तो, चुनाव में स्थिति कैसी दिखती है? जब आप वोटिंग से कुछ दिन पहले मतदाताओं से यह सवाल पूछते हैं, तो वे आमतौर पर मुकाबले में शीर्ष के दो उम्मीदवारों के बारे में ही बताएंगे. अक्सर तीसरे, चौथे और पांचवें नंबर के उम्मीदवार बस रंग में भंग डालने वाले होते हैं.
इसीलिए, किसी पार्टी द्वारा जीती गई सीटों की संख्या के साथ–साथ उन सीटों पर भी गौर करना उपयोगी होता है जहां कि उसके उम्मीदवार दूसरे नंबर पर रहे हों. इन दोनों के योग से पार्टी की वास्तविक ताक़त का अंदाज़ा लग जाता है. कांग्रेस जितनी सीटों पर पहले या दूसरे नंबर पर रही थी, उसकी भाजपा की स्थिति से तुलना करने पर बड़ी ही दिलचस्प बात निकलकर सामने आती है.
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1990 के दशक में लगातार कांग्रेस अनेक सीटों पर दूसरे नंबर का स्लॉट भी गंवाती रही है, खास कर उत्तर प्रदेश और बिहार में. चूंकि कांग्रेस का ह्रास तेज़ हो रहा था जबकि भाजपा उतनी तेज़ी से ऊपर नहीं आ रही थी, इसलिए हमारा सामना तीसरे मोर्चे की अस्थिर सरकारों से हुआ. आगामी चुनाव में भी एक बार फिर ऐसी ही स्थिति बन सकती है.
जहां तक 1998 की बात है तो कांग्रेस और भाजपा दोनों ही लगभग समान संख्या में सीटों पर पहले या दूसरे नंबर पर रही थीं: कांग्रेस 300 सीटों पर और भाजपा 307 सीटों पर. उसके बाद कांग्रेस की स्थिति में थोड़ा सुधार हुआ और वाजपेयी युग की समाप्ति के साथ ही यूपीए की वापसी हुई, पर 2014 आकर यह स्थिति पूरी तरह पलट गई.
पिछले कुछ वर्षों में दिल्ली, त्रिपुरा और नागालैंड में कांग्रेस का एक तरह से सफाया हो गया है. त्रिपुरा में भाजपा और दिल्ली में आप ने दिखा दिया कि कांग्रेस पार्टी का विकल्प बनना कितना आसान है.
तीन प्रमुख राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में पिछले दिनों मिली जीत से कांग्रेस पार्टी और इसके समर्थकों में नई उम्मीद जगी है. क्या हम यूपीए-3 की ओर बढ़ रहे हैं? क्या हमें 2004 के चुनावों वाला परिणाम देखने को मिलेगा? भाजपा से नाखुश होने की स्थिति में मतदाताओं के पास कांग्रेस की शरण में जाने का कोई और विकल्प है? क्या पता, जल्दी ही राहुल गांधी प्रधानमंत्री बन जाएं?
निश्चय ही, ये सारी परिस्थितियां संभावनाओं के दायरे में हैं, पर वर्तमान में ऐसा होने की ज़्यादा उम्मीद नहीं दिखती है. यूपीए-1 का नेतृत्व 145 सीटों वाली कांग्रेस कर रही थी. आज, कांग्रेस को लगता है कि यह आसानी से 100 का आंकड़ा पार कर सकती है, पर 145 एक मुश्किल लक्ष्य है. ये इसलिए कि 2014 के चुनाव में कांग्रेस की मज़बूत उपस्थिति (नंबर 1 या 2) मात्र 268 सीटों पर थीं. यानि लोकसभा की कुल 543 सीटों में से आधे से भी कम पर.
भारत के मानचित्र पर कांग्रेस का फैलाव – जीत नहीं, महज उपस्थिति – कम होता जा रहा है. नरेंद्र मोदी की सत्ता में वापसी होती है या नहीं, पर वह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि कांग्रेस की उपस्थिति का दायरा और भी सिकुड़ जाए.
भाजपा अब खुद को ओडिशा में नवीन पटनायक सरकार और पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी सरकार के मुख्य प्रतिद्वंदी के रूप में पेश कर रही है. सबरीमाला विवाद के सहारे केरल में भी पार्टी पूरा ज़ोर लगा रही है. पूर्वोत्तर के राज्यों के अलावा इन तीन राज्यों में भाजपा अतिरिक्त सीटें पाने की उम्मीद कर रही है. पार्टी को लगता है कि इन राज्यों की बढ़त से, सीमित मात्रा में ही सही, हिंदी पट्टी के राज्यों में अवश्यंभावी दिख रहे नुकसान की भरपाई हो सकेगी.
भाजपा यदि बंगाल या ओडिशा में ज़्यादा सीटें नहीं जीतती है, और केरल में भी उम्मीदें फलीभूत नहीं होती हैं, तथा पूर्वोत्तर में इसके प्रयासों को नागरिकता विधेयक पर छिड़े विवाद का ग्रहण लग जाता है, तो वैसी स्थिति में भी मोदी–शाह की पार्टी यह सुनिश्चत करना चाहती है कि इन क्षेत्रों में कांग्रेस तीसरे नंबर की ताक़त भर रह जाए.
मालदा से कांग्रेस सांसद मौसम बेनज़ीर नूर ने हाल ही में तृणमूल कांग्रेस का दामन थाम लिया. इस तरह के घटनाक्रमों से पता चल जाता है कि बंगाल में हवा का रुख क्या है. वहां उत्तरोत्तर तृणमूल बनाम भाजपा की स्थिति बन रही है. बंगाल में कांग्रेस और वाम दलों का सफाया हो सकता है और वे चिरकाल तक अपने गठबंधन को लेकर चर्चा करते रह सकते हैं.
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यदि राहुल गांधी सौभाग्य से प्रधानमंत्री बन भी जाते हैं तब भी ऐसा लगता है कि भारत को कांग्रेस-मुक्त बनाने की प्रक्रिया नैसर्गिक और अबाध है. अमरिंदर सिंह ने पंजाब में कांग्रेस को इतिहास के गर्त में जाने से भले ही बचा लिया, पर आम आदमी पार्टी ने दिखा दिया है कि कई राज्यों में लोग किसी तीसरी ताक़त को लेकर कितने उत्सुक हैं.
बिज़नेस की भाषा में कहें तो द्विध्रुवीय राजनीति वाले राज्यों में बाज़ार तैयार है पर राजनीतिज्ञ उसका लाभ नहीं उठा पा रहे हैं. हिंदी पट्टी के जिन प्रदेशों में कांग्रेस अब भी शीर्ष दो पार्टियों में शामिल है, वहां उसके विकल्प के तौर पर किसी तीसरे दल का उदय सिर्फ समय की बात लगती है. अभी तक, राहुल गांधी किसी नए राज्य में उपस्थिति दर्ज कराने, या फिर अपनी मौजूदगी वाले राज्य को बचाए रखने की क्षमता नहीं दिखा पाए हैं.
तीन राज्यों में कांग्रेस पार्टी की जीत के बावजूद, कांग्रेस-मुक्त भारत की प्रक्रिया अब भी जारी है, और यह मोदी–शाह के एजेंडे में अब भी शीर्ष पर है.
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