नई दिल्ली: बिलकिस बानो को एक कड़ा झटका देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अपने 13 मई के आदेश को चुनौती देने वाली उनकी समीक्षा याचिका को खारिज कर दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने पूर्व के फैसले में कहा था कि गोधरा दंगों के समय कथित तौर पर बिलकिस बानो के रेप के मामले में आजीवन सजा पाए 11 दोषियों की क्षमा याचिका पर विचार करने के लिए गुजरात सरकार उपयुक्त प्राधिकारी है. और उनकी समय-पूर्व रिहाई का फैसला राज्य की 1992 की आम माफी नीति के तहत तय किया जाना चाहिए, जब उन्हें दोषी ठहराया गया था.
बानो की समीक्षा याचिका 13 दिसंबर को चैंबर्स में सूचीबद्ध हुई थी. जस्टिस अजय रस्तोगी और विक्रम नाथ की पीठ ने यह कहते हुए समीक्षा याचिका को खारिज कर दिया कि ‘समीक्षा का कोई मामला नहीं बनता है.’
इस चार दिन पुराने एक पेज के आदेश को शनिवार शाम सुप्रीम कोर्ट की आधिकारिक वेबसाइट पर अपलोड किया गया. हालांकि, बानो की वकील शोभा गुप्ता को याचिका खारिज होने के बारे में शुक्रवार शाम को बता दिया गया. सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री ने उनके दफ्तर को यह सूचना दो लाइन के पत्र के जरिये भेजी थी.
जब तक आदेश अपलोड नहीं हुआ था, अधिवक्ता शोभा गुप्ता को यह पता नहीं था कि याचिका किस वजह से खारिज की गई है.
वेबसाइट पर अपलोड आदेश में कहा गया है, ‘हमने समीक्षा याचिका के साथ-साथ इसमें याचिकाकर्ता की ओर से अपनी दलीलों के समर्थन में पेश कागजात और संदर्भ के तौर पर शामिल फैसलों का अवलोकन किया. हमारी राय में, रिकॉर्ड में ऐसी कोई स्पष्ट त्रुटि नहीं दिखती है, जो 13 मई, 2022 के निर्णय की समीक्षा का आधार बने. और जहां तक बात उन फैसलों की है जिन पर भरोसा जताया गया है तो इसमें कोई समीक्षा याचिकाकर्ता के लिए मददगार साबित नहीं होता है.’
हालांकि, रिहाई के खिलाफ दायर की गई बानो की कुछ रिट याचिकाओं पर अभी अदालत में सुनवाई होनी बाकी है.
समीक्षा याचिका पर कोई भी निर्णय इसकी प्रति को पीठ में शामिल न्यायाधीशों के बीच वितरित करके लिया जाता है. नियमों के तहत इसे खुली कोर्ट में तब तक नहीं सुना जाता जब तक कोई गंभीर कारण न हो. मौत की सजा का मामला इस नियम में एकमात्र अपवाद है. समीक्षा याचिका खारिज होने के खिलाफ शीर्ष कोर्ट का दरवाजा खटखटाने का एकमात्र उपाय क्यूरेटिव पिटिशन है.
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इस मामले में अब तक क्या हुआ
गुजरात के दाहोद जिले के लिमखेड़ा तालुका में 2002 के गोधरा दंगों के बाद बानो के साथ गैंगरेप किया गया था और उनकी तीन साल की बेटी का सिर फोड़ दिया गया था, जबकि परिवार के 11 अन्य सदस्यों को दंगाई भीड़ ने मार डाला था.
शीर्ष कोर्ट के आदेश पर केस की सुनवाई मुंबई ट्रांसफर कर दी गई थी. इसके बाद आरोपियों को दोषी करार दिए जाने और आजीवन कारावास की सजा सुनाए जाने को सुप्रीम कोर्ट ने बरकरार रखा था.
सजा के 14 साल पूरे होने पर दोषियों में एक राधेश्याम भगवानदास शाह ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया, और दावा किया कि माफी देने के उनके आवेदन पर गुजरात सरकार को विचार करने दिया जाना चाहिए, न कि महाराष्ट्र को जहां मुकदमा चला था.
उनकी दलील थी कि समय-पूर्व रिहाई के मामले में माफी नीति 1992 वाली होगी, न कि मौजूदा माफी नीति जो कि रेप और हत्या के मामलों में दोषियों को सजा पूरी होने से पहली रिहा करने पर रोक लगाती है.
अपने पहले के फैसलों में से एक पर भरोसा जताते हुए शीर्ष कोर्ट में जस्टिस रस्तोगी की अगुवाई वाली पीठ ने व्यवस्था दी कि दोषियों की माफी उस राज्य में सजा के समय लागू रही नीति के मुताबिक ही तय होनी चाहिए, जहां वास्तव में अपराध को अंजाम दिया गया. आखिरकार, दोषियों को 15 अगस्त को रिहा कर दिया गया.
अपनी समीक्षा याचिका में बानो ने कहा कि 13 मई का अदालती आदेश ‘विवेक से परे’ है क्योंकि यह उनकी बात सुने बिना जारी किया गया था. उसने कहा कि दोषी ने अपराध की प्रकृति और उसके नाम सहित कई ‘प्रासंगिक तथ्यों और महत्वपूर्ण पहलुओं’ को सुप्रीम कोर्ट से छिपाया था.
बानो की तरफ से कहा गया था कि कानून की भाषा स्पष्ट है और ऐसी छूट से जुड़े मामलों में फैसला लेने के लिए उपयुक्त सरकार वह राज्य है जहां आरोपी को दोषी ठहराया गया था और सजा सुनाई गई, न कि वह राज्य जहां अपराध किया गया था या आरोपी जहां का रहने वाला है.
हालांकि, बानो की समीक्षा याचिका में उठाए गए कानूनी बिंदु अभी भी कायम है. सुप्रीम कोर्ट अपने 13 मई के आदेश को चुनौती देने वाली दो रिट याचिकाओं पर पहले ही नोटिस जारी कर चुका है—जिसमें एक माकपा नेता नेता सुभाषिनी अली, पत्रकार रेवती लाल और शिक्षाविद रूप रेखा वर्मा ने दायर की थी और दूसरी टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा की तरफ से दायर की गई थी.
याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया था कि राज्य की तरफ से दोषियों को यह छूट केंद्र सरकार की मंजूरी के बिना दी गई थी.
इन याचिकाओं के जवाब में गुजरात सरकार ने अपना हलफनामा दायर किया है और दोषियों की रिहाई के फैसले का बचाव करते हुए कहा है कि केंद्र की सहमति से ऐसा किया गया था. राज्य की तरफ से याचिकाकर्ताओं के अधिकार क्षेत्र पर सवाल उठाने वाली रिट याचिकाओं का विरोध भी किया. साथ ही दोषियों के ‘अच्छे व्यवहार’ के आधार पर रिहाई को सही ठहराया.
सभी 11 दोषियों ने भी अपने जवाब में ऐसे ही तर्क दिए. साथ ही कहा कि अदालत को तीसरे पक्ष के रूप में ऐसे याचिकाकर्ताओं पर गौर नहीं करना चाहिए.
इसके बाद, बानो ने भी एक रिट याचिका दायर की. इसे अभी तक अदालत ने स्वीकार नहीं किया है. उसकी याचिका को 13 दिसंबर को जस्टिस रस्तोगी और जस्टिस बेला त्रिवेदी की पीठ के समक्ष सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया गया था लेकिन जस्टिस त्रिवेदी के खुद को इससे अलग कर लेने के बाद इस पर सुनवाई नहीं हो सकी. जस्टिस त्रिवेदी ने कहा कि चूंकि वह गुजरात से हैं, इसलिए वह गोधरा दंगों से संबंधित याचिका की सुनवाई कर रही पीठ का सदस्य नहीं बनना चाहेंगी.
जब बानो की वकील शोभा गुप्ता ने अगले दिन देश के चीफ जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ की पीठ के समक्ष याचिका को कोर्ट के शीतकालीन अवकाश से पहले सूचीबद्ध करने का आग्रह किया तो कोर्ट ने ‘बार-बार’ मामले का उल्लेख करके ‘परेशान’ करने के लिए उन्हें फटकार लगाई.
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(अनुवाद : रावी द्विवेदी | संपादन : इन्द्रजीत)
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