स्कूल की ऑफिस असिस्टेंट को केरोसन तेल से नहलाकर उसे आग लगा दी गई थी, वह अपनी कुर्सी पर स्थिर बैठी हुई थी, उसके शरीर पर मारी गई गोलियों के घावों से बहा खून उसके आसपास फैला था. एक बंदूकधारी चिल्लाया, ‘कई बच्चे बेंचों के नीचे छिपे हैं, उन्हें मारो.’ किशोरवय शाहरुख खान के दोनों घुटनों में गोली लगी थी, उसने अपनी स्कूल टाई मुंह में ठूंस ली थी ताकि वह चीख न सके. स्कूली लड़के ने पत्रकारों को बताया, ‘बड़े-बड़े बूटों वाला आदमी बच्चों को खोज-खोज कर उन्हें गोली मार रहा था.’
8 साल पहले एक शुक्रवार को तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान के जिहादियों ने पेशावर में आर्मी पब्लिक स्कूल पर हमला करके 149 लोगों को मौत के घाट उतार दिया था, जिनमें 132 बच्चे थे. सरकार ने आतंकवाद से लड़ने के लिए एक ‘नेशनल प्लान’ बनाया था, जिसमें ज़ोर विशेष फौजी अदालतों का गठन करने पर था ताकि जिहादियों पर मुकदमा चलाकर सजा दी जा सके. अमेरिकी ड्रोनों की मदद से पाकिस्तान बड़े जिहाड़ी कमांडरों को खत्म करने में सफल हुई थी और उसने खैबर-पख्तूनख्वा पर अपनी पकड़ फिर से बना ली थी.
लेकिन आईएसआई के पूर्व प्रमुख ले.जनरल फ़ैज़ हमीद की पहल से स्थापित युद्ध विराम की विफलता के बाद टीटीपी आतंकवादियों ने पुलिस वालों को घेरकर उनके सिर कलम किए, और खुली फांसी दी है. खैबर-पख्तूनख्वा के लोग सरकार से कार्रवाई की मांग कर रहे हैं लेकिन केंद्र सरकार ने इसकी जगह अपने पुराने दुश्मन पर निशाना साधने का फैसला किया.
गृह मंत्री राणा सनाउल्लाह ने पिछले सप्ताह भारत पर आरोप लगाया कि वह लश्कर-ए-तय्यबा के संस्थापक हाफ़िज़ सईद की हत्या करने की कोशिश कर रहा है. सरकारी फाइल का दावा है कि ‘रॉ’ लंबे समय से कैद गिरोहबाज ओमप्रकाश श्रीवास्तव के जरिए ‘आतंकवादियों का एक बड़ा नेटवर्क’ चला रहा है.
इस महीने के शुरू में, नियंत्रण रेखा (एलओसी) के दौरे पर गए नये पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष जनरल सय्यद आसिम मुनीर ने कसम खाई कि वे ‘न केवल अपने मादरे वतन की हरेक इंच जमीन की रक्षा करेंगे बल्कि दुश्मन को करारा जवाब भी देंगे’. विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘गुजरात का कसाई’ कहकर अपनी ओर से जहर उगला.
लेकिन आश्चर्यजनक बात यह है कि पाकिस्तान ने टीटीपी से अपने ऊपर बढ़ते खतरे पर खामोशी साधे रखी है.
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खुदा की अपनी फौज
अधिकांश समय, उत्तेजक मुहावरों और मामूली बातों के बीच के शाब्दिक स्थान में फौजी मसले हावी रहते हैं. तीन सदियों से दुनियाभर में युद्धों में अपनी सेवा देने वाले फर्स्ट पैराशूट हूस्सार्स हमेशा कामयाब नहीं रहे लेकिन सैनिकों को वह लातिनी सूक्ति जरूर याद इलाते हैं जिसका अर्थ है—‘अगर आप सब कुछ हार भी गए हों तो भी आपका सम्मान बना रहता है’. स्विस स्पेशल सेना कहीं अधिक शायराना (और उतनी ही गंभीरता से चेतावनी देते हुए) तरीके से अपने सैनिकों को कहती है कि सितारों तक पहुंचने का रास्ता दुर्गम होता है.
वैसे, पाकिस्तानी फौज का नारा असामान्य रूप से खुलकर मजहबी सूत्र प्रस्तुत करता है—ईमान (अल्लाह पर भरोसा), तकवा (अल्लाह का खौफ), और जिहाद-फ़ी-सबिल्लाह. पाकिस्तानी फौज की जनसंपर्क सेवा की वेबसाइट पर इस मुहावरे की यह व्याख्या की गई है— ‘इस्लाम का असली मकसद इस धरती पर आदमी की सत्ता को अल्लाह की सत्ता में बदलना है’. पाकिस्तानी फौज ‘इस पाक मकसद को हासिल करने के लिए अपनी जान समेत हर चीज की बाजी लगाने के लिए समर्पित है’. यानी संविधान से ऊंचा भी एक मकसद है.
कानून के जानकार ओंडर बाक़िर्सीओग्लु बताते हैं कि इस्लामी धर्मगुरु सदियों से इस मसले पर विचार करते रहे हैं कि युद्ध कब न्यायपूर्ण माना जा सकता है. ओंडर का कहना है कि आम राय यह बनी कि ‘हरेक जंग का मकसद इस्लामी मूल्यों को आगे बढ़ाना होना चाहिए’. वैसे, दूसरे विश्वयुद्ध के बाद मुस्लिम बहुल देशों ने संयुक्त राष्ट्र के उस चार्टर पर दस्तखत किया जिसमें कहा गया है कि ‘साझा हित के सिवाय और किसी मकसद के लिए सेना का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा’.
फौजी शासक जनरल मोहम्मद ज़िया-उल-हक़ की हुकूमत ने जिहाद को मूल मकसद मानते हुए पाकिस्तानी फौज का पुनर्गठन किया. जनरल ज़िया इस्लामी विचारक अबुल अ’ला मदूदी से प्रभावित थे, जिनका कहना था कि इस्लाम ‘मान्यताओं, प्रार्थनाओं और अनुष्ठानों के घालमेल’ से कहीं ज्यादा कुछ है. वास्तव में, इस्लाम ‘एक क्रांतिकारी विचार है जो पूरी दुनिया की सामाजिक व्यवस्था को बदलकर उसे अपने सिद्धांतों और आदर्शों के मुताबिक ढालना चाहता है.’
1971 की जंग हारने के बाद पाकिस्तानी सेना के राजनीतिक वर्चस्व को फिर से स्थापित करने को चिंतित ज़िया के लिए इस विचारधारा की ओर आकर्षित होना स्वाभाविक था. इस आस्था के रहनुमाओं पर यह ज़िम्मेदारी थी कि वे अपना ‘राजनीतिक वर्चस्व कायम करें ताकि वे इस धरती पर इस आस्था की दैवी व्यवस्था स्थापित कर सकें.’ मदूदी का कहना था कि ‘एक बुरी हुकूमत के अंदर एक बुरी व्यवस्था ही जड़ जमाती है और फलती-फूलती है. और जब तक हुकूमत की बागडोर बुरे हाथों से छीनी नहीं जाती तब तक एक पाक सांस्कृतिक व्यवस्था स्थापित नहीं हो सकती.’
सेना की अपने हिसाब से छवि बनाने की कोशिशें सेना में सेवारत अफसरों के लेखों के वार्षिक संकलन ‘द ग्रीन बुक्स’ में स्पष्ट दिखती हैं. 1994 के ग्रीन बुक्स में, ब्रिगेडियर सैफी नक़वी ने लिखा कि ‘पाकिस्तान विचारधारा पर आधारित मुल्क है.’ उन्होंने आगे कहा कि इसलिए सेना ‘मुल्क की, उसकी अखंडता की और भौगोलिक सीमाओं के साथ-साथ उस वैचारिक सीमा की रक्षा के लिए जिम्मेदार है जिस विचारधारा के कारण वह वजूद में आया.’
विद्वान सी. क्रिस्टाइन फेयर ने लिखा है कि ग्रीन बुक्स के बाद के संस्करणों में ऐसे लेख भरे पड़े हैं जिनमें 9/11 के बाद शुरू हुई जंग में पाकिस्तान की भागीदारी की आलोचना की गई है. ये लेख जिहादी मुहिम के प्रति सेना में मौजूद वैचारिक सहानुभूति की चर्चा करते हैं.
आतंकवादियों से बातचीत
जानकार दाऊद खट्टक ने लिखा है कि 9/11 के बाद पाकिस्तानी सेना आतंकवादियों से बार-बार मदद लेने लगी, और उसने अपनी सीमाओं के पास के इलाके पर कब्जा करने की छूट दे दी. 2004 में, सेना ने जिहादी नेक मोहम्मद वज़ीर के साथ के एक समझौता किया, जिसने वादा किया कि उसकी सेना भारत पर ‘पाकिस्तानी एटम बम की तरह’ फट पड़ेगी. सरकार ने स्कूल पर हमला करने वाले जिहादियों के कमांडर फ़ज़्लुल्लाह के साथ इस कांड से छह महीने पहले शांति समझौता भी किया था.
हालांकि, सारे शांति समझौते टूट गए, सुलह के लिए समर्थन पूरे सत्तातंत्र में मौजूद था. इसका व्यावहारिक विवेक से भी कुछ संबंध था. इसका विकल्प एक खूनी गृह युद्ध ही था. वैसे, जिहादियों की कल्पना का इस्लामी राज पाकिस्तान के बारे में सेना की अपनी अपनी संकल्पना से मिलता-जुलता था.
ज़िया के बाद, अफसरों की दो पीढ़ियों— जो पवित्रतावादी मध्य वर्ग से आई थी और खुद को पश्चिमपरस्त कुलीनों का विरोधी मानती थी— को सिखाया गया था कि वह खुद को नये, आस्था केंद्रित पाकिस्तान का अग्रदूत माने. इस मंडली में जनरल मुनीर भी शामिल थे, जो एक रूढ़िपंथी धार्मिक परिवार के थे, जिन्होंने कुरान तभी कंठस्थ कर लिया था जब वे लेफ़्टिनेंट कर्नल थे.
2008 से 2012 के बीच आईएसआई के प्रमुख रहे ले. जनरल अहमद शूजा पाशा टीटीपी के जिहादी फज़ल हयात को ‘सच्चा देशभक्त’ बताते थे. जनरल परवेज़ मुशर्रफ के बाद सेनाध्यक्ष बने जनरल अश्फाक कयानी भी बातचीत के पक्ष में थे. 2013 में निर्वाचित पूर्व वजीरे आजम नवाज़ शरीफ ने जिहादियों से बातचीत के लिए दबाव दिया था. 2018 में सत्ता में आए पूर्व वजीरे आजम इमरान खान ने भी यही किया.
लेकिन आर्मी पब्लिक स्कूल हत्याकांड के बाद टीटीपी के साथ खुला संपर्क रखना मुश्किल हो गया, लेकिन यह बंद नहीं हुआ. हत्याकांड में मारे गए लोगों के परिवारों को नाराज करते हुए टीटीपी के प्रवक्ता लियाक़त अली को, जो एहसानुल्लाह एहसान के नाम से भी जाना जाता है, जेल से चुपचाप निकला जाने दिया गया. फ़ैज़ ने टीटीपी के बड़े जिहादियों की रिहाई कार्रवाई और वार्ता शुरू की.
गर्मियों के आखिर में जब पाकिस्तान में हिंसा बढ़ गई, पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल क़मर जावेद बाजवा ने कानून बनाने वालों को विकल्पों से अवगत कराया. उन्होंने कहा कि सेना टीटीपी के खिलाफ कार्रवाई शुरू कर सकती है, लेकिन मुल्क को ‘जवाब के लिए तैयार रहना होगा’. इसके बाद, दो सप्ताह पहले टीटीपी ने सेना के लिए युद्धविराम खत्म करने का रास्ता तैयार कर दिया. उम्मीद के मुताबिक, पाकिस्तान सरकार ने धमकी की अनदेखी की और राजनीतिक रूप से उपयोगी दुश्मन के खिलाफ कार्रवाई शुरू की.
गलत दुश्मन
आईएसआई जबकि टीटीपी से निपट रहा है, उसने भारत पर जिहादियों के साथ साठ-गांठ करने का आरोप लगाया है. 2020 में जारी एक फाइल में पाकिस्तान ने दावा किया कि स्कूल पर हमला भारत समर्थित आतंकवादी मलिक फ़रिदून की साजिश है. लेकिन पेशावर हाइकोर्ट के जज मोहम्मद इब्रहिम खान ने इस मामले की जो सरकारी जांच की उसमें फ़रिदून का कोई जिक्र नहीं है. 2016 में, पाकिस्तानी सेना ने उमर मंसूर को इस हमले का साजिशकर्ता बताया था, जिसे अफगानिस्तान में एक ड्रोन हमले में मार डाला गया.
फाइल में अफसरों और स्थानों की भी गलत पहचान दी गई है. अजित चतुर्वेदी नाम का ‘रॉ’ का कोई चीफ नहीं है. शायद इशारा अशोक चतुर्वेदी की ओर हो, जो इसमें 2007 से 2009 तक थे. पूर्व खुफिया प्रमुख विक्रम सूद और राजदूत गौतम मुखोपाध्याय के उपनाम को भी गलत लिखा गया है. फाइल के अनुसार देहरादून हरियाणा में है.
पिछले साल पाकिस्तान ने दूसरी फाइल जारी करके दावा किया कि भारत अपने यहां तीन शिविरों में इस्लामी स्टेट जिहादियों को ट्रेनिंग दे रहा है. शिविरों के जो भौगोलिक अक्षांश-देशांश दिए गए हैं वे जोधपुर में एक झील, गुलमार्ग में दो पार्किंग स्थलों के बीच के पेड़ों के झुरमुट तक पहुंचाते हैं.
खराब तरीके से तैयार की गईं फाइलें पाकिस्तान के दावों पर अंतरराष्ट्रीय संदेहों को दूर करने में असफल रहे हैं. वैसे, उनका मकसद अपनी घरेलू राजनीति को प्रभावित करना था. बाहरी खतरे का शोर मचाकर सेना और इमरान खान ने अपनी सत्ता के प्रति जनसमर्थन जुटाने की कोशिश की. वह फाइल तब जारी की गई थी जब पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ ने जनरल बाजवा पर खुला आरोप लगाया था कि वे मुल्क की सियासत में दखल दे रहे हैं, और सेना में फेरबदल भी किया था.
पिछले सप्ताह जारी फाइल भी उसी कहानी से उपजी है. इस बार प्रधानमंत्री शाहबाज़ शरीफ और उनके नये सेनाध्यक्ष ने इमरान व सेना में उनके समर्थकों के खिलाफ भारत का पत्ता खेला है. यह चाल सफल रही तो भी यह अपनी कीमत वसूलेगी. भारत विरोधी भावना को मजबूत करने से लश्कर-ए-तय्यबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे जिहादी गिरोहों को वैधता मिलेगी. तब कश्मीर में संकट पैदा करने वाला आतंकवाद शुरू हो सकता है, जो पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था दुरुस्त करने की सरकार की कोशिशों को कमजोर करेगा.
ऐसी फाइलें सत्ताधारियों के लिए राष्ट्रवादियों की ओर से कुछ तालियां तो बजवा सकती हैं लेकिन यह वह उपाय नहीं है जो पाकिस्तान को उन बारूदी सुरंगों से निजात दिला दे जिन्हें उसने खुद अपने लिए बिछा दिया है.
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(लेखक दिप्रिंट में नेशनल सिक्योरिटी एडिटर है. उनका ट्विटर हैंडल @praveenswami है. व्यक्त विचार निजी हैं.)
(संपादन : इन्द्रजीत)
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