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Friday, 22 November, 2024
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तवांग की झड़प अंतिम नहीं, भारत को चीन से 1993 के समझौते पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत

चीन के साथ भारत की रणनीति को मौजूदा भू-राजनैतिक और भू-आर्थिक हकीकतों की रोशनी में नए सिरे से तैयार करने की दरकार है.

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तवांग में चीन का दुस्साहस अनसुलझी उत्तरी सीमा पर अपनी स्थिति मजबूत करने की एक और कोशिश नज़र आता है. जून 2017 में डोकलाम और जून 2020 में गलवान घाटी के बाद तवांग के यांगस्ते क्षेत्र में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर पीएलए टुकड़ियों के घुसपैठ की कोशिश के दौरान हुई झड़प भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच टकराव की तीसरी बड़ी घटना है. दोनों परमाणु शक्तियों के बीच ताजा संघर्ष केवल ‘शारीरिक टकराव’ थी, जिसमें कोई गोली-बंदूक नहीं चली.

दोनों ओर से लोहे के छड़े, कील-कांटों वाले नुकीले दस्ताने, घूसों और टेजर गन (दुश्मन को बेदम करने के लिए इस्तेमाल में लाए जाने वाला एक इलेक्ट्रोशॉक गैर-घातक हथियार) जैसे औज़ारों का ही इस्तेमाल किया गया. लिहाज़ा, दोनों ओर के जवान जख्मी हुए, लेकिन चीन के सैनिकों को अधिक घाव झेलने पड़े. केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने संसद को बताया कि किसी भी भारतीय सैनिक की मृत्यु नहीं हुई है या कोई गंभीर नुकसान नहीं हुआ है और ‘हमारा कोई जवान घातक या गंभीर रूप से घायल नहीं हुआ है.’

हालांकि, चीन के सैनिकों को चाहे जितने गंभीर ज़ख्म झेलने क्यों न पड़े हो, तवांग सेक्टर के यांगत्से में भारतीय इलाके में घुसपैठ की उसकी यह कोशिश आखिरी तो नहीं है. अरुणाचल प्रदेश-तिब्बत सीमा पर किसी न किसी जगह यह कोशिश अभी भी जारी रह सकती है. 1972 तक जिसे, नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (नेफा) कहा जाता था उस अरुणाचल प्रदेश की अंतरराष्ट्रीय सीमा उत्तर और उत्तर-पश्चिम में तिब्बत से, पश्चिम में भूटान और पूरब में म्यांमार से मिलती है. इसलिए यह भारत के लिए रणनीतिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण है. इसके अलावा, ये तिब्बती बौद्ध धर्म का एक महत्वपूर्ण धार्मिक केंद्र है. यहां गांदेन नामग्याल ल्हात्से मठ तिब्बत में ल्हासा के मठ के बाद दूसरा सबसे बड़ा मठ है. इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि तवांग तिब्बत और ब्रह्मपुत्र घाटी के बीच रणनीतिक महत्व का गलियारा है. नई दिल्ली इस इलाके में एक इंच ज़मीन भी गंवाने का जोखिम नहीं उठा सकती.

पिछले सप्ताह की तरह सीमा पर घुसपैठ होती रहेगी क्योंकि बीजिंग अपनी ‘क्षेत्रीय असुरक्षा’ की भावना से ग्रस्त है. इससे निपटने के बाद ही वह ‘सीमा विवाद’ खत्म करने का फैसला ले पाएगा. जहां तक चीनी रणनीति का संबंध है, भारत के साथ तथाकथित सीमा विवाद को तभी सुलझाया जा सकता है जब एलएसी को उसके पक्ष में फिर से खींचा जाए. बीजिंग की यह मंशा नहीं लगती है कि बड़ी जंग या भरपूर ताकत के इस्तेमाल से सीमा मुद्दे को सुलझाएगा.


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भारत को नई स्थितियों पर विचार करना जरूरी

बीजिंग ने अपने कब्जे वाले क्षेत्रों में अपनी स्थिति मजबूत कर ली है. उसने सैनिकों की तैनाती बढ़ा दी है और बुनियादी ढांचे में सुधार किया है.

चीन से निपटने के लिए भारत की रणनीति को मौजूदा भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक हकीकतों के मद्देनजर नए सिरे से तैयार करने की आवश्यकता है. पेंटागन के प्रेस सचिव पैट राइडर का बयान इस संदर्भ में स्वागत योग्य है- ‘हमने देखा है कि पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चीन तथाकथित एलएसी पर सेना का जमावड़ा बढ़ा रहा है और सैन्य बुनियादी ढांचे का निर्माण कर रहा है’.

चीनी घुसपैठ पर अमेरिका की चिंता नई दिल्ली को ‘चीन के कदम रोकने’ की परियोजना में एक भागीदार के रूप में सचेत करने की लगती है. बाइडन और शी जिनपिंग के बीच हाल की बातचीत के बावजूद, अमेरिका और चीन के बीच भरोसा बहाली में खास प्रगति नहीं हुई है. चीन अपनी विस्तारवादी और एकाधिकार कायम करने की रणनीतियों में अमेरिका को सबसे बड़ी रुकावट मानता है.

चीन ने 2014 में तिब्बत की राजधानी ल्हासा से शिगात्से (257 किमी पश्चिम) को जोड़ने वाली एक रेलवे लाइन शुरू की. शिगात्से सिक्किम के उत्तर में है, उसकी योजना भविष्य में इस रेल नेटवर्क को भारत और नेपाल सीमा तक ले जाने की है. यह रेल नेटवर्क तिब्बत से खनिज संसाधनों की ढुलाई के अलावा, चीन के लिए सामरिक महत्व रखता है क्योंकि इसका उद्देश्य ‘तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र (टीएआर) के आर्थिक विकास और राष्ट्रीय रक्षा को मजबूत करना है.’

जहां तक भारत की बात है, पिछली सरकारों के एजेंडे में सीमावर्ती इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास का मुद्दा अंतिम पंक्ति में हुआ करता था. मौजूदा सरकार ने रणनीतिक दृष्टिकोण के साथ बड़े पैमाने पर रेल-सड़क नेटवर्क तैयार करने का फैसला किया, ताकि लोगों की आवाजाही की सुविधा के अलावा सेना की सीमा तक पहुंच आसान हो जाए. नई दिल्ली को रेल-रोड लिंक के पहले चरण को पूरा करने और भारत-तिब्बत सीमा पर ऐसे कई और लिंक की योजना बनाने की ज़रूरत है.

1993 का सीमा शांति समझौता और उसके बाद के शांति बहाली के दूसरे समझौते अपेक्षित नतीजे देने में नाकाम रहे हैं. यह सही है कि सीमा पर कोई बड़ा सशस्त्र टकराव नहीं हुआ है, लेकिन भारतीय गांवों और रणनीतिक चौकियों पर घुसपैठ की चीनी रणनीति कायम है. ऐसी स्थिति में, बीजिंग को यह संकेत देने की तत्काल जरूरत है कि नई दिल्ली 1993 के समझौते और अन्य भरोसा बहाली उपायों पर फिर से विचार करना चाहेगी. यह कोई संयोग नहीं है कि 2014 में शी जिनपिंग की भारत यात्रा से कुछ दिन पहले, पीएलए ने भारतीय गश्ती दल के आमने-सामने आने के लिए डेमचोक में टेंट लगा लिया था. नई दिल्ली को बीजिंग के इस चूहा-बिल्ली के खेल को नाकाम करने की जरूरत है.

हालांकि, चीन में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों की खबरें हैं, लेकिन घरेलू स्थितियों से पीएलए के मंसूबों पर कोई फर्क नहीं पड़ता. भारत को सेना की तैयारी बढ़ाने और तैनाती में तेजी लाने की भी जरूरत है.
मनोवैज्ञानिक युद्ध के हिस्से के रूप में, भारत और अन्य जगहों पर स्थित तिब्बती समुदाय को ‘आज़ाद तिब्बत’ के सपने से जगाने में मदद करनी चाहिए. भू-राजनीति की चाल की थाह लेना भी कठिन है, अनुमान लगाना तो दूर की बात है.

(शेषाद्री चारी ‘ऑर्गनाइजर’ के पूर्व संपादक हैं. उनका ट्विटर हैंडल @seshadrichari है. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(अनुवादः हरिमोहन मिश्रा | संपादनः फाल्गुनी शर्मा)


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