सुपरस्टार मानव दर्शकों का चहेता एक्शन हीरो है. हरियाणा के किसी गांव में चल रही उसकी शूटिंग के दौरान सेट पर उससे मिलने आया एक युवक विक्की मारा जाता है. कोई लफड़ा न हो इसलिए मानव वहां से तुरंत मुंबई और फिर लंदन भाग जाता है. इधर पब्लिक और मीडिया की नज़रों में वह हीरो से भगौड़ा विलेन बन चुका है.
विक्की का दबंग भाई भूरा सोलंकी उसे मारने के लिए लंदन पहुंच जाता है. वह मानव के पीछे है, वहां की पुलिस इन दोनों के पीछे है और कोई तीसरा भी है जो इस दंगल में कूद चुका है. क्या मानव ने ही विक्की को मारा था? हां, तो क्यों? और नहीं, तो फिर क्या है इस सारी भागमभाग के पीछे का सच?
कहानी के पन्ने बहुत उलझे हुए हैं लेकिन इन्हें जिस तरह से पलटा गया है उससे यह न सिर्फ काफी दिलचस्प बन गई है बल्कि उससे इस कहानी को एक अलग फ्लेवर, एक अलग मकाम भी मिला है. किसी से बच कर भागने की कहानियां यदि तेज़ गति और ट्विस्ट के साथ परोसी जाएं तो रोमांचक और मनोरंजक, दोनों हो जाती हैं. यह फिल्म भी कहीं रुकने का मौका दिए बिना अपने तेज़ी से बदलते घटनाक्रम, लगातार जुड़ते नए किरदारों, फटाफट एक्शन और चुटीले संवादों से दिल-दिमाग पर असर करती चली जाती है.
फिल्म की पटकथा को बड़े करीने से पिरोया गया है. एक साधारण-सी कहानी को किस तरह से एक कसी हुई स्क्रिप्ट में तब्दील किया जाता है, यह चीज़ इससे सीखने लायक हो सकती है. हरियाणा के किरदारों के संग वहां की भाषा, अक्खड़पन, मुहावरे व अन्य विशेषताएं जोड़ कर लेखक नीरज यादव ने सचमुच दमदारी और समझदारी दिखाई है.
फिल्म में हंसी ठिठोली का काम इसके संवाद बखूबी करते हैं. अपनी इस पहली फिल्म से लेखक-निर्देशक अनिरुद्ध अय्यर बताते हैं कि उन्होंने दस साल तक आनंद एल. रॉय के सहायक के तौर पर कितना कुछ सीखा है. सीन बनाना उन्हें अच्छे-से आता है और उन दृश्यों के ज़रिए कुछ कह जाने की कला भी वह जानते हैं.
इसके कलाकारों का अभिनय फिल्म की अगली बड़ी खूबी है. आयुष्मान खुराना को हम इस किस्म के किरदारों के लिए नहीं जानते हैं लेकिन उन्होंने इस किरदार को भी सौतेला नहीं लगने दिया है. कभी दंभी, कभी मजबूर, कभी चालाक तो कभी मासूम लगने के भावों को उन्होंने बखूबी निभाया है. जयदीप अहलावत का काम बेमिसाल रहा है. अपने भाई की मौत की खबर सुन कर वह जिस तरह से प्रतिक्रिया देते हैं उस एक दृश्य में वह बता देते हैं कि उन जैसे कलाकार ही किरदारों को अमर बनाते हैं. बाकी के लोग भी खूब जंचे हैं. अक्षय कुमार के दो सीन फिल्म में तड़का लगाते हैं. कहानी में किसी हीरोइन का न होना कुछ पल को अखरता है लेकिन फिर महसूस होता है कि इस कहानी में हीरोइन की जरूरत भी नहीं थी. बाकी, मलाइका अरोड़ा और नोरा फतेही की दो गानों में मौजूदगी से काफी भरपाई तो हो ही जाती है.
फिल्मी सितारों की जीवन शैली, उनकी सोच पर यह फिल्म व्यंग्य करती दिखाई पड़ती है. साथ ही यह मीडिया व जनता को भी कटघरे में खड़ा करने से पीछे नहीं हटती जो जरा-सी चूक होने पर किसी को आसमान से फर्श पर ले आते हैं तो पल भर में किसी को आसमान पर भी बिठा देते हैं. हालांकि मीडिया वाला हिस्सा कहीं-कहीं अति भी करता है. हालांकि, गाने उम्दा हैं, अच्छे लगते हैं-सुनने में भी, देखने में भी. बैकग्राउंड म्यूज़िक बढ़िया है. इंगलैंड की अछूती लोकेशंस को देखना सुहाता है. कैमरावर्क उम्दा है और एक्शन बढ़िया.
(संपादनः फाल्गुनी शर्मा)
(दीपक दुआ 1993 से फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं. विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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