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Wednesday, 18 December, 2024
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‘आलोचना के दरवाजे बंद करना अच्छा नहीं’- कॉलेजियम पर RSS के मुखपत्र ने मोदी सरकार का किया समर्थन

इस महीने प्रकाशित संपादकीय और लेख में आरएसएस के मुखपत्र पांचजन्य ने न्यायाधीशों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली पर सवाल उठाया और पूछा कि क्या न्यायपालिका जमीनी स्तर पर हो रहे मोहभंग से अनजान रहना चाहती है.

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नई दिल्ली: भाजपा के वैचारिक स्रोत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने न्यायाधीशों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली पर चल रहे विवाद में यह कहते हुए कदम रखा कि ‘तंत्र’ को ‘लोक’ पर हावी नहीं होना चाहिए.

वरिष्ठ नेताओं और न्यायपालिका के पूर्व सदस्यों द्वारा कॉलेजियम के खिलाफ कथित उद्धरणों का हवाला देते हुए आरएसएस ने कहा है कि न्यायपालिका को आलोचना के लिए खुला होना चाहिए.

इस सप्ताह प्रकाशित आरएसएस के मुखपत्र ‘पांचजन्य’ में संपादकीय और पांच पन्नों के एक मुख्य लेख में संगठन ने शक्तियों को अलग करने और कॉलेजियम प्रणाली के समर्थन में आने वाले तर्कों की तुलना एक ऐसी कहानी से की जिसमें अपने पति की हत्या की आरोपी एक महिला अदालत से इस आधार पर दया की मांग करती है कि वह एक विधवा है. ‘मी लॉर्ड का, मी लॉर्ड द्वारा, मी लॉर्ड के लिए’ शीर्षक वाली मुख्य लेख के एक अंश में आरएसएस ने अतीत में न्यायाधीशों के राजनीतिक झुकाव का हवाला दिया है. लेख में कहा गया कि शीर्ष अदालत ने 1970 के दशक में भारत की गांधी सरकार द्वारा घोषित आपातकाल के दौरान कथित रूप से व्यवस्था के आगे घुटने टेक दिए और लोगों के मौलिक अधिकारों को निलंबित करने के अधिकार को बरकरार रखा.

केंद्रीय कानून और न्याय मंत्री किरेन रिजिजू ने बार-बार कॉलेजियम की आलोचना की है और यहां तक दावा किया है कि इस प्रणाली के कारण न्यायाधीश उन लोगों को नियुक्त कर रहे हैं जिन्हें वे जानते हैं. जरूरी नहीं कि वे नियुक्ति के योग्य हों. शीर्ष अदालत की एक पीठ ने सुझाव दिया कि सरकार शायद कुछ नियुक्तियों को रोक रही है क्योंकि वह ‘खुश नहीं’ है कि शीर्ष अदालत ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC ) को रद्द कर दिया है.

कॉलेजियम प्रणाली में सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में आईबी के इनपुट प्रदान करने के अलावा केंद्र के पास कोई अधिकार नहीं है. NJAC के तहत नियुक्तियों के प्रभारी पैनल में न्यायिक प्रतिनिधियों के अलावा सरकार के नामित सदस्य, सदस्य के रूप में शामिल होंगे. कॉलेजियम प्रणाली को बदलने के लिए 2014 में एनजेएसी अधिनियम बनाया गया था, लेकिन अगले वर्ष सुप्रीम कोर्ट ने इसे रद्द कर दिया था.

पांचजन्य संपादकीय में कहा गया है, ‘हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायिक परीक्षा की कसौटी को ही नकारते दिखे, परंतु साथ ही वह कॉलेजियम व्यवस्था की पैरोकारी करते देखे गए. क्या व्यवस्था को नकारना और विसंगति को व्यवस्था और पारदर्शिता ठहराना यह अच्छी बात है? न्यायपालिका को यह देखना होगा कि उसकी आलोचना अकारण है या उसमें कुछ सार भी है. समालोचना के द्वार भी बंद करना यह न्यायपालिका के लिए अच्छा नहीं… क्या भारतीय न्यायपालिका इस तथ्य से पूरी तरह अनभिज्ञ रहना चाहती है कि अब नीचे, जमीनी स्तर पर, उसके प्रति मोहभंग होता जा रहा है.?’

70 के दशक के आपातकाल का उल्लेख करते हुए पांचजन्य ब्यूरो के मुख्य लेख में लिखा है, ‘28 अप्रैल, 1976 को आपातकाल के दौरान सर्वोच्च न्यायालय को यह तय करना था कि क्या न्यायालय अपनी गिरफ्तारी को चुनौती देने वाले व्यक्ति द्वारा बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर विचार कर सकता है? कई उच्च न्यायालय इसे पहले ही स्वीकार कर चुके थे. लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने सभी उच्च न्यायालयों के सर्वसम्मत फैसले के खिलाफ जाकर इंदिरा गांधी सरकार के आपातकाल के दौरान सभी मौलिक अधिकारों को निलंबित करने के अधिकार को बरकरार रखा. चार जजों ने इंदिरा गांधी सरकार के पक्ष में फैसला सुनाया. विरोध करने वाले एकमात्र न्यायाधीश न्यायमूर्ति एच.आर. खन्ना थे.’

पांचजन्य संपादकीय में भारतीय न्यायपालिका की विरासत और परंपरा की प्रशंसा करते हुए लिखा है, ‘भारत विश्व का एक सबसे पुराना लोकतंत्र ही नहीं, विश्व की सबसे पुरानी न्यायपालिका का भी देश है. भारत दुनिया के उन गिने-चुने देशों में से एक है जहां की अदालतों को ‘न्याय’ पालिका कहा जाता है. यहां उनका काम न्याय देना होता है न कि सिर्फ फैसला देना. यही कारण है कि पंच परमेश्वर की परिकल्पना वाले इस देश में न्यायपालिका को जितना सम्मान प्राप्त है, उतना संभवतः किसी और संस्थान को नहीं.

संपादकीय में आगे लिखा है, ‘लेकिन सम्मान अर्जित करना होता है और सम्मान देश को लोक देता है. सम्मान कोई भौतिक वस्तु नहीं है, जिसे खरीदा, छीना या चुराया जा सके…. यह विडम्बना है कि भविष्य का इतिहास यह दर्ज करने के लिए बाध्य होगा कि 21वीं सदी के भारत में सम्मान की अपेक्षा करने वाले संस्थानों को इस बात का एहसास नहीं हो पा रहा था कि अब जमीनी स्तर पर उनके लिए सम्मान के स्थान पर मोहभंग जैसी स्थितियां बनती जा रही हैं. अभी समय है. इसका परिमार्जन किया जा सकता है. किया जाना चाहिए. समय केवल चेतावनी दे सकता है.’


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किसने क्या कहा

यह लेख न्यायाधीशों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली के खिलाफ मामला बनाने के लिए भाजपा और राज्य के वरिष्ठ नेताओं द्वारा दिए गए बयानों पर आधारित है.

रिजिजू का हवाला देते हुए लिखा है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली दुनिया में कहीं और मौजूद नहीं है.

आरएसएस को संबोधित करते हुए अक्टूबर में अहमदाबाद में हुए साबरमती संवाद सम्मेलन में रिजिजू ने कहा था, ‘देश के कानून मंत्री के तौर पर मैंने देखा है कि जजों का आधा समय और दिमाग यह फैसला करने में ही बीत जाता है कि अगला जज कौन होगा. दुनिया में कहीं भी न्यायाधीशों की नियुक्ति न्यायाधीशों की बिरादरी नहीं करती है.’

उन्होंने यह भी आरोप लगाया था कि कॉलेजियम प्रणाली संविधान के लिए ‘विदेशी’ है.

रिजिजू ने सवाल किया था, ‘कोई भी चीज जो केवल अदालतों या कुछ न्यायाधीशों द्वारा लिए गए फैसलों के कारण संविधान से अलग है, आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि निर्णय देश द्वारा समर्थित होगा.’

इस लेख में इस महीने उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के राज्यसभा के पहले संबोधन का भी उल्लेख है, जहां उन्होंने कहा था, ‘ सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान में किए गए उस संशोधन (एनजेएसी में लाने के लिए) को पलट दिया, जिसके लिए लोकसभा ने सर्वसम्मति से वोट दिया था और 2015-16 में राज्यसभा में इसे भी चुनौती नहीं दी गई थी.’

आरएसएस के मुखपत्र ने सवाल किया कि क्या भारतीय न्यायपालिका इस तथ्य से पूरी तरह अनभिज्ञ बने रहना चाहती है कि नीचे, जमीनी स्तर पर उसके प्रति मोहभंग होता जा रहा है.

लेख में आगे कहा गया है, ‘कॉलेजियम प्रणाली का औचित्य अक्सर इस आधार पर ठहराया जाता है कि शक्ति के पृथक्करण की अवधारणा माने न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका अपना-अपना काम स्वतंत्र ढंग से करें, एक बहुत अनिवार्य तत्व है. वास्तव में शक्ति-विभाजन और नियंत्रण- संतुलन दोनों को घुमा-फिरा कर एक ही तर्क है या एकमात्र तर्क है. और एक बहुत रोचक तर्क है. शायद उस कहानी की तरह, जिसमें अपने पति की हत्या की आरोपी एक महिला अदालत से इस आधार पर दया की मांग करे कि आखिर वह एक विधवा है.’

‘पारदर्शिता की कमी, न्यायपालिका की भाषा’

हालांकि, पांचजन्य संपादकीय और लेख का मुख्य फोकस न्यायाधीशों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली के खिलाफ मामला बनाना है, लेकिन यह न्यायपालिका के खिलाफ अन्य आरोपों को भी लगाता है.

लेख की शुरुआत इस बात से हुई कि कैसे अंग्रेजी न्यायपालिका की भाषा बनी हुई है, खासकर सर्वोच्च न्यायालय में. यहां तक कि हिंदी भाषी न्यायाधीश भी अक्सर इस नियम का पालन करते नजर आते हैं.

लेख में कहा गया है, ‘गैर-हिंदी भाषी पृष्ठभूमि के न्यायाधीश हिंदी न समझ सकें, यह संभव है, समझा जा सकता है. लेकिन यही बात एक संस्था के तौर पर पूरी भारतीय न्यायपालिका के लिए शायद नहीं कही जा सकती है. क्या भारतीय न्यायपालिका को एहसास है कि ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने 2006 में किए गए अपने एक सर्वेक्षण में भारत में, भ्रष्टाचार के संदर्भ में पुलिस और न्यायपालिका दोनों को लगभग एक साथ शीर्ष पर माना था?’

पांचजन्य लेख में हिंदुस्तान टाइम्स की एक कथित रिपोर्ट का हवाला दिया गया है, जिसमें दावा किया गया था कि उच्च न्यायालय के लगभग 50 प्रतिशत न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय के 33 प्रतिशत न्यायाधीश न्यायपालिका के उच्च सोपानों में विराजमान लोगों के परिवार के सदस्य हैं.

लेख में पूर्व न्यायाधीशों द्वारा कथित उद्धरणों का भी संदर्भ दिया गया है.

आरएसएस के मुखपत्र में लिखा है, ‘वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने 2018 में कहा था कि कुछ बेहतरीन न्यायाधीशों को कई वर्षों से सर्वोच्च न्यायालय में पदोन्नति से वंचित रखा गया है, क्योंकि कॉलेजियम में उन्हें कोई पसंद नहीं करता था.’

लेख में न्यायपालिका के अन्य पूर्व सदस्यों का भी उल्लेख किया गया है.

सिक्किम उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति प्रमोद कोहली को लेख में कथित तौर पर यह कहते हुए उद्धृत किया गया है, ‘मेरी राय में अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए ‘कॉलेजियम प्रणाली’ ठीक से काम नहीं कर रही है. इसमें पारदर्शिता का अभाव है. ‘कॉलेजियम’ के सदस्यों के बीच आपसी मतभेद रहते हैं, जिसके कारण मेधावी की जगह अयोग्य उम्मीदवारों को नियुक्त किया जाता है. इसके अलावा नियुक्तियों में भी देरी होती है.’

केरल उच्च न्यायालय के एक अन्य वरिष्ठ न्यायाधीश, सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति पी. एन. रवींद्रन को कथित रूप से यह कहते हुए उद्धृत किया गया है, ‘कॉलेजियम प्रणाली मुख्य रूप से इस तर्क पर एक न्यायिक घोषणा द्वारा विकसित की गई थी कि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित करेगी. क्या यह नहीं कहा जा सकता है कि स्वतंत्रता केवल न्यायपालिका के लिए ही आवश्यक नहीं है. क्या हमारे स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के शिक्षकों को स्वतंत्र नहीं होना चाहिए? जब वे उत्तर पुस्तिकाओं का मूल्यांकन करते हैं तो क्या उन्हें किसी भी पक्ष के हस्तक्षेप से मुक्त नहीं होना चाहिए?

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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