‘टेरर अटैक ऑन सीआरपीऍफ़ कॉन्वॉय इन पुलवामा. अराउंड फोर्टी जवान्स आर डेड. बैड डे फॉर नेशन…’
ऑफिस का एक भीषण व्यस्त दिन था. इतना व्यस्त कि सांसे गिनते फ़ोन की बैटरी को वापस चार्ज पर लगा देने की फुर्सत निकाल पाना भी भूसे के ढेर में सुई ढूंढने जितना तकलीफ़देह था. भागादौड़ी में घड़ी की सुइयां आगे बढ़ती जा रही थीं, और बच्चे को घर लाने का समय नज़दीक आता जा रहा था. सवा छः बजे बैग पैक करते हुए एक नज़र मोबाइल फ़ोन पर गयी थी कि आधा घंटा लगाकर इसे चार्ज किया जा सकता है मगर फिर यह ख़याल भी तारी हो गया था कि इसमें लगाया हुआ आधा घंटा बच्चे के पास पहुंचने में देर करवा सकता है. स्विच्ड ऑफ़ मोबाइल फ़ोन पर्स के हवाले हुआ और कदम भागते हुए घर की ओर.
घर पहुंचने पर जैसे ही फ़ोन ऑन हुआ. वह मेसेज फ़्लैश हुआ. दिल बैठ गया. आमतौर पर शाम होते ही जिस टीवी पर तरह-तरह के कार्टून केरैक्टर की आवाज़ गुलज़ार हो जाती थी, वहां शोर था ख़बरिया चैनलों का शोर. आक्रोश और उदासी भी मुखर होकर बो रही थी. छः साल का बच्चा यह नहीं समझ पा रहा था कि अचानक क्या हो गया है? क्यों टीवी पर मच रहे शोर में इतनी दिलचस्पी ली जा रही है?
बच्चे ने मां से पूछा, ‘मम्मा क्या हो गया है.’
‘मां ने पलट कर कहा, ‘बेबी चालीस फ़ौजियों को आतंकवादियों ने भगवान् जी के पास भेज दिया है.’
‘मम्मा आज अच्छा दिन नहीं है.’
मां के पास कहने को बोल नहीं थे. पनियायी हुई आंखों ने बच्चे को जवाब दे दिया. छः साल के बच्चे को संवेदना का जितना अर्थ पता होना चाहिए, वह बच्चा उससे थोड़ा अधिक जानता है शायद. किसी भी ख़बर के पल्ले न पड़ने पर भी वह चुपचाप मां की बगल में बैठ गया था.
कुछ ही दिन पहले की बात ही तो थी, बच्चा और मां उरी फ़िल्म देखने गये थे. फ़ौजियों की पोशाक को देखकर बच्चे ने मां से कहा था, मम्मा इसमें तो सब सुपरमैन लग रहे हैं. हां बेटा इसमें सब सुपरमैन हैं. हरे रंग से नहाए हुए कैमोफ्लाज को पहनने वाले सुपरमैन.
फ़ौजियों के बच्चों को सुपरमैन ढूंढने के लिए कॉमिक्स पलटने या कार्टून चैनल पर जाने की ज़रूरत नहीं पड़ती, उनके सुपर हीरो उनके पास मौज़ूद होते हैं. बच्चा घर लौटते हुए कुछ स्टंट प्रैक्टिस कर रहा था.
मां की वार्निंग आयी, गिर जाओगे, चोट लग जायेगी.
‘कैसे लगेगी, मैं लिटिल सिंघम सुपरमैन हूं न.’ मां मुस्कुरा उठी.
उस मुस्कराहट को सिरे से पोछ देने के लिए यह ख़बर आयी थी. हां, कई साल बीत चुके हैं कि बच्चे को आख़िरी बार अपने ओलिव ग्रीन यूनिफार्म वाले सुपरमैन पिता से मिले हुए. बच्चे के मां और पिता अलग-अलग रहते हैं. अलग-अलग ज़िंदगियां जीते हैं मगर एक गर्व जीता है मां के अंतस में अपने पुत्र के लिए, संभवतः पुत्र के पिता के लिए भी. एक अभिलाषा गाहे-बगाहे सर उठा लेती है कि युद्धघोष करते हुए पुत्र में भी वही जज़्बा होगा.
उन तमाम जज़्बों पर एक डर फैलता जा रहा था.
‘युद्ध हो कि युद्ध हो’ इससे कुछ कम नहीं मंज़ूर.’ ख़बरिया वेबसाइट, अख़बार के पन्ने, टीवी चैनल, हर जगह यह घोष था. बच्चे की माँ भी चाहती है उन चालीस मौतों के ज़िम्मेदारों को उनका सिला मिले. रुक जाए निर्दोष मौतों का यह सिलसिला. किसी भी तरह… चाहे युद्ध ही रास्ता क्यों न हो.
… पर उसी वक़्त एक धक्का लगता है दिल पर. कितना मुश्किल रास्ता है यह. शान्ति में बैठे लोगों का क्रोध सीमाएं पार कर रहा है. वे आस-पार की लड़ाई के लिए तैयार बैठे हैं. हुक्मरान नीतियां बना रहे हैं. मीडिया के लोग न्यूज़रूम में बैठ कर ब्लू प्लान कैसा होना चाहिए उस पर विमर्श कर रहे हैं. सोशल मीडिया पर बैठे कुछ लोग सेना को ही ज्ञान बांट रहे हैं. क्या किसी ने फ़ौजियों से और उनके घरवालों से कभी पूछा है कि आपके दिल की बात क्या है?
जंग होती है तो अवाम नहीं लड़ती, सेनाएं लड़ती हैं, और पीछे इंतज़ार करते हैं उन लड़ाकों की ज़िंदगी से संबद्ध लोग. जिनका दिल दुगुनी रफ़्तार से धड़कता रहता है कि कहीं अगली ख़बर मनहूस न हो. कहीं आने वाले अगले ताबूत में उनकी ख़ातिर निशानियां न छोड़ी गयी हों.
बचपन से अब तक बॉर्डर फ़िल्म सैकड़ों बार देख चुकी है वह. हर बार फ़िल्म का आख़िरी गीत रुला जाता है.
‘जंग तो चंद रोज़ रोती है, ज़िंदगी बरसों तलक रोती है
सन्नाटे की गहरी छांव खामोशी से जलते पांव
ये नदियों पर टूटे हुए पुल धरती घायल है व्याकुल
ये खेत बमों से झूलते हुए ये खाली रस्ते सहमें हुए
ये मातम करता सारा समां ये जलते घर ये काला धुआं
मेरे दुश्मन मेरे भाई मेरे हमसाए
मुझसे तुझसे हम दोनों से ये जलते घर कुछ कहते हैं’
दिल से आह निकलती है! मन भर आता है इतना कि आंसुओं की नदियां बनायी जा सकती हैं. अहसास होता है, लोग ज़िन्दगी से दूर हो सकते हैं, उनकी ख़ातिर कभी इकट्ठा किये हुए भाव और संवेदनाएं नहीं. बच्चे की ओर देखती है, बच्चे को लगता है आज का दिन अच्छा है. अब पापा जैसी ड्रेस पहनने वाले किसी शख्स को कुछ नहीं होगा.
मां दुआ करती है, ‘तुम्हारा हर सुपरमैन हर बार अपने घर लौटे सही सलामत, चाहे उस दरमियां युद्ध ही क्यों न बीत चुका हो.’
इतनी सी दुआ बहुत तो नहीं!
(अणु शक्ति सिंह लेखिका हैं और कॉर्पोरेट कम्यूनिकेशन में कार्यरत हैं)