान के हाथ में दे दिया जाए, इस सुझाव में कुछ वजूद है, क्योंकि यह क्षेत्र भाषा की दृष्टि से पंजाब के साथ जुड़ा हुआ है. यह बात भी सुनाई गई है कि समस्त कश्मीर राज्य लगभग एक स्वतंत्र घटक के रूप में रहे और भारत तथा पाकिस्तान उसकी अखंडता और प्रतिरक्षा की गारंटी दें. यह बात संभवत: भविष्य में मुसीबत खड़ी करे और कश्मीर के लिए भारत और पाकिस्तान के बीच का संघर्ष जारी रहे.
मैं यह पत्र लिखवा रहा था, उसी समय मुझे श्री महाजन का 30 नवंबर का पत्र मिला. इस पत्र में उन्होंने लिखा है कि विभिन्न प्रस्तावों पर आपकी प्रतिक्रिया यह है कि आप अपने राज्य के भविष्य को भारतीय संघ के हाथ में छोड़ने के लिए तैयार हैं, परंतु यदि जनमत संग्रह भारत के विरुद्ध जाए तो आपके सामने राज्य की सत्ता छोड़ने के सिवाय अन्य कोई विकल्प नहीं रह जाएगा. किसी भी हालत में आप पाकिस्तान के साथ नहीं रहना चाहते. मैं आपके इस रुख की कदर करता हूं.
इस पत्र में नेहरू ने बहुत सी बातों के अलावा एक बहुत काम की बात कही है कि कश्मीर को भारत में जोड़ने के लिए जनमत संग्रह अनिवार्य है. अगर भारत ऐसा नहीं करता तो दुनिया में उसके ध्येय को चोट पहुंचेगी. कश्मीर में जनमत सर्वेक्षण कराना इसलिए भी जरूरी था, क्योंकि दो अन्य विवादित रियासतों जूनागढ़ और हैदराबाद में भी जनमत संग्रह हुआ था. हां, वहां संयुक्त राष्ट्र संघ को बीच में लाने की जरूरत नहीं पड़ी थी, क्योंकि वे सीमावर्ती इलाके नहीं थे और न ही वहां पाकिस्तान ने अपने लड़ाके उतार दिए थे. कश्मीर के एक हिस्से पर तो पाकिस्तान घुस ही आया था. वैसे भी देसी राज्यों के भारत में विलय के समय यह फॉर्मूला तय हुआ था कि अगर राजा बहुसंख्यक आबादी वाला नहीं होगा तो जनता की राय के आधार पर ही राज्य का भारत या पाकिस्तान में विलय होगा. इस पत्र में नेहरू ने यह बात भी समझाई कि अगर सेना के जोर पर कश्मीर पर कब्जा कर लिया गया और बहुसंख्यक आबादी को विश्वास में नहीं लिया गया तो मामला आगे चलकर बिगड़ जाएगा. नेहरू ने एक बात और कही कि ऐसे हालात बनाने होंगे कि कश्मीर के मुसलमान खुद को सुरक्षित महसूस करें. लेकिन इस माहौल के बनने में सबसे बड़ी बाधा जम्मू में बड़े पैमाने पर की गई मुसलमानों की हत्याएं थीं. इन्हीं हत्याओं को पाकिस्तान ने बढ़ाचढ़ाकर संयुक्त राष्ट्र में पेश किया और साबित किया कि ज्यादती भारत कर रहा है. अगर उस समय के उग्र हिंदू और सिख संगठनों ने ये हत्याएं नहीं की होतीं, तो संयुक्त राष्ट्र में भारत का पक्ष और मजबूत रहा होता.
वैसे संयुक्त राष्ट्र संघ में जाना नेहरू की एक सोची समझी चाल थी. इसका जिक्र उन्होंने 23 दिसंबर 1947 को कश्मीर के महाराज को लिखे एक पत्र में किया. इस पत्र की खासियत यह है कि अपने स्वभाव के विपरीत नेहरू ने महाराज से कहा कि इस रणनीति को पूरी तरह गुप्त रखा जाए. नेहरू ने लिखा
‘हमारा मंत्रिमंडल इस निर्णय पर पहुंचा है कि वर्तमान परिस्थितियों में अपनाया जाने वाला उत्तम मार्ग यह होगा कि हम संयुक्त राष्ट्र संघ का ध्यान उस आक्रमण की ओर खींचे जो पाकिस्तान सरकार की सहायता और प्रोत्साहन से पाकिस्तान से आने वाले अथवा पाकिस्तान में होकर आने वाले कबायली लोगों द्वारा भारत की भूमि पर किया गया है. हम राष्ट्र संघ से विनती करेंगे कि वह पाकिस्तान को यह आक्रमण बंद करने का आदेश दे, क्योंकि इसके विकल्प में हमें ऐसे कदम उठाने होंगे, जिन्हें हम ऐसा करने के लिए सही और उपयुक्त मानेंगे. हम संयुक्त राष्ट्र संघ के समक्ष पहुंचें, इसके पहले यह वांछनीय माना गया कि पाकिस्तान सरकार से विधिवत विनती की जाए कि वह आक्रमणकारियों को कोई सहायता अथवा प्रोत्साहन ना दे.’
अब हम पाकिस्तान के उत्तर के लिए कुछ दिन, ज्यादा से ज्यादा चार या पांच दिन, प्रतीक्षा करेंगे. उसके बाद हम यह मामला संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा समिति के सामने प्रस्तुत करेंगे. इस सारी कार्यवाही में ज्यादा समय नहीं लगेगा. सुरक्षा समिति संभवत: हमारे प्रतिनिधि का वक्तव्य जल्दी ही सुनेगी और बाद में वह पाकिस्तान से कहेगी कि उसके विरुद्ध लगाए गए आरोपों का उत्तर दे. उसके बाद सुरक्षा समिति शायद अपना एक कमीशन भारत भेजेगी. अलबत्ता, इस बीच हम आज की तरह अपनी सैन्य कार्रवाई को जारी ही रखेंगे. बेशक इन कार्रवाइयों को हम अधिक जोरों से चलाने की आशा रखते हैं. हमारा भावी कदम दूसरी घटनाओं पर निर्भर करेगा, इस अवसर पर इस बात को पूरी तरह गुप्त रखना होगा.
यानी नेहरू की चाल साफ थी कि एक तरफ भारत संयुक्त राष्ट्र में पीड़ित पक्ष बनकर जाए, जो कि वह था भी और दूसरी तरफ वह कश्मीर में अपनी सैनिक पकड़ मजबूत करता जाए. जाहिर है इस बीच कश्मीर की जनता से बेहतर रिश्ता तो बनाना ही था. इस तरह जब जनमत संग्रह का समय आए, तब तक कश्मीर पर भारत का पूरी तरह नियंत्रण हो चुका हो.
(यह अंश लेखक पीयूष बबेले की किताब ‘नेहरू मिथक और सत्य’ से लिया गया है इस पुस्तक का प्रकाशन संवाद प्रकाशन द्वारा किया गया है.)