लगभग 12.45 बजे दिन में प्रियंका गांधी के सक्रिय राजनीति में आने की खबर टेलीविज़न के स्क्रीन पर फ़्लैश होती है कि प्रियंका गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पार्टी में ‘महासचिव’ बनाया है और उन्हें पूर्वी उत्तर प्रदेश की ज़िम्मेदारी दी गई है. बस क्या था कि कांग्रेस की चिर-प्रतिद्वंदी भाजपा के तमाम प्रवक्ता तमाम तरह के राजनीतिक असलहों, वक्तव्यों, आरोपों, सलाहों, उलाहनों और घोर प्रतिक्रियाओं से लैस होकर टीवी पर उतर आते हैं और कटाक्ष, आरोप-प्रत्यारोप, रॉबर्ट वाड्रा के घोटालों की कहानियां, और वंशवाद, नामदार-कामदार जैसे लक्षणा-व्यंजना सब दर्शकों के सामने आने लगते हैं कि-
‘राहुल गांधी अभी तक बैक फुट पर राजनीति कर रहे थे तो प्रियंका फ्रंटफुट पर खेलने आयी हैं.’
‘जो राहुल गांधी और अन्य कांग्रेसियों का हश्र हुआ है वहीं राजनीति में प्रियंका का भी होगा.’
‘फिर उनके पास करोड़ों की सम्पति है.’
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लेकिन एक बात सभी जगह समान रूप से परिलक्षित हो रही थी और वो यह कि सभी कुछ न कुछ निराशा के समंदर में डूबे हुए से दिख रहे थे और चेहरे मुरझाये हुए थे. वैसे बरसों से कई कांग्रेसी नेता और निचले स्तर के कार्यकर्ता भी उन्हें राजनीति में उतारने के लिए अभियान चलाते रहे हैं लेकिन शायद कांग्रेस की यह रणनीति रही हो कि पहले राहुल ठीक से स्थापित हो जाएं फिर प्रियंका को लाया जायेगा और ये सबसे उपयुक्त समय था उन्हें राजनीति में लाने का, क्योंकि राहुल गांधी छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश में कांग्रेस को जीत दिला चुके हैं.
इस माहौल में जहां राजनीति में खीझ है, शोर-शराबा है, आरोप-प्रत्यारोप हैं वही जानकारों की मानें तो प्रियंका गांधी का व्यक्तित्व जितना आकर्षक है, लोगों से संवाद करने का तरीका भी उतना ही शालीन है. बातों में दिखावा या आत्मप्रवंचना करने की कोशिश कभी नहीं होती. प्रियंका गांधी के संवाद का तरीका दोतरफा होता है, अगर कुछ बोलती-कहती हैं तो लोगों को खूब सुनती भी हैं, जिस कारण लोग उनकी बातों से सम्मोहित हुए बिना नहीं रह पाते, उनमें किसी एकांतवासी नेता की तरह कोई अकड़ नहीं है जो न तो किसी की सुने और अपनी राग गाये जाये. झूठे वादे करना प्रियंका गांधी को ठीक नहीं लगता. अपनी मां सोनिया गांधी के क्षेत्र में काम करते हुए कई बार ऐसा टेलीविज़न पर बयान देते सुना गया है कि ‘जो काम नियम विरुद्ध है या मैं नहीं कर सकती उसका वादा नहीं कर सकती.’
प्रियंका गांधी के सौम्य व्यवहार और मिलनसारिता को याद करते हुए कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और तत्कालीन पार्लियामेंट्री पार्टी के जनरल सेक्रेटरी जेके जैन याद करते हैं कि कैसे इंदिरा जी के देहावसान के बाद जब आम लोगों के दर्शन के लिए उनकी बॉडी तीन मूर्ति भवन में रखी गयी थी तो ये छोटे-छोटे बच्चे (राहुल, प्रियंका) वहां मैनेज कर रहे थे, लोगों को बैठा रहे थे, प्रियंका मात्र 12 साल की थीं, लेकिन इतनी आत्मीयता रखती थीं कि किसी को कोई परेशानी न हो.
तमाम आत्ममुग्धता में डूबे पॉलिटिकल पार्टी के नेता अपने झूठे वादों के लिए बदनाम हो रहे हैं लेकिन प्रियंका की ऐसी साफगोई लोगों को पसंद आती है. वैसे भी आम जनमानस ऐसे वादों और वादा करने वालों नेताओं से भिनकने लगा है, लेकिन जनता के पास कहीं भी विकल्प नहीं है. शायद प्रियंका इस मिथक को तोड़ें.
कांग्रेस के सभी नेताओं ने इसे हाथों-हाथ लिया है, सबने अपने मन मे पटाखे फोड़े हैं. क्योकि उन्हें लगता है कि राहुल गांधी के साथ अगर प्रियंका राजनीति में उतरती हैं तो कांग्रेस को इसका ज़बर्दस्त लाभ मिल सकता है. प्रियंका गांधी को महासचिव बनाया गया है और उन्हें पूर्वी उत्तर प्रदेश की ज़िम्मेदारी दी गयी है, जो भोजपुरी बेल्ट है, जहां की आबादी का बहुसंख्यक हिस्सा अस्मिता की राजनीति करने में अब सिद्धहस्त हो चुका है, वहां ज़बर्दस्त जातिवाद है. सवर्ण, पिछड़ा और दलित राजनीति अपने-अपने कोर वोटरों में अपनी जड़ें जमा जमा चुकी है. लेकिन वोटों का कुछ प्रतिशतता अब भी परिवर्तनशील है, जिसमें अगड़े वोटर अग्रणी भूमिका निभा सकते हैं कांग्रेस के लिए.
सवर्ण विशेषकर ब्राह्मण मतदाताओं पर असर होगा: प्रियंका गांधी को पूर्वी उत्तर प्रदेश की ज़िम्मेदारी दी गयी है, जहां लगभग 26 सीटें हैं, जिसमें से भाजपा ने 2014 में 25 सीटें जीतीं थी केवल आज़मगढ़ सीट सपा के मुलायम सिंह ने जीती थी. पूर्वी उत्तर प्रदेश में वहां के मुख्यमंत्री योगी अदित्यनाथ की ज़बर्दस्त हनक है. ज़मीनी स्तर पर उनके कार्यकर्ता काफी सक्रिय हैं, जहां प्रियंका की राह आसान नहीं होगी, लेकिन उस क्षेत्र में ब्राह्मण वोट निर्णायक होते हैं और यह मानने में किसी को कोई समस्या नहीं होनी चाहिए कि ब्राह्मण परम्परागत रूप से कांग्रेस के वोटर रहे हैं, लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लहर के फलस्वरूप भाजपा में गए तो कुछ क्षेत्रीय दलों के ज़बर्दस्त उभार के कारण काफी सारे ब्राह्मण सपा-बसपा में चले गए, लेकिन कांग्रेस के इस पहल से उनकी वापसी हो सकती है. युवाओं में प्रियंका का काफी क्रेज़ रहा है, लेकिन सक्रिय राजनीति में नहीं आने से निराश युवक अब उनकी वापसी पर कांग्रेस की ओर अपना रुख कर सकते हैं. कांग्रेस के इस रणनीति के पीछे के कारणों को इन बिन्दुओं से समझा जा सकता है.
कांग्रेस का अंतिम अमोघ अस्त्र: राहुल गांधी लगभग 15 सालों से सक्रिय राजनीति में हैं, लेकिन उनका व्यापक असर नहीं हो रहा था, हां तीन राज्यों छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश में उन्होंने अवश्य जीत दर्ज कर कांग्रेस की सरकार बनवाई है, लेकिन राजनीति के बड़े सूरमा नरेन्द्र मोदी, अमित शाह और हठी राजनीतिक योगी आदित्यनाथ से लड़ना अकेले उनके बूते की बात नहीं है, इसलिए प्रियंका गांधी नाम का ब्रह्मास्त्र उन्होंने चला दिया है और इस कारण कांग्रेस लड़ाई में आ गई है. पूर्वी उत्तर प्रदेश से सटे बिहार की संस्कृति, बोल-चाल, भाषा, राजनीतिक वातावरण भी लगभग एक जैसा ही है, जिसका लाभ कांग्रेस को मिलेगा. संभवतः प्रियंका नयी टीम के साथ बेहतर राजनीतिक नतीजे लाने की कोशिश कर सकती हैं.
दलित और अगड़े मुस्लिमों का झुकाव हो सकता है: कई सामाजिक कार्यकर्ताओं और नेताओं का मानना है कि मध्यवर्गीय दलित भी कांग्रेस की ओर रुख कर सकता है, क्योंकि मायावती दलितों के कुछ हिस्सों को ही रणनीतिक हिस्सेदारी देतीं हैं. इससे नाराज़ दलित कांग्रेस की ओर जा सकते हैं, साथ ही मुस्लिमों का संभ्रांत और उच्च तबका जो पहले कांग्रेस के साथ, लेकिन बाद के दिनों में सपा-बसपा में चला गया था उनकी वापसी कांग्रेस की ओर हो सकती है. अगर इन सभी समुदायों का वोटबैंक कांग्रेस की ओर मुखातिब होता है तो कांग्रेस की राह कुछ आसान अवश्य होगी.
गैर यादव, गैर जाटव, छोटे व्यापारी भी गोलबंद होंगे: प्रियंका गांधी के आने से चुनावी रूप से कांग्रेस को कितना फायदा होगा यह तो भविष्य में तय होगा, लेकिन लम्बे समय के बाद कांग्रेसी रणनीति में अक्रामकता की झलक देखी सकती है. प्रियंका गांधी जिन्हें पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाया गया है, यहां पर आज भी जातिगत स्तरीकरण की जड़ें काफी मजबूत हैं. यादव और चमार जाति जो कि परंपरागत रूप से सपा और बसपा के साथ रहे हैं उनके बीच में कांग्रेस शायद ही स्प्लिट करा पाएगी. लेकिन प्रियंका गांधी के आने से गैर यादव पिछड़ी जातियों और गैर चमार दलित जातियों का एक हिस्सा कांग्रेस में जा सकता है, क्योंकि उनको इन पांच सालों में बीजेपी से कुछ भी हासिल नहीं हुआ है, जिसे हम सुखदेव राजभर के उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री रहने के बावजूद लगातार सरकार विरोधी बयान देने के लिए सुनते रहे हैं. इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है कि भाजपा जैसी छोटी पार्टियां इन चुनावों में कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ें. इसके साथ साथ अपर कास्ट में से ब्राह्मण और साथ-साथ छोटे व्यापारियों जो कि जीएसटी और नोटबंदी से अभी भी नहीं उभर पाए हैं उनका एक हिस्सा कांग्रेस के साथ जा सकता है.
प्रियंका में इंदिरा गांधी की छवि: न केवल राजनीति से जुड़े लोग, बल्कि जनसामान्य का भी एक बड़ा हिस्सा प्रियंका गांधी में इंदिरा गांधी की छवि देखता है, उनकी तरह देखने में, शानदार व्यक्तित्व, बातचीत में शालीन, चेहरे की बनावट, साड़ी पहनने का तरीका, लोगों से संवाद का तरीका, दृढ़ता, हाव-भाव में शालीनता, व्यवहार कुशलता, कार्यकर्ताओं से मधुर व्यवहार इत्यादि जैसे गुण उन्हें लोगों को अपना मुरीद बना लेते हैं.
10% आरक्षण और सपा-बसपा गठबंधन का जवाब हैं प्रियंका: राजनीतिक और सामाजिक हलकों में इसे बीजेपी के आरक्षण का जवाब माना जा रहा है, क्योंकि प्रियंका के आने से युवा कांग्रेस की ओर मुखातिब हो सकते हैं, भाजपा के प्रति सवर्ण मतदाताओं में उदासीनता सी आ गयी थी, तब भाजपा ने 10 प्रतिशत आर्थिक आरक्षण का दांव चला, जिससे कांग्रेस को लगने लगा कि जो सवर्ण कांग्रेस की ओर झुकाव दिखा रहे थे वो फिर भाजपा की ओर जा सकते हैं उसका भी जवाब है प्रियंका को सक्रिय राजनीति में लाना. दूसरा सपा-बसपा गठबंधन से कांग्रेस दबाव में भी आ गयी थी, जिससे पार पाने का आखिरी उपाय भी प्रियंका को लाना है. इसके फलस्वरूप हो सकता है कि सपा-बसपा पुनः गठबंधन पर विचार करें और कांग्रेस को कुछ ज़्यादा सीटें दें या कुछ ऐसे राजनीतिक समझौते हों जो कांग्रेस के लिए बेहतर परिणाम ला सकें.
राजनीति के तरल पदार्थ आयेंगे कांग्रेस में: तरल से मतलब है कि ऐसे लोग कहीं भी किसी भी विचारधारा में फिट हो जाते हैं जैसे की कोई तरल पदार्थ किसी भी बर्तन में. पूरे देश में कुछ तबके ऐसे हैं जो चुनाव के वक्त पार्टी बदलते हैं, अपना व्यक्तिगत और परिवार या समुदाय का लाभ-हानि देखते हैं. राजनितिक हलकों में उनकी पहचान ज़ाहिर होती है, ये सभी जातियों में होते हैं. ऐसे कार्यकर्त्ता और नेता भी भारी संख्या में कांग्रेस में आ सकते हैं, लेकिन सर्वाधिक संख्या यहां ऐसे वोटरों की होती है जो समाज में मुखर होते हैं. उन्हें चुनावों में कुछ तात्कालिक लाभ मिल जाता है. उन्हें किसी दल या उसकी नीतियों से विशेष लेना-देना नहीं होता है.
शायद दबाव के कारण रेलवे में सवा दो लाख भर्तियों की घोषणा हुई: काफी सारे राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि प्रियंका गांधी के महासचिव बनने के मात्र पांच घंटे बाद रेलवे में सवा दो लाख भर्तियों की घोषणा की गई, जबकि चार साल से रेलवे के विभिन्न परीक्षाओं की तैयारी करने वाले बड़ी बेसब्री से बाट जोहते-जोहते निराश हो चुके थे. क्योंकि पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार से सर्वाधिक उम्मीदवार रेलवे, बैंकिंग और एसएससी की तैयारियां करते हैं, लेकिन इधर चार सालों से काफी कम वैकेंसी निकलने से वे निराश भी थे और सरकार से नाराज भी. तो शायद प्रियंका गांधी की सक्रियता से एक बड़ी घोषणा तो कम से कम हुई.
आरक्षण समर्थकों से संतुलन बनाना होगा: देश के सभी हिस्सों में अब आरक्षण राजनीतिक दलों के लिए जहां बड़ा हथियार है, वहीं आरक्षणवादी अब केवल प्रतीकात्मक आरक्षण भर से नहीं मानेंगे, नरेन्द्र मोदी सरकार ने 10 प्रतिशत आर्थिक आरक्षण देकर दलितों और पिछड़ों को संगठित होने का मौक़ा दे दिया है, जिसे कांग्रेस पहले की तरह केवल लॉलीपॉप देकर शांत नहीं कर सकती. 200 पॉइंट विश्विद्यालय रोस्टर वाले मामले पर सभी आरक्षणवादी साथ खड़े हो रहे हैं. 31 जनवरी से होने वाले संसद सत्र में महागठबंधन इसकी ज़बर्दस्त मांग उठाते हुए हंगामा भी खड़ा कर सकता है. राजग से अलग हुए उपेन्द्र कुशवाहा ने कहा भी है कि आरक्षण का प्रतिशत जनसंख्या के अनुपात में होना चाहिए.
वंशवाद का मुद्दा जनता में ग्राह्य है अब: वंशवाद तो सभी दलों में हैं. बिहार में लालू, पासवान परिवार, यूपी में मुलायम परिवार, राजनाथ सिंह के सुपुत्र भी हैं नेता, छतीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री रमण सिंह के बेटे भी सांसद हैं, तो वसुंधरा राजे सिंधिया के बेटे दुष्यंत भी सांसद हैं. हरियाणा में कांग्रेस, इनेलों, हरियाणा जनहित कांग्रेस के नेता कुलदीप विश्नोई भी वंशवाद की ही उपज हैं, तो ओडिशा में नवीन पटनायक भी परिवारवाद की पौध हैं. दक्षिण भारत मे करुणानिधि के सुपुत्र वंशवाद के बेल को आगे बढ़ा रहे हैं. तो मेघालय में कोनराड संगमा पीए संगमा की परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं, जम्मू-कश्मीर में पीडीपी और एनसीपी में भी वंशवाद है. असम में गोगोई परिवार, वाईएसआरसीपी के जगन मोहन रेड्डी राजशेखर रेड्डी के बेटे आंध्र प्रदेश में, तो तेलंगाना में टीआरएस की के. कविता और ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के असदुद्दीन ओवैसी पारिवारिक राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं.
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बीजेपी में काफी सारे नेता संघ के प्रचारक रहे हैं, जिन्होंने शादी नहीं की ऐसे लोग वंशवाद नहीं फैला सकते, लेकिन भाई-भतीजे को लाभ मिल ही जाता है. वाजपेयी जी के भतीजे अनूप मिश्रा भी भाजपा से सांसद हैं. कर्नाटक में देवेगौड़ा परिवार भी इस प्रक्रिया को आगे बढ़ रहा है. महाराष्ट्र में ठाकरे परिवार, यूपी में कल्याण सिंह का परिवार, छतीसगढ़ में सिंहदेव परिवार, अजित योगी परिवार, शायद कम्युनिस्ट इस मामले में अभी बिल्कुल ही फिसड्डी हैं. इसलिए वंशवाद और पारिवारिक विरासत अब मुद्दा नहीं है. मुद्दा असली और नकली विकास बनने वाला है.
अब परिवारवाद और वंशवाद को भी लोगों ने स्वीकार कर लिया है, बस एक ही फर्क है कोई कम भ्रष्ट या अपेक्षाकृत कम वंशवादी होता है तो उसे जनता ज्यादा पसंद कर लेती है.
(लेखक पत्रकार एवम मीडिया प्रशिक्षक हैं)