पिछले महीने एक दिन अचानक सोशल मीडिया, ट्विटर, फेसबुक और व्हाट्सऐप पर एक ‘खबर’ तैरने लगी. ये खबर बीएसपी के ‘लेटरहेड’ पर जारी एक लिस्ट थी, जिसमें उत्तर प्रदेश के उन नेताओं के नाम थे, जिन्हें बीएसपी अगले लोकसभा चुनाव में उतारने वाली है. ये लिस्ट तेजी से वायरल हो गई और दलित-बहुजन ग्रुप्स में दौड़ने लगी. इस पर हंगामा इतना बढ़ गया कि बीएसपी के प्रदेश अध्यक्ष को बाकायदा प्रेस रिलीज जारी करके बताना पड़ा कि ये लिस्ट शरारतपूर्ण है और बीएसपी ने अभी तक कैंडीडेट की लिस्ट फाइनल नहीं की है.
अब बीएसपी के बारे में ऐसी कोई फर्जी खबर आसानी से नहीं चल पाएगी. क्योंकि बीएसपी अध्यक्ष मायावती अब ट्विटर पर आ गई हैं. उनका ट्विटर हैंडल है @SushriMayawati . उनके सोशल मीडिया पर आने के चंद घंटों में ही उनके फॉलोवर्स की संख्या हजारों में पहुंच चुकी है.
भारत में इस समय इंटरनेट के लगभग 45 करोड़ यूज़र हैं. फेसबुक और व्हाट्सऐप के यूज़र्स की संख्या 25 करोड़ को पार कर चुकी है. ट्विटर यूजर्स की संख्या लगभग साढ़े तीन करोड़ हो चुकी है. इतने विशाल जनसमुदाय की अनदेखी करना किसी भी दल या संस्था के लिए आसान नहीं है. और फिर सोशल मीडिया के यूजर्स अपेक्षाकृत पढ़े-लिखे और इस वजह से असरदार लोग हैं.
आश्चर्यजनक है कि बहुजन समाज पार्टी और मायावती को ये बात समझने में इतनी देर लग गई कि सोशल मीडिया पर उन्हें होना चाहिए. कहना मुश्किल है कि बीएसपी ने सोशल मीडिया में आने में इतनी देर क्यों की और अब आखिर वो कौन सी बात हो गई कि उन्हें सोशल मीडिया पर आना पड़ा.
इसे लेकर कई तरह की व्याख्याएं हो सकती हैं. परंपरागत मीडिया यानी अखबार चैनलों आदि को लेकर आंबेडकरवादी और बहुजन चिंतकों की धारणा ये रही है कि ये ब्राह्मणवादी संस्थाएं हैं और उनमें आंबेडकरवादी विचारों के लिए जगह नहीं है. 1943 में दिए गए एक मशहूर भाषण ‘गांधी, रानाडे और जिन्ना’ में बाबा साहेब लिखते हैं – ‘मैं कांग्रेसी अखबारों को अच्छे से जानता हूं. मैं उनकी आलोचना को कोई महत्व नहीं देता. इसने कभी मेरे तर्कों का खंडन नहीं किया. वे सिर्फ मेरे हर कृत्य की आलोचना करना और उसके लिए मुझे कोसना जानते हैं और मेरी हर बात को गलत तरीके से पेश करते हैं. मेरा कोई भी काम उन्हें खुश नहीं करता. कांग्रेसी अखबारों की मेरे प्रति दुश्मनी की वजह जानने की कोशिश करूं तो मेरी समझ में ये आता है कि ये हिंदुओं के मन में अछूतों के प्रति घृणा से इसकी व्याख्या की जा सकती है.’
बसपा संस्थापक कांशीराम भी मेनस्ट्रीम मीडिया, चैनल और अखबारों को ब्राह्मण-बनिया मीडिया कहते रहे. आंबेडकर और कांशीराम दोनों ने और पेरियार समेत तमाम बहुजन नेताओं-विचारकों ने इसी वजह से अपना मीडिया बनाने की कोशिश की.
लेकिन इस तर्क के आधार पर सोशल मीडिया की अनदेखी को समझ पाना मुश्किल है. सोशल मीडिया में बेशक कॉर्पोरेट और राजनीतिक दबाव काम करता है और सरकारें उसके काम में हस्तक्षेप भी करती हैं. लेकिन एक हद तक उसमें स्वायत्तता और स्वतंत्रता भी है. जिसका इस्तेमाल करने में कोई बुराई नहीं है. बीएसपी को सोशल मीडिया पर शायद इसलिए भी आना पड़ा क्योंकि उनकी दलित-बहुजन जनता पहले से ही सोशल मीडिया पर आ चुकी है. इसी स्पेस में कई प्रतिद्वंद्वी समूह भी होड़ करने की कोशिश में जुटे हैं.
भारत में सोशल मीडिया की कहानी करीब 12 साल पुरानी है, जब फेसबुक और ट्विटर लगभग साथ-साथ आते हैं. बीजेपी ने सोशल मीडिया के महत्व को सबसे पहले पहचाना और 2014 के लोकसभा चुनाव में इसका जोरदार इस्तेमाल किया. इस समय ज्यादाजर पार्टियां अपनी प्रेस रिलीज सोशल मीडिया पर जारी करती हैं. नेताओं के शुभकामना संदेश, उनकी मुलाकातें, उनके भाषण, आदि भी सोशल मीडिया पर जारी किए जाते हैं. इसमें सबसे अच्छी बात ये है कि पार्टियों का पक्ष सीधे आम जनता तक पहुंचता है.
जैसा कि मैंने पहले भी लिखा है कि भारत की विशाल आबादी अब सोशल मीडिया के दायरे में हैं. देश का हर तीसरा आदमी किसी न किसी तरह से इंटरनेट से जुड़ा है. बीएसपी के जनाधार के नजरिए से देखें तो ये आबादी सिर्फ सवर्णों की नहीं है. अगर सवर्णों की आबादी को 15 फीसदी मानें और ये मान लें कि पूरी सवर्ण आबादी इंटरनेट से जुड़ी है, तो भी भारत में 45 करोड़ इंटरनेट यूज़र होने का मतलब है कि इंटरनेट और सोशल मीडिया पर दलित और बहुजन अच्छी खासी संख्या में है.
इसके दूसरे प्रमाण भी हैं. जैसे कि मुख्य रूप से दलित मुद्दे उठाने वाले फेसबुक चैनल नेशनल दस्तक के 21 लाख सब्सक्राइबर हैं. एक और चैनल बहुजन टीवी के 6 लाख, आवाज़ इंडिया के 4 लाख और दलित दस्तक और दलित न्यूज़ नेटवर्क के 3-3 लाख से ज़्यादा सब्सक्राइबर हैं. फेसबुक पर कई ऐसे पेज हैं जो दलित मुद्दे उठाते हैं और उनके लाखों फॉलोवर्स हैं.
2 अप्रैल का भारत बंद जिस तरह से सोशल मीडिया से शूरू होकर देशभर में फैल गया, वह भी दलित-बहुजन पब्लिक स्फियर के प्रभावी होने का प्रमाण है. इसके अलावा पिछले दिनों भारत दौरे पर आए ट्विटर के सीईओ जैक डोरसी के ‘स्मैश ब्राह्मिनिकल पैट्रीयार्की’ पोस्टर थामने को लेकर जब हंगामा हुआ तो बहस एकतरफा नहीं थी. दलित बहुजन स्पेस से भी इसका जवाब दिया गया.